हरि का दोस्त मनोहर बाहर से आवाज दे रहा था “अरे ओ हरि! खेलना नहीं है क्या आज?
“हांँ-हांँ चलता हूँ”
हरि व मनोहर अच्छे दोस्त थे। एक ही मोहल्ले में रहते थे। साथ खेलते साथ ही शाला जाते थे।
हरि के पापा एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे। उनकी कमाई से घर आसानी से चल रहा था। हरि के दादा-दादी की मम्मी पापा बहुत सेवा करते थे।
मनोहर के पिताजी अनाज के व्यापारी थे। उसकी माँ हमेशा सास-ससुर से लड़ती ही रहती। वह उन्हें हमेशा कोसती रहती ,”क्या दिया आप लोगों ने हमें। अब ठाट से मुफ्त की रोटी तोड़ रहे हो। जाओ दूसरे बेटे के पास, हमारी छाती पर क्यूंँ मूंग दलते हो”।
बहू की अंगारे उगलती बातों से परेशान मनोहर के दादा-दादी गाँव चले गये। तब से मनोहर को घर में अच्छा नहीं लगता था। शाला से आया नहीं कि माँ उसे भी ताने देती “आ गये लाट साब! अरे कुछ तो मेरा काम कर दिया करो। पढ़ने जाते हो तो कोई हम पर एहसान नहीं करते।”
मनोहर बस्ता रख तुरंत खेलने निकल जाता था।
हरि बाहर आकर बोला,”आ मनोहर माँ गरम समोसे बना रही हैं, तुझे भी खाने के लिए बुला रही है।”
हरि की माँ हमेशा मनोहर से प्यार से बात करती ,उनके घर जाना उसे अच्छा लगता था।
हरि की मम्मी ने दोनों की प्लेट लगा दी थी। समोसे तलते वे बोली,“अरे मनोहर बेटा तुम मिर्च कम खाते हो देखकर खाना, मैंने हरी मिर्च के टुकड़े डालें हैं, निकाल देना।”
मनोहर सोच रहा था, मेरी माँ की जली-कटी बातों से तो मिठाई भी तीखी लगती है।
वह बोला,” नहीं,आंटी ठीक है।”
समोसे बहुत स्वादिष्ट बने हैं। आप के प्यार की मिठास से तो तीखी मिर्ची भी मीठी हो जाती है।”
सुनीता परसाई ‘चारु’
जबलपुर मप्र
मुहावरे पर आधारित लघुकथा
#अंगारे उगलना