रीना किचन में बर्तन समेट ही रही थी कि अचानक फोन की घंटी बजी।
फोन उठाया तो गाँव से बड़े चाचा थे—
“बिटिया, अम्मा अब बहुत बूढ़ी हो गई हैं। आँखों से कम दिखता है, घुटनों में दर्द है। अब अकेले रहना मुश्किल हो गया है। तुम लोग दिल्ली में हो, किसी के पास तो होना चाहिए। आकर ले जाओ।”
रीना ने गहरी साँस ली और बोली—“ठीक है चाचाजी, इस रविवार को हम आ रहे हैं। अम्मा को साथ ले चलेंगे।”
फोन कटते ही रीना को अपने बचपन के दिन याद आने लगे। अम्मा कितनी मेहनती थीं। सुबह से रात तक खेतों में काम, फिर घर आकर बच्चों की देखभाल। वही अम्मा अब असहाय हो गई थीं।
रीना की शादी अशोक से हुई थी। अशोक दिल्ली में प्रॉपर्टी डीलर था। पैसों की कमी न थी। तीन मंज़िला कोठी थी।
रीना के दो भाई थे—नरेश और विकास। दोनों का घर गाँव में था, लेकिन अम्मा के साथ रहना उन्हें बोझ लगता था।
तीन साल पहले नरेश ने नया ट्रैक्टर खरीदा था, तब अम्मा ने गहनों और ज़मीन से मिले पैसे उसे दे दिए थे।
विकास की बेटी की शादी में भी अम्मा ने अपनी बचत और ज़मीन का हिस्सा बेचकर खर्च उठाया था।
तब दोनों भाइयों ने वादा किया था—
“अम्मा, अब आप निश्चिंत रहो। हम दोनों बारी-बारी से आपकी सेवा करेंगे।”
पर आज वही दोनों भाई चुपचाप अम्मा को रीना के भरोसे छोड़ना चाहते थे।
रविवार को रीना अपने बेटे सौरभ को साथ लेकर गाँव पहुँची। अम्मा को देखा तो दिल भर आया। शरीर दुबला-पतला, चेहरे पर झुर्रियाँ और आँखों में इंतज़ार।
अम्मा ने पास बुलाकर कहा—
“बिटिया, तुम क्यों आई? तुम्हारी अपनी गृहस्थी है। मैं तो यहीं ठीक थी।”
रीना ने गले लगाते हुए कहा—
“अम्मा, अब आप अकेली नहीं रहेंगी। मेरे पास चलिए।”
अशोक को यह सब बिल्कुल पसंद नहीं आया। कार में बैठते ही उसने तुनककर कहा—
“रीना, ये सब क्यों? तुम्हारे भाई लोग क्या मर गए हैं? सब कुछ हड़प गए और अब जिम्मेदारी तुम्हारे सिर डाल दी।”
रीना चुप रही। वह जानती थी, घर पहुँचने पर असली समस्या शुरू होगी।
दिल्ली लौटकर अशोक ने साफ कह दिया—
“देखो, ऊपर वाली मंज़िल पर स्टोर रूम है। वहीं रख दो अपनी माँ को। घर में सबको दिक्कत होगी।”
रीना का दिल छलनी हो गया। जिस माँ ने पूरी उम्र सबको संभाला, आज उन्हें स्टोर रूम में रखना पड़ेगा?
फिर भी उसने अम्मा को समझाया—
“अम्मा, यह कमरा आपका होगा। आप आराम से रहिए।”
अम्मा मुस्कुराईं, लेकिन वह मुस्कान रीना को और बेचैन कर गई।
दिन बीतते गए। रीना का बेटा सौरभ, जो कभी नानी से लाड़ करता था, अब दोस्तों में व्यस्त हो गया।
अशोक अक्सर ताने मारता—
“खाना-पीना, दवा-दारू सब खर्च है। तेरे भाइयों से क्यों नहीं कहती कि कुछ भेजें?”
रीना हर बार सोचती—क्या माँ की सेवा भी पैसों से तौली जाती है?
एक दिन उसने नरेश और विकास को फोन लगाया—
“भइया, अम्मा की दवाइयाँ और खर्चे बढ़ गए हैं। आप लोग थोड़ा सहयोग कर दीजिए।”
लेकिन उधर से ठंडी आवाज़ आई—
“दीदी, हमारी अपनी मजबूरी है। तुम तो बड़े घर में रहती हो, तुम्हें क्या दिक्कत? हमें परेशान मत करो।”
रीना ने फोन रख दिया। उसकी आँखें नम थीं।
एक रात अम्मा ने रीना से कहा—
“बिटिया, मुझे यहाँ अच्छा नहीं लगता। तेरा पति और बच्चा दूर-दूर रहते हैं। तेरा बोझ बढ़ रहा है। मुझे किसी वृद्धाश्रम में छोड़ आ। वहाँ मेरे जैसे लोग होंगे। मैं उनके साथ रह लूँगी।”
रीना की आँखों से आँसू बहने लगे।
“अम्मा, आप ऐसा मत कहो। मैं आपके बिना कैसे रहूँगी?”
अम्मा ने धीरे से कहा—
“मैंने अपने बेटों के लिए सब कुछ किया। सोचा बुढ़ापे में सहारा देंगे। लेकिन अब समझ गई हूँ, बेटी ही असली सहारा होती है। बेटों का मोह छोड़ चुकी हूँ। बस अब तुम्हें परेशान नहीं करना चाहती।”
कुछ महीनों बाद अम्मा सचमुच वृद्धाश्रम चली गईं। रीना हर सप्ताह उनसे मिलने जाती। लेकिन अम्मा के चेहरे की उदासी कभी मिट न पाई।
फिर एक दिन फोन आया—
“आपकी माँ अब इस दुनिया में नहीं रहीं।”
रीना का कलेजा फट गया।
सोच रही थी—“काश, समाज यह समझ पाता कि माता-पिता कोई बोझ नहीं होते। वे वही हैं जिनकी बदौलत हम सब हैं। बेटे अक्सर दूर हो जाते हैं, लेकिन बेटी… वह आखिरी दम तक माँ-बाप के आँचल से जुड़ी रहती है।”रीना ने अम्मा की तस्वीर के सामने दीप जलाया और बुदबुदाई—
“अम्मा, माफ़ करना। मैं आपके लिए वैसा नहीं कर पाई जैसी आप हक़दार थीं। पर यक़ीन मानो, आपकी दी हुई सीख मैं अपनी बहू-बेटी को ज़रूर दूँगी। ताकि किसी माँ को आख़िरी वक्त स्टोर रूम या वृद्धाश्रम में न रहना पड़े।”