पूर्णिमा..!! इस गुलदस्ते पर धूल क्यों जमी हुई है? तुम आजकल कामकाज करना ही नहीं चाहती, सारा दिन क्या करती हो..? बस खाना बना दिया और खिला दिया इसके अलावा बताओ मुझे..? कुंतल पूर्णिमा पर बरस पड़ा।
कुंतल ऑफिस से आने के बाद घर में घूम-घूम कर सब कुछ व्यवस्थित देखना चाहता और यदि थोड़ा भी कुछ अव्यवस्थित लगा, बस पूर्णिमा को खूब खरी-खोटी सुनाता। पूर्णिमा बहुत शांत स्वभाव की थी।
वह हमेशा कोशिश करती कि कुंतल को शिकायत का मौका न मिले, लेकिन घर में कभी कभार ऐसा कुछ हो जाता कि कुंतल को सुनाने का मौका मिल जाता।
वह कुंतल के कटु वचनों को दरकिनार कर अपने घर के कामों में व्यस्त हो जाती। वह अपने दोनों बच्चों की अच्छे से परवरिश कर रही थी। समय से उन्हें उठाना, स्कूल भेजना, उनके गृह कार्य करवाना यह सब पूर्णिमा की जिम्मेदारी थी। घर के समस्त काम-काज करने के बावजूद भी कुंतल अक्सर बेवजह पूर्णिमा पर बरस पड़ता।
पूर्णिमा यह अच्छी तरह से जानती थी, कि अगर घर का माहौल लड़ाई – झगड़ा वाला रहा तो उसके बच्चे कभी भी उच्च मुकाम तक नहीं पहुंच पाएंगे। वह भी चिड़चिड़े बनकर जीवन में असफल रहेंगे। इस कारण पूर्णिमा कुंतल के व्यंग्य बाणों को सह जाती। उनका कोई प्रतिउत्तर न देकर घर का माहौल शांत बनाए रखने की कोशिश करती।
जब बच्चे घर में नहीं होते तब अक्सर ही वह कुंतल को समझाने का प्रयास करती, लेकिन कुंतल के अंदर इतना अहम भाव था कि वह अपने आप को ही सर्वोपरि समझता था।
पूर्णिमा बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती थी, लेकिन कुंतल की एक शर्त थी जब तक वह ऑफिस में रहे, तब तक वह ट्यूशन पढ़ा सकती है। उसके आने के बाद उसको घर में यह सब कुछ नहीं चाहिए।
पूर्णिमा भी कुंतल की अनुपस्थिति में ट्यूशन पढ़ाकर अच्छी खासी आमदनी कर रही थी। लेकिन उसकी आमदनी पर भी कुंतल का ही अधिकार रहता। क्या मजाल..! कि पूर्णिमा एक रुपए भी अपनी पसंद से खर्च कर सके। खर्च करने के लिए उसे कुंतल पर निर्भर रहना पड़ता था। कुंतल भी पैसे देने से पहले दस बात सुनाता इसके बाद पैसे देता।
पूर्णिमा के घर वाले एवं सगे सम्बन्धी सब समझाते, कि वह अपना पैसा कुंतल को न दिया करें, लेकिन पूर्णिमा सब कुछ जानबूझकर कुंतल को दे देती। जिससे वह खुश रहे और घर में सुख शांति बनी रहे। गजब का धैर्य था पूर्णिमा के अंदर।
पूर्णिमा अपने पारिवारिक दायित्व निभाने में कभी भी पीछे नहीं रही, इसके बावजूद भी कुंतल छोटी-छोटी बातों पर उसे झिड़कता रहता।
यदि घर का कुछ सामान खराब हो जाए तो पूर्णिमा की आफत आ जाती। अमुक सामान तुमने जानबूझकर खराब कर दिया..! बाप के घर में तो कभी देखा नहीं… इसलिए तुम चलाना क्या जानों..??
