अब के सज्जन सावन में – संध्या त्रिपाठी

सुबह के नौ बजने में पाँच मिनट बाकी थे, लेकिन किचन की घड़ी मानो तेजी से भाग रही थी।

“किरण, मेरी सफ़ेद शर्ट इस्त्री हुई या नहीं? मीटिंग है आज, तुम जानती हो न!”
आदित्य ने अलमारी से फाइल निकालते हुए ऊँची आवाज़ लगाई।

किरण ने गैस पर तड़तड़ाते तवे की तरफ़ देखा, पराठा पलटते-पलटते घबराते हुए जवाब दिया,
“बस दो मिनट, अभी प्रेस करती हूँ… नाश्ता भी लगा दूँ, फिर शर्ट भी दे दूँगी।”

“दो मिनट… दो मिनट…” आदित्य झुंझलाया, “हर दिन वही डायलॉग। नौ बजे की बस छूट गई तो मैं लेट हो जाऊँगा, बॉस का मूड खराब होगा, पूरा दिन खराब हो जाएगा। ये सब समझती हो तुम?”

किरण के हाथ थोड़े काँप गए। पराठा आधा जला, आधा कच्चा रह गया। उसने गैस बंद की, पास रखी शर्ट उठाई और जल्दी-जल्दी इस्त्री पर चढ़ा दी।

हॉल में बैठी मीना जी ने दूर से ही आवाज़ों के उतार-चढ़ाव से अंदाज़ लगा लिया कि आज भी कुछ न कुछ तनातनी हो ही जाएगी।

आदित्य हड़बड़ाते हुए बाहर आया, टाई गर्दन में आधी बंधी, चेहरा तमतमाया हुआ।
“रहने दो, अब शर्ट की भी ज़रूरत नहीं है, जो पहन रखी है उसी में चला जाऊँगा। नाश्ता भी नहीं करना मुझे, ऑफिस में कुछ खा लूँगा।”

किरण हाथ में प्लेट लिए दरवाज़े तक दौड़ी,
“आदि, ये पराठा तो खा लो… तुमने सुबह से कुछ नहीं खाया…”

आदित्य ने बिना देखे कहा,
“टाइम नहीं है, लेट हो रहा हूँ,”

और गुस्से में दरवाज़ा बंद कर के निकल गया।

किरण वहीं चौखट पर खड़ी रह गई, हाथ में प्लेट, आँखों में छलकता पानी। तवे से उठती घी की खुशबू अब उसे चुभने लगी थी। उसने धीरे से प्लेट डाइनिंग टेबल पर रख दी और किचन में जाकर चुपचाप स्टोव ऑफ़ कर दिया।

ढाई कमरे के छोटे से फ्लैट में आज अचानक बहुत सन्नाटा लगने लगा था।

मीना जी धीरे-धीरे उठीं, अपनी घुटनों पर हाथ रखकर सहारा लेते हुए किचन तक आईं।
“क्या हुआ बहू?” उन्होंने नरमी से पूछा, “इतनी चुप क्यों हो गई अचानक?”

किरण ने बनावटी हँसी के साथ कहा,
“कुछ नहीं मम्मी, बस… आदित्य को देर हो रही थी। मीटिंग जल्दी थी, नाश्ता रह गया तो क्या हुआ, कभी-कभी हो जाता है न… मेरी ही गलती है, मुझे थोड़ा और जल्दी उठना चाहिए था।”

मीना जी ने उसके काँपते हाथों पर अपना हाथ रख दिया।
“बस यही तो दिक्कत है तुम लड़कियों की…”
वो कुर्सी पर बैठते हुए बोलीं,
“जहाँ बात आती है घर की, पति की, बच्चों की… तुरंत खुद को कटघरे में खड़ा कर देती हो। सब कुछ अपनी गलती मान लेती हो।”

किरण की आँख भर आई,
“पर सच में मम्मी, कल रात प्रोजेक्ट की डेडलाइन के चक्कर में मैं एक बजे तक जागती रही। सोचा था अलार्म लगा लूँगी, पर… थकान में भूल गई।

