अदृश्य सूत्र – डॉ० मनीषा भारद्वाज : Moral Stories in Hindi

सुबह की धूप ने ‘रामू टी स्टॉल’ के जर्जर शटर पर सोने की धारियाँ खींच दीं। अंदर, रामशरण शर्मा, ‘रामू काका’ के नाम से मशहूर, अपनी कहानियों से भी पुरानी उम्र के स्टील के केतली को घिस रहे थे। उनकी आँखों में जीवन की राख-सी उदासी थी। पचास साल की चाय बेचने की रस्म अदायगी ने उन्हें जीवन के ‘उद्देश्य’ पर एक कटु विश्वास दिला दिया था: “सब नाटक है, बेटा। जन्म, मरना, और बीच में… सिर्फ चाय और चीनी का खेल।”

तभी एक तेज़ आवाज़ गूंजी, “काका! एक कड़क मसाला चाय, प्लीज़! और ये दुकान… कितनी पोटेंशियल है! थोड़ा रंग-रोगन, नया बोर्ड…” नीरजा खड़ी थी, उसके चेहरे पर बीस साल की उमंग और हर चीज़ को ‘फिक्स’ कर देने की जिद। वह शहर में नई थी, एक छोटी सी कंपनी में डिज़ाइनर।

रामू काका ने उसकी ओर देखा, एक हल्की सी चिढ़ के साथ। “पोटेंशियल? बेटी, ये दुकान तुम्हारी उम्र से भी पुरानी है। जैसी है, वैसी ही ठीक है। जिंदगी भी ऐसी ही होती है – जर्जर, पर चलती रहती है। उद्देश्य? हं! उद्देश्य तो बस यही है कि सांस चलती रहे।”

नीरजा ने चाय का पहला घूंट लिया, चेहरा बिगड़ गया। “काका! ये तो कड़वी हो गई! बिल्कुल जिंदगी जैसी।” उसने हँसते हुए कहा, पर नज़रें दुकान के कोने में पड़े टूटे-फूटे लकड़ी के खिलौनों पर टिक गईं। “वो क्या हैं?”

रामू काका की आँखें एक पल के लिए नरम पड़ गईं। “अरे… पुरानी यादें। जब छोटा था, तब बनाता था। लकड़ी पर उकेर देता था जानवरों की शकलें। बाप का दबाव था – पढ़ो, नौकरी करो। ये ‘बेकार’ काम छोड़ दिया। अब ये सिर्फ… कबाड़ हैं।” उसकी आवाज़ में एक गहरी टीस थी।

“बेकार?” नीरजा उठकर खिलौनों के पास गई, एक टूटे हाथ वाले घोड़े को उठाया। “काका, ये तो कला है! देखो इस डिटेलिंग को! ये ‘कबाड़’ नहीं, ये तो आपकी आत्मा का हिस्सा हैं।” उसकी आँखों में एक चमक थी, जो रामू काका को कई दशकों से नहीं दिखी थी।

“आत्मा?” रामू काका खिलखिला पड़े, पर इस बार चिढ़ नहीं, एक अजीब सी भावना थी। “बेटी, आत्मा तो पेट के नीचे दबी रहती है। ये सब तो कच्चे धागों के बंधन हैं – ख्वाहिशों के, जो टूट गए। असली बंधन तो वो हैं जो हम चाहकर भी नहीं तोड़ पाते – जिम्मेदारियों के, मजबूरियों के।”

नीरजा ने घोड़े को सहलाया। “पर काका, क्या ये खिलौने सिर्फ कच्चे धागे थे? देखिए, आपने इन्हें बनाया। ये आपके हाथों की गर्मी, आपकी कल्पना को समेटे हैं। ये टूटे हैं, पर इनमें जान है! क्या उद्देश्य सिर्फ पैसा कमाना है? या… जो आपको जिंदा महसूस कराए, उसे करना भी है?”

रामू काका चुपचाप नीरजा को देखते रहे। उसकी बातें उसके पुराने घावों को छू रही थीं, पर एक अजीब सी गर्मी भी दे रही थीं। “तुम बहुत सपने देखती हो, बेटी। दुनिया ऐसी नहीं होती।”

“पर हम दुनिया को थोड़ा सा बेहतर तो बना सकते हैं, ना?” नीरजा ने जिद पकड़ ली। “काका, मुझे ये खिलौने दीजिए ना? मैं इन्हें रिपेयर करके, पेंट करके दिखाऊंगी! और आपकी दुकान… बस एक हफ्ते का समय दीजिए, थोड़ा सा बदलाव!”