बच्चे कभी बीमार पड़ जाए तब भी कुंतल,पूर्णिमा को हजार बातें सुनाता। पूर्णिमा ने अपनी बीमारी की बात कुंतल को कभी नहीं बताई। वह बीमार भी रही होगी तब भी घर के समस्त कार्य निरंतर करती रही। पूर्णिमा सब बातें चुपचाप सुन लेती। कुंतल उसकी भावनाओं को कभी नहीं समझ पाएगा। पूर्णिमा को मन ही मन बहुत बुरा लगता।
मायके वाले कुंतल के स्वभाव को जानते थे। एक दो बार दबी आवाज में उन लोगों ने पूर्णिमा से कुंतल को छोड़ देने के लिए कहा। पूर्णिमा न जाने क्यों..? अपने दोनों बच्चों के भविष्य के बारे में सोच कर चुप हो जाती।
एक दिन कुंतल के साथ वह बाजार गई। कुंतल कुछ सामान खरीद रहा था, उसके बगल वाली दुकान में पुरानी वाशिंग मशीन की दुकान थी। वह उनसे पूछने लगी कि पुरानी वाशिंग मशीन कितने में मिल जाएगी। दुकानदार बोला- बहन जी आप नई ही खरीदिए, पुरानी वाशिंग मशीन लेने से कोई फायदा नहीं।
तब तक कुंतल वहां आ गया। उसने आव देखा न ताव, पूर्णिमा को बहुत ही अपशब्दों का इस्तेमाल करते हुए बोला- तुम मेरी बिना इजाजत के इस दुकान में क्यों आई..?
पूर्णिमा बोली आप खरीदारी कर रहे थे, तब तक मैंने सोचा… कि इस दुकान में पुरानी वाशिंग मशीन के लिए बात कर लूँ..! लेकिन वाशिंग मशीन की तुम्हें जरूरत क्यों है..? यह हाथी जैसा शरीर सिर्फ खाने के लिए है क्या। हाथ से कपड़े धोने में तुम्हें दिक्कत हो रही है..?
पूर्णिमा चुपचाप सुनती रही। दुकानदार के सामने खुद की बेइज्जती होते देखकर पूर्णिमा कुछ बोलना चाही। तब तक कुंतल ने हाथ उठाते हुए कहा खबरदार..! एक बात भी बोली, जोर का थप्पड़ लगायेगे..! पूर्णिमा अपमान का घूंट पीकर चुप हो गई, उसकी आंखों में आंसू आ गए।
घर आई तो ट्यूशन वाले बच्चे आ चुके थे। उसने फटाफट कुंतल को एक कप चाय बना कर दी और बच्चों को पढ़ाने लगी। बच्चों को पढ़ाने के बाद जब उठी, तो कुंतल से रहा नहीं गया, उसने पुन: कहा पूर्णिमा..! तुम अपनी औकात में रहना सीखो..! बाहर में कभी कोई हरकत की तो ठीक नहीं होगा..!
पूर्णिमा बोली आप अपने व्यवहार मे सुधार लाये। आज आपने दुकानदार के सामने मुझे डांटा वह ठीक नहीं था। कुंतल बोला यह तो कम था, अगर वहां तुम कुछ बोल देती ना…! तो जानती हो जोर का तमाचा पड़ता तुम्हारे गाल पर। पूर्णिमा शांत हो गई, क्योंकि बच्चे बाहर से खेल कर आ गए थे। उन्हें दूध दिया और पढ़ने बैठा दिया।
कुंतल को नहीं पता था, कि दिन पर दिन पूर्णिमा उससे दूर होते जा रही थी। पूर्णिमा अगर उस घर में रह रही है तो सिर्फ और सिर्फ अपने बच्चों के कारण। वह चाहती थी कि उसके बच्चे योग्य बनकर इस घर से बाहर निकल जाए। क्योंकि कुंतल ने घर का माहौल बहुत खराब कर रखा था।
सुनिए जी..! आज बच्चों के स्कूल चलना है। बच्चों के स्कूल में सालाना समारोह है उसमें माता-पिता दोनों को इनवाइट किया गया है। कुंतल झल्लाते हुए बोला तुम अच्छे से जानती हो मुझे स्कूल, बिस्कुल कहीं नहीं जाना…! तुम अपने दोनों बच्चों को लेकर स्कूल जाओ।
पूर्णिमा दोनों बच्चों को साथ लेकर स्कूल चली गई। बड़े बेटे ने सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लिया था। बच्चों की परफॉर्मेंस देखकर पूर्णिमा बहुत खुश थी। वापिस जब घर आई, तो कुंतल ने आसमान सिर पर उठा लिया।
रात के दस बजने जा रहे हैं अब आ रही हो…?
