अनकही गंध – डॉ० मनीषा भारद्वाज : Moral Stories in Hindi

सुबह का सूरज अभी आँखें मल ही रहा था। हवा में कसैली सर्दी और डीजल इंजनों की तीखी गंध घुली हुई थी। छोटे से शहर के स्टेशन पर, प्लेटफॉर्म नंबर दो के पास, करमचंद का चाय का ठेला जैसे सिसकती हुई दुनिया में एक ऊष्मा का केंद्र था। उसके बर्तनों से निकलती भाप, जीवन की धुँधली आशा की तरह हवा में लुप्त हो जाती।

करमचंद के हाथ – खुरदुरे, चाय की पत्तियों और धुएँ से रंगे हुए, चाय बनाने की कला में मशगूल थे। उबलता दूध, चायपत्ती का झाग, चीनी की मीठी चाशनी – सब कुछ एक लय में। “एक गरमा-गरम, साहब!” उसकी आवाज़, स्टेशन के शोर में एक परिचित सुर की तरह गूँजती। उसके चेहरे पर थकान की गहरी रेखाएँ थीं, पर नज़रों में एक अदम्य चमक – जैसे किसी ऐसे व्यक्ति की जिसने जीवन की अधिकांश कड़वाहट चख ली हो, पर फिर भी मिठास की उम्मीद न छोड़ी हो।

जीवन का सफर? करमचंद के लिए तो वह इसी स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर चलता था। वह देखता था – बिछड़ने वालों की आँखों में छलकते आँसू, मिलन की उतावली में काँपते होंठ, रोज़गार की तलाश में सूखे चेहरे, और कभी-कभार, प्रेम में डूबे युवा जोड़ों की मुस्कान। हर चाय का प्याला उसके हाथों से निकलकर किसी की कहानी का हिस्सा बन जाता। किसी की ठंड मिटाता, तो किसी की चुप्पी तोड़ता।

एक दिन, अचानक, सुबह की शांति चीखों से चीर गई। प्लेटफॉर्म के दूर छोर पर भीड़ जमा हो गई। एक युवती, बेतरतीब ढंग से पटरियों पर गिर पड़ी थी, जबकि एक तेज़ रफ़्तार मालगाड़ी सुरसा के मुख की तरह निकट आ रही थी। भीड़ स्तब्ध, हाथ पर हाथ धरे देख रही थी। जीवन की नश्वरता, एक क्षण में, नंगी होकर खड़ी हो गई थी।

उस पल करमचंद के भीतर क्या हुआ, वह खुद भी नहीं समझ पाया। उसकी थकी देह में जान आ गई। वह अपने ठेले से झपटा, जैसे कोई बाज शिकार पर टूट पड़े। उसने पटरी की ओर छलांग लगाई, बिना किसी हिचकिचाहट के। उसके पैरों तले बजरी चरमराई। उसने लड़की के बदन को, जो बेहोशी की सीमा पर था, जोर से खींचा। दोनों पटरी के किनारे गिरे, ठीक उसी क्षण जब मालगाड़ी एक गर्जन करती हुई, अपार वेग से उसी स्थान को चीरती निकल गई। हवा का दबाव, धूल का गुबार, और जीवन-मृत्यु के बीच की उस संकरी दरार का अनुभव – सब कुछ एक साथ।

भीड़ में से एक सिसकती हुई सांस निकली, फिर तालियों की गड़गड़ाहट हुई। करमचंद धूल में सना हुआ, सीने पर जोरों से धड़कता दिल लिए उठा। लड़की को सुरक्षित देखकर उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी – भय, राहत, और एक गहरी संतुष्टि का मिला-जुला भाव। उस पल उसे अपनी चाय के ठेले से दूर जाने का कोई मलाल नहीं था। जीवन की असली गंध, उसने महसूस की, वह न तो केवल चाय की खुशबू थी, न ही डीजल की तीक्ष्ण गंध। वह थी उस क्षण की तीव्रता में, जहाँ एक साधारण मनुष्य असाधारण बन जाता है।

हादसे के बाद का दिन सामान्य नहीं था। लोग उसके ठेले पर न सिर्फ चाय पीने, बल्कि उस ‘बहादुर चायवाले’ को देखने आए। शाबाशियाँ, कुछ ज्यादा ही पैसे – करमचंद सबको विनम्रता से स्वीकार करता रहा। पर शाम को, जब भीड़ छंटी और स्टेशन अपनी नियमित गूँज में लौटा, तब उसकी नज़र दूर प्लेटफॉर्म के उस कोने पर पड़ी। वहाँ एक फूलों का छोटा सा गुच्छा पड़ा था, शायद उस लड़की का, जिसे उसने बचाया था। उसने उसे उठाया। फूल मुरझा रहे थे, पर उनकी सूक्ष्म सुगंध हवा में तैर रही थी – नाजुक, क्षणभंगुर, पर अद्भुत रूप से मधुर।