आदित्य की इतनी इंपॉर्टेंट मीटिंग थी, मुझे तो खुद ही ध्यान रखना चाहिए था न…”

मीना जी ने हल्की–सी मुस्कान के साथ कहा,
“तुमने ये भी तो नहीं बताया कि कल रात तक ऑफिस का काम करती रहीं। कभी सोचा, तुम्हारे लिए भी तो कोई ‘इंपॉर्टेंट मीटिंग’ होती होगी अपने बॉस के साथ, तुम्हारी भी कोई टाइमलाइन होती होगी…?”

किरण चुप हो गई।
रोज़ यही होता—किरण सुबह छह बजे उठती, चाय–नाश्ता, डिब्बे की तैयारी, फटाफट तैयार होकर खुद भी ऑफिस भागती, वहाँ आठ–नौ घंटे काम, शाम को वापस आकर फिर किचन, कपड़े, सफाई…
कभी-कभी उसे लगता, उसका दिन उसकी ज़िंदगी नहीं, जैसे किसी दौड़ का हिस्सा हो।

मीना जी उसकी थाली में एक पराठा रखती हुई बोलीं,
“पहले तुम यही गरम-गरम खा लो। आदित्य तो ऑफिस में कुछ न कुछ खा ही लेगा। सब लोग मिल-बाँटकर खाते हैं वहाँ। वैसे भी…”

मीना जी ने हल्का-सा रहस्यपूर्ण अंदाज़ में कहा,
“उसकी बैग में मैंने रात ही सूखे मेवे और नमकीन का एक डिब्बा रख दिया था। कल उसने खुद ही बताया था न कि मीटिंग लंबी है, हो सकता है लंच टाइम आगे–पीछे हो जाए।

माँ हूँ उसकी… तुम्हें और उसे, दोनों को देखकर थोड़ी-बहुत बात समझ ही जाती हूँ।”

किरण ने चौंक कर देखा,
“आपने… आपने कल ही रख दिया था? मुझे तो पता ही नहीं चला…”

मीना ने हँसकर कहा,
“तुम्हारे सामने रखती तो तुम उसी वक़्त तीन बार बोल देती—‘नहीं मम्मी, आदित्य गुस्सा करेगा कि बैग भारी हो गया।’ इसलिए चुपचाप रख दिया।
अब तुम फालतू का अपराधबोध छोड़ो और ये पराठा खाओ।

एक और बात… हर छोटी–छोटी बात पर खुद को दोषी ठहराना बंद करो। तुम्हारी भी लिमिट है, तुम भी इंसान हो, कोई मशीन नहीं।”

किरण ने एक निवाला मुँह में रखा, पर उसकी आँखों से दो बूँदें रोटी पर गिर पड़ीं।

“मम्मी…” उसने धीरे से कहा,
“आपको पता है, मेरी मम्मी बचपन से मुझे यही सिखाती रहीं—
‘बेटी, ससुराल में ज़रा भी चूक नहीं होनी चाहिए।
पति का नाश्ता, डिब्बा, कपड़े, सब पहले… अपनी थकान बाद में।
नहीं तो लोग कहेंगे, माँ–बाप ने संस्कार नहीं दिए।’

शायद इसीलिए हर बात पर मुझे बस अपनी ही गलती नज़र आती है।”

मीना जी ने गहरी साँस ली।
“तुम्हारी माँ ने ग़लत नहीं सिखाया, समय अलग था तब।
हम औरतें भी उसी दौर की पैदाइश हैं, बेटा।
फर्क बस इतना है कि
हमने वो जिंदगी काटी है, और तुमसे हम वही जिंदगी दोबारा नहीं कटवाना चाहते।”

किरण ने हैरानी से उनकी तरफ़ देखा।
“आप… आप क्या कहना चाह रही हैं, मम्मी?”