मुझे दस बजे खाना खाने की आदत है…! खाना बना कर क्यों गई..?
इतनी देर होने का अंदेशा नहीं था, समय से गाड़ी नहीं मिल पायी जिस कारण थोड़ा देर हो गई। पूर्णिमा धीमे स्वर में बोली।
पूर्णिमा ने दोनों बच्चों को अपने कमरे में भेज दिया वह बोली आप मुझे दस मिनट दीजिए मैं आपको खाना बनाकर देती हूंँ। कुंतल लगातार बड़बड़-बड़बड़ करते रहा।
पूर्णिमा ने हाथ मुंह धो कर तुरंत पराठे बना दिए और दोपहर की जो सब्जी थी वह गर्म करके सलाद काटकर कुंतल को दे दिया। कुंतल खाना खाने के बाद फिर बोला तुम्हें अच्छे से पता है, मेरा खाना खाने का समय दस बजे है। तुमको खाना बना कर जाना चाहिए था। आइंदा से ऐसा मत करना।
पूर्णिमा चुप थी, इसके बाद उसने दोनों बच्चों को खाना देकर खुद खाकर सो गई।
आज बड़े बेटे सोनम का 10th का रिजल्ट निकलने वाला था पूर्णिमा बेटे से भी ज्यादा उत्साहित एवं चिंतित थी। शाम को बेटे का रिजल्ट आया सोनल में अपने जिले में पहला स्थान प्राप्त किया था। इसलिए सोनल के प्रिंसिपल एवं रिश्तेदारों का शुभकामनाओं का तांता लगा हुआ था।
शाम को जब कुंतल ऑफिस से आया तो पूर्णिमा ने कहा आज हमारा बेटा सोनल जिला में पहला स्थान प्राप्त किया है।
हम लोगों के लिए कितनी गर्व की बात है..क्यों है न..?? कुंतल ने पूरी बात सुनी और उसका कुछ जवाब न देकर बोला तो क्या आज चाय नहीं मिलेगी..? पूर्णिमा बोली नहीं मैं चाय बनाती हूंँ। कुंतल बोला हमारे खानदान में लड़के पढ़ाई लिखाई में बहुत अच्छे निकलते हैं। यह कोई नई बात नहीं है। पूर्णिमा चुप होकर चाय बनाने चली गई।
कुछ वर्षों के बाद दोनों बच्चे पढ़ाई करने के लिए बाहर चले गए। पूर्णिमा दूर रहकर भी अपने बच्चों का पल-पल का हाल-चाल जानती थी। बच्चे भी अपनी मांँ से सब बातें साझा करते। एक दिन सोनल ने कहा मांँ मुझे बहुत बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी हैदराबाद में नौकरी मिल गई है। कुछ दिन के बाद छोटे बेटे रोहन का भी सरकारी जॉब हो गया।
पूर्णिमा की खुशी का ठिकाना न रहा। कुंतल को ज्यादा मतलब किसी से नहीं था। बस पैसे देकर बच्चों को पढ़ने के लिए बाहर भेज दिया था… जिसके लिए हमेशा पूर्णिमा पर एहसान जताता रहता था पर.. पूर्णिमा चुप रहती।
एक दिन कुंतल ऑफिस से आया तो घर में ताला बंद था नीचे चौकीदार ने उसे चाबी दी और कहा मेंम साहब सामान लेकर कहीं गई हुई है। कुंतल का माथा ठनका… बिना बताए कहांँ गई??
दरवाजा खोलकर अंदर गया तो सामने ही डाइनिंग टेबल पर कुछ लिखा हुआ रखा था। वह तुरंत उठाकर पढ़ने लगा।
प्रिय कुंतल
हमारे बच्चे अपने पैर खड़े हो गए हैं, अब मुझे दुनिया में किसी की कोई बात सुनने की जरूरत नहीं है। तुम सोचते होंगे तुम्हारी इतनी बेइज्जती मैं क्यों सहन करती रही..?