उस रात करमचंद देर तक जागता रहा। चंद्रमा की रौशनी में उसके ठेले के बर्तन चमक रहे थे। उसके मन में तूफ़ान था। जीवन का सफर कितना अप्रत्याशित था! कल तक वह सिर्फ चाय बेचने वाला एक नाम था। आज वह किसी के लिए मसीहा बन गया था। उस दिन की भयावहता उसे झकझोर रही थी, पर उससे कहीं गहरा, एक अजीब सी शांति भी थी। उसने महसूस किया कि जीवन की सच्ची मिठास अक्सर उसकी सबसे खट्टी घटनाओं की गोद में छिपी होती है। उस लड़की की जान बचाने का साहस, उस पल की भयानकता के बिना संभव नहीं होता। यही तो जीवन का रोमांच था – अंधेरी सुरंग के अंत में मिलने वाली रोशनी का अनिश्चित, पर मनोहारी वादा।

वर्षों बीत गए। करमचंद अब भी उसी स्टेशन पर चाय बेचता है, हाथों पर उम्र की रेखाएँ गहरा गई हैं। उसकी कहानी स्थानीय लोगों के बीच एक किंवदंती बन चुकी है। एक दिन, तेज़ बुखार और सीने में तेज़ दर्द के साथ उसे शहर के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया। डर उसे सता रहा था – इलाज का खर्च, ठेले का नुकसान, अनिश्चितता।

एक युवा डॉक्टर, जिसकी आँखों में गहरी सूझ-बूझ थी, उसका चेक-अप करने आई। उसने करमचंद का चार्ट देखा, फिर ध्यान से उसके चेहरे को निहारा। एक विचित्र चमक उसकी आँखों में कौंध गई।

“काका,” उसने कोमल, पर दृढ़ स्वर में कहा, “क्या आप कभी नरसिंहपुर स्टेशन पर चाय बेचा करते थे?”

करमचंद हैरानी से हाँ में सिर हिलाया।

डॉक्टर की आँखों में अचानक आँसू छलक आए। उसने करमचंद का हाथ अपने हाथों में ले लिया। “मैं वही लड़की हूँ, काका,” उसकी आवाज़ भर्राई हुई थी, “जिसे आपने उस दिन पटरी से खींच लिया था। आपकी वजह से ही मैं आज यहाँ, इस अस्पताल में, लोगों की जान बचा पा रही हूँ।”

उस क्षण, अस्पताल के स्टरलाइज़ कमरे की हवा में भी, करमचंद को फिर वही सूक्ष्म गंध महसूस हुई – उन मुरझाये फूलों की, जो सालों पहले प्लेटफॉर्म पर पड़े थे। मिठास, जो खट्टेपन के बीच से उपजी थी, अपने पूर्ण चक्र में आकर उसके जीवन को छू रही थी।

एक आँसू, अनायास ही, करमचंद की आँख से फिसलकर तकिये पर गिरा। वह मुस्कुराया। जीवन का सफर कितना अद्भुत, कितना रहस्यमय था! वह अनंत रेल पटरियों की तरह, जो दूर तक फैली होती हैं, कभी सीधी, कभी टेढ़ी-मेढ़ी, कभी अंधेरी सुरंगों में लुप्त, तो कभी खुले मैदानों में विस्तृत। और हम,

उस पर चलते यात्री, कभी डरते हुए, कभी हँसते हुए, हर मोड़ पर कुछ खोते, कुछ पाते, इस उम्मीद में कि अगला स्टेशन शायद थोड़ी और धूप, थोड़ी और मिठास लकर आए। यही तो था जीवन का असली रोमांच – अनजाने में बिछे संबंधों का जाल, छोटे कर्मों का विशाल प्रतिफल, और इस विशाल, अबूझ यात्रा में छिपे उन अनमोल क्षणों की खोज, जो खट्टे-मीठे स्वाद के साथ हमारे अस्तित्व को अर्थ और गरिमा से भर देते है

डॉ० मनीषा भारद्वाज

ब्याड़ा (पालमपुर)

हिमाचल प्रदेश

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