मीना जी ने थोड़ा चुप रहकर शब्द समेटे, जैसे कोई पुराना कागज़ धीरे-धीरे खोल रही हों।

“तुम्हारे पापा जब नौकरी पर जाते थे न,
मैं भी सुबह चार बजे उठकर सब काम निपटाती थी—
उनका नाश्ता, कपड़े, बच्चों का टिफ़िन, सास–ससुर की दवाइयाँ, दोपहर की सब्ज़ी तक बना देती थी।

उसके बाद घर के पीछे वाले कमरे में बैठकर सिलाई का काम करती… क्योंकि घर की जरूरतें सिर्फ़ एक तनख्वाह से पूरी नहीं होती थीं।

घर वालों के लिए मैं ‘आदर्श बहू’ थी, ‘आदर्श पत्नी’ थी, पर खुद के लिए क्या थी, ये कभी बैठकर सोचा ही नहीं।”

किरण चुपचाप सुनती रही।

“सालों गुजर गए, बच्चों की पढ़ाई, शादी–ब्याह, जिम्मेदारियाँ, और बीच में कहीं… मीना नाम की लड़की, जो ड्रेस डिज़ाइनर बनना चाहती थी, वो भीड़ में खो गई।

तुम्हारे पापा बुरे आदमी नहीं हैं, लेकिन उन्हें भी कभी सूझा ही नहीं पूछना—
‘रोज़ दूसरों के लिए काटती जिंदगी में, तुम्हारे लिए क्या रखा मैंने?’

और मैंने भी कभी पूछा नहीं।
सोचा—यही मेरा धर्म है, यही मेरा कर्तव्य है, बस यही मेरी पहचान है।

पता है, मेरे अंदर सबसे बड़ी भूल क्या थी?
मैंने भी हर बात पर खुद को ही दोषी माना—
‘मैंने कुछ माँगा नहीं, तो किसी ने दिया क्यों नहीं?’
क्योंकि मैं खुद ही अपनी खुशी को हक नहीं मानती थी।”

मीना की आँखें हल्की-सी नम हुईं, पर होठों पर मुस्कान थी।
“अब सोचती हूँ, जो गलती मैंने की, वही मेरी बहू करे, ये मुझे किसी हाल में मंज़ूर नहीं।

तुम भी अगर हर छोटी बात में खुद को कोसोगी, अपने होने को सिर्फ़ दूसरों की सुविधा से जोड़कर देखोगी… तो वही जिंदगी काटोगी, जो मैंने काटी है।
मैं नहीं चाहती ये।”

किरण ने अनायास उनका हाथ पकड़ लिया।
“मम्मी, आपने कभी ये सब बताया ही नहीं…”

“किससे कहती?” मीना ने हल्की हँसी के साथ कहा,
“तुम और आदित्य घर संभालने में लगे रहे, पापा रिटायरमेंट के सवालों में उलझे रहे,
और मैं… रसोई और पूजा के बीच खुद को ढूँढती रही।

पर अब सोच लिया है—
मेरी बहू को मैं बस ‘अच्छी बहू’ नहीं, ‘खुश औरत’ भी देखना चाहती हूँ।”

कुछ देर कमरे में सन्नाटा रहा।
फिर मीना ने माहौल हल्का करते हुए कहा,
“बस, अब ज्यादा फिलॉसफी हो गई।
आज का प्लान ये है—
शाम को जब आदित्य आएगा, तो तुम उसकी फेवरेट इलायची वाली चाय और समोसे बनाना,
और उसके बाद…”

उन्होंने आँख झपकाकर कहा,
“डिनर तुम नहीं बनाओगी।
या तो बाहर जाएंगे या घर पर कुछ ऑर्डर करेंगे।
एक दिन चूल्हा आराम करेगा, एक दिन बहू भी।”

किरण ने अनायास विरोध किया,
“पर मम्मी, आदित्य तो कहेगा—‘बाहर पैसे क्यों खर्च करने, घर का खाना ही अच्छा है!’”