बस… आज के दिन के लिए। मुझे हमेशा से यह इंतजार था कि एक दिन मेरे बच्चे अपने पैर पर खड़े हो जाएं बस।
दूसरा- तुम सोचते होंगे कि मैं तुम्हारे साथ झगड़ा क्यों नहीं करती थी..?
उसके लिए मैं कहना चाहती हूंँ कि मैं घर के माहौल को खराब करके अपने बच्चों के भविष्य को खराब नहीं कर सकती थी। बस इसलिए सब कुछ सहन करती गई।
हर लड़की पति के रूप में एक अच्छा दोस्त, जीवनसाथी चाहती है जिससे वह अपने सुख-दुख की बातें साझा कर सके। लेकिन तुम्हें याद है कि मैं कभी भी तुमसे कोई बात साझा नहीं कर पाई। क्योंकि.. मुझे डर था कहीं तुम बात का बतंगड़ बनाकर घर में झगड़ा न करो। मैं हमेशा झगड़ा रोकने की कोशिश करती रही।
ऐसा नहीं कुंतल.. कि मुझे बोलना नहीं आता।
“आज हमारे धैर्य की परीक्षा में मैं अब्बल दर्जे से पास हो गई हूंँ।” मेरे बच्चों ने मनपसंद मुकाम हासिल कर लिया है। अपने बच्चों की खातिर मैं तुम्हारी पत्नी होते हुए भी तुम्हारे रहमों करम पर जीती रही।
कुंतल..! अब मैं तुम्हारा घर हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ रही हूंँ। क्योंकि तुम्हारी बेज्जती बहुत सहन कर ली है, सहन करने के लिए एक वजह थी अब सहन करने की कोई वजह नहीं है।
“मैं अच्छे से जानती हूंँ कि तुममें कभी भी सुधार नहीं हो सकता है। इसलिए अब तुम्हारे साथ रहना नामुमकिन है, मैं यह घर छोड़ कर जा रही हूंँ।”
मैं चाहती तो तुम्हें तलाक देकर अलग-अलग रह सकते थे तुमसे अच्छा खासा मुआवजा लेकर दोनों बच्चों को पाल पोस सकते थे।
“मेरा मानना है कि, बच्चों के विकास के लिए माता और पिता दोनों चाहिए। माता और पिता न हो वह अलग बात है लेकिन माता-पिता रहते हुए जब बच्चे उन्हें अलग-
अलग देखते हैं तब उन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
यही वजह है कि मैं तुमसे दूर नहीं हुई। अब बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो गए हैं अब वह वजह भी खत्म हो गई।
मैंने बच्चों को तुम्हारे खिलाफ कभी भी नहीं भड़काया है इसलिए बच्चे तुम्हें पहले जैसे ही प्यार करते रहेंगे। लेकिन मैं बेज्जती का बोझ ढ़ोते-ढ़ोते बहुत थक चुकी हूंँ, अब और सामर्थ्य नहीं है मुझमें। मैं सिर्फ अपने बच्चों की मांँ के सिवाय और कुछ नहीं बनना चाहती।
कुंतल खत पढ़ते-पढ़ते उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। खत पकड़े हुए जमीन पर बैठ गया। उसे अपने सामने दुनिया घूमती हुई नजर आई। पूर्णिमा के बिना वह एक कदम भी नहीं चल सकता था।
आज कुंतल का अहम टूटकर बिखर गया। उसे अपनी गलती का एहसास हो रहा था। मन ही मन उसने यह फैसला लिया- कि मैं पूर्णिमा को खोज कर लाऊंँगा और उससे अपनी सभी गलतियां के लिए माफी मांँग लूंँगा।
कुछ गलतियां ऐसी होती हैं जिनका समय पर ही समाधान न किया गया तो, उसका अंत बहुत भयावह होता है।
कुंतल निकल पड़ा पूर्णिमा को खोजने के लिए लेकिन पूर्णिमा उसकी पहुंच से बहुत दूर चली गई।
– सुनीता मुखर्जी “श्रुति”
लेखिका
स्वरचित, मौलिक, प्रकाशित
हल्दिया, पश्चिम बंगाल
#तिरस्कार कब तक