रामू काका ने आकाश की ओर देखा, फिर उस उत्साही लड़की की ओर, जिसकी आँखों में एक अद्भुत जिद्दीपन था। “अच्छा ठीक है,” उन्होंने आह भरकर कहा, एक छोटी सी मुस्कान उनके होंठों पर खेल रही थी। “देखते हैं तुम्हारे ये ‘अदृश्य सूत्र’ कहाँ तक बांध पाते हैं।”

अगले कुछ दिनों में, ‘रामू टी स्टॉल’ एक अजीबोगरीब कार्यशाला में बदल गया। नीरजा रंगों, ब्रशों और सैंडपेपर से लैस आती। वह खिलौनों को सावधानी से ठीक करती, उन्हें जीवंत रंग देती। रामू काका पहले तो खड़े-खड़े तमाशा देखते, फिर धीरे-धीरे सलाह देने लगे – “यहाँ जोड़ मजबूत करो,” “इस आँख को थोड़ा और जीवंत बनाओ।” फिर एक दिन, वह खुद एक छोटे से बंदर को ठीक करने बैठ गए। उनके हाथों में एक सहज याददाश्त थी, एक लयबद्धता लौट आई थी।

एक शाम, जब नीरजा एक चमकीले नीले रंग से घोड़े को रंग रही थी, रामू काका ने धीरे से कहा, “बेटी, तुम्हारा कहना सही था। ये खिलौने… ये सिर्फ लकड़ी नहीं हैं। इनमें वो समय बसा है जब मैं… खुश था। सच्चा। बाप के डर से दब गया, पर ये ख्वाहिश,” उन्होंने एक खिलौना उठाया, “ये तो अंदर ही अंदर सुलगती रही। जैसे कोई अदृश्य धागा, जो टूटा नहीं, बस धुंधला पड़ गया था।”

नीरजा मुस्कुराई, उसकी आँखें नम थीं। “काका, बंधन सिर्फ वो नहीं होते जो दिखते हैं, जो बोझिल लगते हैं। कभी-कभी सबसे मजबूत बंधन वो होते हैं जो हमारी आत्मा को उसकी सच्चाई से जोड़े रखते हैं। चाहे वो कितने ही धुंधले क्यों न हो जाएँ। जीवन का उद्देश्य? शायद बस… अपने उन अदृश्य सूत्रों को पहचानना, और उन्हें फिर से जीवंत करने का साहस जुटाना।”

रामू काका ने नए सिरे से रंगे हुए, चमकदार खिलौनों को देखा। वे अब टूटे हुए कबाड़ नहीं लगते थे। वे उसके भीतर के उस बच्चे की याद दिला रहे थे जो खुशी से चीख़ सकता था। उन्होंने एक गहरी सांस ली। उद्देश्य शायद बहुत बड़ी चीज़ नहीं थी। शायद बस अपनी सच्चाई को, अपने उन अदृश्य धागों को, चाहे वे कितने ही बारीक क्यों न हों, निडर होकर पकड़े रहना था। और कभी-कभी, एक अजनबी के हाथों उन धागों को फिर से स्पष्ट होते देखना, जीवन की सबसे मीठी-खट्टी सच्चाई होती है।

“कल,” रामू काका ने नीरजा की ओर देखते हुए कहा, एक नया विश्वास उनकी आवाज़ में था, “कल से हम ये खिलौने भी दुकान पर रखेंगे। चाय के साथ थोड़ी सी… जान भी बिकेगी। क्या कहती हो, डिज़ाइनर साहिबा?”

नीरजा की खुशी की चीख से दुकान गूंज उठी। दो विपरीत किनारों पर खड़े लोग, एक अदृश्य सूत्र से बंध चुके थे – सपने और यथार्थ का, याद और उम्मीद का, एक ऐसा बंधन जो कच्चे धागों से कहीं अधिक मजबूत था।

# ये बंधन कच्चे धागों का नहीं है ।

डॉ० मनीषा भारद्वाज

ब्याड़ा (पंचरुखी) पालमपुर

हिमाचल प्रदेश

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