मीना ने मुस्कुराकर कहा,
“उसके पिता भी यही कहते थे।
और मैंने भी बिना सवाल किए मान लिया था।
अब मैं ही कहूँगी—बहू भी थकती है, उसके लिए भी छुट्टी बनती है।
पति–पत्नी की जिंदगी सिर्फ़ बिल, टिफिन और इस्त्री की शर्टों में नहीं बीतनी चाहिए।”

किरण के चेहरे पर पहली बार उस दिन हल्की–सी चमक आई।

दोपहर आदित्य का मैसेज आया—
“माफ़ करना, सुबह गुस्सा कर लिया। मीटिंग चल रही है, बाद में बात करता हूँ।
टिफिन नहीं था, तो मैंने स्नैक्स खा लिए।

वैसे बैग से तुम्हारी मम्मी का रखा डिब्बा निकला, वही खत्म कर दिया।
मम्मी को Thank you बोल देना।
शाम को आते हैं, बात करेंगे। ♥”

किरण ने फोन मीना के सामने रख दिया।
“देखा मम्मी, आपको सीधे ही थैंक्यू बोला है। मुझे तो जैसे–तैसे ‘सॉरी’ लिखा है।”

मीना ने हँसकर कहा,
“कम से कम ‘सॉरी’ तो लिखा।
कई पति तो इतना भी नहीं लिखते।
चलो, यही से शुरुआत समझ लो।
शाम को खुलकर बात करने का मौका भी मिल जाएगा।”

दिन भर किरन ने ऑफिस के काम निपटाए, घर थोड़ा समेटा, और शाम के लिए आलू उबालकर रख दिए—आदित्य को घर का चटपटा समोसा बहुत पसंद था।

शाम सात बजे की घंटी बजी।
आदित्य थका-हारा, पर चेहरे पर ग्लानि लिए घर में दाखिल हुआ।

किरण ने दरवाज़ा खोला।
उसने एक पल को न तो मुस्कुराया, न मुँह फुलाया—बस सामान्य तौर पर कहा,
“आ गए? हाथ–मुँह धो लो, चाय बना रही हूँ।”

आदित्य को समझ नहीं आया कि इसे अच्छा माने या बुरा।
वो बाथरूम की तरफ बढ़ गया।

डाइनिंग टेबल पर बैठते ही मीना ने चाय सामने रखी,
“लो बेटा, तुम्हारी फेवरेट चाय और बहू के हाथ के गरम–गरम समोसे।
और हाँ, आज रात का खाना या तो तुम दोनों बाहर खाओगे, या फिर ऑनलाइन मँगाओगे। किचन मैं बंद कर रही हूँ।”

आदित्य चौंका,
“क्या मतलब? रात का खाना नहीं बनेगा? तबियत तो ठीक है न आपकी?”

“तबियत ठीक है, बेटा।” मीना ने बिलकुल शांत स्वर में कहा,
“बस ये चाहत है कि मेरी बहू की भी तबियत ठीक रहे—शरीर से भी, मन से भी।
एक दिन चूल्हा बंद रहेगा तो कोई भूखा नहीं रह जाएगा।
फ्रिज में दूध–ब्रेड है, बच्चों की तरह भूख लगी तो टोस्ट बना लेना।”

आदित्य ने हल्की मुस्कान दबाते हुए माँ की तरफ देखा,
“आप भी न मम्मी… पूरी तरह बहू की पार्टी हो गई है आपकी।”

मीना जी ने गंभीर होकर कहा,
“नहीं बेटा, बहू की पार्टी नहीं, मेरी समझदारी है ये।
ये वो बातें हैं, जो मुझे तब समझ आनी चाहिए थीं, जब मैं तुम्हारी उम्र की थी।
लेकिन तब न तो किसी ने बोला, न मैंने सोचा।
अब सोच लिया है, कम से कम तुम्हारे घर में वही गलती दुहराई नहीं जाएगी।”

राजेश जी भी अखबार मोड़कर कुर्सी खिसकाते हुए टेबल पर आ गए।
“क्या चल रहा है, सुनाओ।”

