परीक्षा के परिणाम घोषित हो गये थे। हमेशा अव्वल आनेवाली विद्या प्रतियोगी परीक्षा में पीछे रह गयी थी। आंसू झरझर बह रहे थे। कितने सपने संजोये थे उसने। कितने अरमान थे माँ के। पापा से बिछडने के बाद माँ बेटी एक दूजे का सहारा, संबल थी।
उसे पता है, माँ अकेली होती है तब खूब रोती है। पापा की याद उसे भी सताती है।
कितनी आस थी उनकी। बिटिया को डाक्टर बनायेंगे। छोटा सा क्लिनिक होगा उसका। बडे बडे हास्पिटल में इलाज करने उसे बुलाया जायेगा। सब पूछेंगे, तब छाती फुलाकर कहुंगा, हमारी बेटी है।”
काश, पापा होते। आँसू खुद ही सूख जाते।
अपने पापा के सपने को वह जरूर पूरा करेगी। खूब पढेगी। रात दिन अभ्यास करेगी। पापा का सपना सच करेगी। लेकिन…ये क्या हो गया।
कई होनहार छात्रों का परिणाम अपेक्षाकृत नहीं आया था। सबने मिलकर जाँच करने वाले परिक्षकों पर दबाव डाला। कोर्ट में दुबारा जांच के लिए निवेदन दिया।
विद्यार्थी अपने भविष्य को लेकर हताश थे। योग्यता, लगन, परिश्रम के बावजूद असफलता उनके हाथ लगी थी। मन में अजीबो-गरीब खयाल आ रहे थे।
विद्या न तो पढ पा रही थी, न समय का सदुपयोग करना चाह रही थी।
माँ कहती, “हार से डरो नहीं। आवेग के साथ उभरो। लगे रहो। अपने आप पर भरोसा रखो।”
“कोशिश करनेवाले की हार नहीं होती।”
पढते-पढते वह सो गयी थी।
सखी मीता ने हिलाते हुए उसे उठाया।
” चल जल्दी।” परेशान वह उसके साथ चली। सुन, हमारे अंक बढ गये हैं। कुछ लोगों ने फ्राॅड किया था। उनके प्रवेश पर रोक लगा दी गयी है।
जय हो.. जोर से जयकारा करती वह मीता के साथ हो ली।
” अरे मीता, मेरे हाथ आ जाये अगर ये भ्रष्टाचारी, खाल उधेड दूं उनकी।”
“और मैं इतने अंगारे बरसाऊंगी, जलकर राख हो जाये सारे।”
खुशी से झूमती वे दोनों प्रशाला पहुंच गयी थी।
सबके मन में गुस्सा उबल रहा था, साथ ही सफलता से मन हर्षविभोर हो रहा था।
स्वरचित मौलिक कहानी
चंचल जैन
मुंबई, महाराष्ट्र