मीना ने गला खँखार कर कहा,
“सुनिए, आज मैं कुछ खुलकर कहने वाली हूँ, और बीच में टोका तो नहीं जाएगी।”

राजेश हँस दिए,
“अरे भई, जब घर की गृह मंत्री कुछ कह रही हों, तो भला कौन बीच में बोलेगा। बोलो, सुन रहे हैं।”

मीना जी ने धीरे–धीरे बात शुरू की,
“आज सुबह आदित्य की और किरन की छोटी–सी बहस हुई।
कारण—समय पर शर्ट इस्त्री न होना, नाश्ता न हो पाना, आदित्य का गुस्सा, और बहू का दिन भर खुद को दोषी मानकर रोते रहना।

ये कोई बहुत बड़ी घटना नहीं, हर घर में रोज़ होती होगी ऐसी बातें।
पर मैंने जो सालों देखा है, वह ये—
इन छोटी–छोटी बातों का बोझ सिर्फ़ औरत के सिर पर डाल देना,
और फिर उम्मीद करना कि वो बिना थके, बिना टूटे मुस्कुराती रहे, यही सबसे बड़ी नाइंसाफी है।”

आदित्य ने चाय का कप धीरे से नीचे रखा।
बातें उसकी तरफ़ झुकी हुई थी।

मीना आगे बोलीं,
“मैंने ज़िंदगी भर घर–परिवार, रिश्तेदारों, रिश्तों के लिए जीया।
शायद इसी में मेरी खुशी भी थी, इसमें मुझे कोई शिकायत नहीं।
लेकिन अगर कोई मुझे उस समय ये कह देता कि—
‘मीना, तुम सिर्फ़ बहू या पत्नी नहीं हो, तुम अपने लिए भी हो,’
तो शायद आज मेरी डायरी में कुछ अपने सपने भी लिखे होते, सिर्फ़ किराने की लिस्ट नहीं।”

किरन ने मेज के नीचे से धीरे से मीना की हथेली दबाई।

राजेश धीरे से बोले,
“रूपाली… मेरा मतलब, मीना… अब याद आ रहा है, मैंने सच में कभी तुमसे सीधा ये नहीं पूछा कि तुम क्या चाहती हो।
बस समझ लिया कि जो तुम कर रही हो, वही तुम्हारी मर्ज़ी है।”

मीना ने हल्के कटाक्ष के साथ मुस्कुराकर कहा,
“ठीक कहा आपने।
और मैं भी यही मानकर चलती रही कि यही मेरी तकदीर है।

पर अब मैं चाहती हूँ कि आदित्य और किरन ज़िम्मेदारी बाँट कर लें—
गलती हो तो दोनों की, सुधार हो तो दोनों का, और हर खुशी भी दोनों की हो।

आदित्य, सुबह जो हुआ, उसमें अगर किरन सौ फीसदी गलत है, तो तुम भी सौ फीसदी गलत हो।
तुमने उसे ये एहसास तक नहीं होने दिया कि कभी–कभी वो देर से भी उठ सकती है,
कभी उसकी थकान भी वैध हो सकती है।”

आदित्य ने शर्मिंदा होकर सिर झुका लिया।
“मम्मी, मैं… सुबह गुस्से में था। मीटिंग का प्रेशर था, इसलिए…”

“मीटिंग तुम्हारी थी, प्रेशर उसका भी था।”
मीना ने बात काटते हुए कहा,
“क्योंकि वो भी तो ऑफिस जाती है, उसका दिन भी नौ से नौ तक ही चलता है।
उसके लिए कोई अलग कैलेंडर नहीं बना है, जहाँ घर के काम में लगने वाला समय ‘फ्री’ लिखा हो।”

कुछ पल के लिए सब चुप रहे।

फिर मीना ने हल्के स्वर में कहा,
“देखो, मैं बस इतना चाहती हूँ—
किरन को यह महसूस न हो कि वो सिर्फ़ टिफिन, इस्त्री की शर्ट और समय से नाश्ता देने के लिए ही बनी है।
वो हँसना चाहती है, साँस लेना चाहती है, अपने लिए भी कुछ करना चाहती है।
अगर हमारी पीढ़ी ये नहीं कर पाई, तो क्या हर पीढ़ी वही गलती दोहराती रहेगी?”

राजेश ने सिर हिलाकर कहा,
“मेरी तरफ़ से तो साफ है—
किरन, तुम अगर कभी भी एक दिन की छुट्टी लेना चाहो—किचन से, घर से, सब से—तो ले सकती हो।
अब तुम दोनों की मर्ज़ी है, ये घर कैसे चलाना है।”

आदित्य ने कुर्सी पीछे खिसकाई, किरन की तरफ़ मुड़कर बोला,
“किरन, आज पहली बार लग रहा है कि जितना मैंने खुद को अकेले कमाने वाला समझा,
तुमसे आधा–अधूरा ही न्याय किया।
मुझसे भी गलती होती है, तुमसे भी हो सकती है…
पर हर गलती में सिर्फ़ तुम्हें ही कटघरे में खड़ा कर देना, गलत है।”

किरन की आँखें फिर भर आईं,
“आदि, मैं तुम्हें बुरा नहीं मानती।
बस… मुझे भी कुछ दिन मन से चैन चाहिए।
ये नहीं कि तमाम दिन आप सबके लिए भागती रहूँ, और रात को सिरहाने लेटते हुए सोचूँ,
‘आज मैंने अपने लिए क्या किया?’
और जवाब हर बार ‘कुछ नहीं’ आए।”

आदित्य ने उसका हाथ पकड़ लिया।
“तो तय हुआ—
आज से हम दोनों की ज़िंदगी में ‘हम’ की जगह सच वाला ‘हम’ आएगा,
जो काम बाँटेगा, बात बाँटेगा, गलती भी बाँटेगा, और हँसी भी।”

उसने हँसते हुए जोड़ दिया,
“और हाँ, मम्मी—आज रात का खाना ऑनलाइन ऑर्डर करेंगे।
बहू के साथ–साथ आज आपकी भी छुट्टी।
कल आप बताएँगी कि आपको क्या पसंद है, वो हम बना देंगे। घर पर भी तो रिवर्स ट्रेनिंग हो सकती है।”

मीना हँस पड़ीं,
“बस, अब ज्यादा बड़ा–बड़ा भाषण मत देना।
मैंने जो कहना था, कह दिया।
अब तुम दोनों अगर सच में हमारे अनुभव से सीख ले तो हमारी भी जिंदगी सफल हो जाएगी।”

किरन ने मीना के कंधे पर सिर रख दिया,
“मम्मी… आप सच में सास कम, माँ ज़्यादा लगती हैं।
शायद… मेरी मम्मी ने जिस ‘सास’ की तस्वीर मेरे मन में बनाई थी,
आपने आज उस तस्वीर पर अपने हाथ से नए रंग भर दिए हैं।
सास अगर सास होते हुए भी माँ का दिल रखे,
तो ससुराल कभी पराया घर लग ही नहीं सकता।”

आदित्य ने मोबाइल उठाते हुए कहा,
“चलो, सबसे पहले ये तय करें—आज पिज़्ज़ा खाएँ या साउथ इंडियन?”

राजेश ने तुरंत कहा,
“आज तो पिज़्ज़ा ही मँगाओ, उम्र भर पराठे और सब्ज़ी खा ली।
और हाँ, बिल मैं भरूँगा—ये मेरा contribution है ‘नई सोच वाले’ परिवार के नाम।”

सबके चेहरे पर हँसी की चमक थी।
किचन में आज गैस नहीं जली, पर घर में एक नई समझ की रोशनी जरूर जल उठी थी—
जहाँ बहू खुद को सिर्फ़ गलती की जिम्मेदार नहीं,
अपने जीवन की खुशियों की भी जिम्मेदार मानने लगी थी…
और सास ने सच में सास की परिभाषा बदल दी थी।

मूल लेखिका : संध्या त्रिपाठी 

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