कमला जी हमेशा से अपने परिवार की धुरी थीं—तीन बेटों की माँ, घर-आँगन की मालकिन, और मोहल्ले में सभी के सुख-दुख की साझेदार। घर में उनकी बात पत्थर की लकीर मानी जाती थी। लेकिन बीते दो सालों से उनके चेहरे की कोमलता में एक खिंचाव आ गया था। कारण सिर्फ एक—बहू मालिनी को संतान का सुख प्राप्त न होना है ।
उनकी नज़रें जब भी आँगन में खेलने वाले पड़ोस के बच्चों पर पड़तीं, दिल में हूक उठती। एक-एक कर उनकी सहेलियों की गोद भरी, नानी-दादी बनने का सुख उन्होंने देखा, सुना, सहा… लेकिन खुद को उस दायरे से बाहर पातीं।
“मेरी किस्मत में क्या लिखा है भगवान?”—वह घुटकर रह जातीं।
पूरी दुनिया को कोसने का साहस न था, बस कमज़ोर इन्सान की तरह वही एक दिशा मिली—मालिनी पर चिड़चिड़ापन, तानों की बौछार, कटु शब्दों का प्रहार।
पहले जो बहू उनके आगे पूरा झुककर बैठती थी, उनके हल्के से इशारे पर चाय, पानी, दवा सब ला देती थी… वही बहू अब उनके शब्दों की तल्ख़ी में रोज़-रोज़ जलती थी। लेकिन सहन करती थी—क्योंकि वह जानती थी कि सास का दर्द असल में उसके लिए नहीं, बल्कि परिस्थिति के लिए था।
लेकिन एक दिन मालिनी का धैर्य भी टूट गया।
उस शाम को हर रोज़ की तरह मालिनी ने चाय बनाई।
“कितनी बार कहा है, चीनी ठीक से डाल नहीं सकती?”—कमला जी गुर्राईं।
मालिनी ने शांत स्वर में कहा, “माँ जी, कल आपने कहा था मीठा कम रखना।”
“तो आज बढ़ा दो ना थोड़ा! क्या हर बात समझानी पड़ेगी?”
मालिनी चुप रह गई।
उस रात वह चुपचाप रसोई में आ बैठी थी। हाथ बर्तनों पर चल रहे थे पर दिमाग कहीं और अटका था। आँखें आंसुओं से भरी थीं, लेकिन वह रोना नहीं चाहती थी। तभी प्रकाश ने पीछे से कंधे पर हाथ रखा।
“चलो बाहर आओ, थोड़ी हवा खाओ,” उसने धीमे स्वर में कहा।
“नहीं, ठीक हूँ,”
प्रकाश उसे जानता था। जितनी सहेज कर वह घर को संभालती थी, उतनी ही चुपचाप टूट भी जाती थी। उसने पास खड़े होकर कहा—
“मालिनी, माँ की आदतें हाल में बदली हैं। वो भी परेशान रहती हैं। तुम दिल पर मत लो।”
“मैं समझती हूँ, प्रकाश… लेकिन दर्द तो होता है न,” मालिनी की आवाज़ भर्रा गई।
प्रकाश ने बिना कुछ कहे उसका हाथ थाम लिया। वह जानता था—कई बातें शब्द नहीं, अपनों का साथ माँगती हैं।
अगले दिन मालिनी चने की दाल चढ़ाकर उसमें घी का छौंक लगा रही थी, कि अचानक तेज़ उबकाई उठी। वह छौंक का बर्तन छोड़कर बाथरूम की ओर भागी।
नौकरानी चंदा, जो बरसों से घर में काम कर रही थी, सब देख रही थी। उसकी उम्र, उसके अनुभव और उसकी कई बार की देखी हुई खुशखबरियों ने साफ़ शब्दों में कहा—
“बहू जी के पैर भारी हैं।”
वह सीधे कमला जी के कमरे की ओर भागी।
“मालकिन! बहू जी के पैर भारी लग रहे—उन्हें उबकाई आई है!”
सुनते ही कमला जी खुशी से झूम गईं ।
“क्या… सच में?”
“हाँ, मालकिन। मैं अपने अनुभव से कह सकती हूँ । यही लक्षण होते हैं।”
कमला जी का दिल धड़क उठा। वर्षों की कसक, ईर्ष्या, शिकायतें सब एक पल में पिघलकर पानी हो गईं। वह कमरे से निकलकर तुरंत रसोई पहुँचीं। मालिनी मुँह धोकर बाहर आई तो वह उसे ऐसी नज़रों से देख रही थीं जिसमें पहली बार दुलार था।
उन्होंने मालिनी को गले लगा लिया।
“सच्ची बताओ बहू, कुछ अलग महसूस हो रहा है?”
मालिनी हैरान रह गई। इतने दिनों बाद सास की बाँहों का ये स्पर्श उसे भीतर तक हिला गया।
“हाँ… शायद… पर निश्चित नहीं,” उसने धीमे से कहा।
“मैं अभी प्रकाश को बुलाती हूँ!”—कमला जी की आँखें चमक उठीं।
उनकी थरथराती उँगलियों से फोन गिरते-गिरते बचा। वर्षों बाद वे ऐसे उत्साहित हुई थीं।
प्रकाश भागते हुए आया और सीधा डॉक्टर नेहा के क्लिनिक ले गया। चेकअप के बाद डॉक्टर ने मुस्कुराकर कहा—
“कांग्रेसुलेशन्स, मालिनी ,”
और फिर प्रकाश का चेहरा खिल उठा। जैसे अंधेरे में कोई दरार से रौशनी चली आई हो।
घर लौटा तो कमला जी ने उसके सिर पर हाथ फेरा, आँखें भीगी थीं।
“मेरा वंश… मेरी गोद भर जाएगी…”
और इसी क्षण उन्हें अपने पिछले दो साल की हर कठोर बात याद आ गई। उनका दिल कसक उठा—क्या वो सचमुच इतनी कटु हो गई थीं?
उसी दिन से घर में सब बदल गया। कमला जी की आवाज़ की सख़्ती गायब थी।
अब वह कहतीं—
“बहू, गरम मत खाना।”
“बहू, थकना मत।”
“बहू, ये फल खा लो।”
“ये चाय मैं बना लाऊँ क्या?”
मालिनी मुस्कुराती। लेकिन उसके भीतर एक बहुत गहरी चोट भी थी जिसे वह किसी को नहीं बताती थी।
प्रकाश एक शाम उसके पास आकर बोला—
“मालिनी, आज माँ पूरे दिन तुम्हारी बातें कर रही थीं। कितना खुश हैं वो।”
मालिनी ने हल्की मुस्कान के साथ कहा —”हाँ… मैंने सुना।”
“तुम खुश नहीं हो?”
“मैं खुश हूँ… लेकिन…”
वह चुप हो गई।
“लेकिन?”
मालिनी धीमी आवाज़ में बोली—
“प्रकाश, मुझे खुशी है कि माँ जी बदल गई हैं। पर इतना सब करने के लिए क्या बस मातृत्व ही चाहिए था? क्या मेरी अपनी कोई पहचान नहीं थी? क्या एक स्त्री की कीमत उसकी कोख से मापी जाती है?”
प्रकाश चुप रह गया। वह जानता था कि ये सवाल समाज के थे, कोई एक व्यक्ति के नहीं।
एक दिन चंदा ने कहना शुरू किया—
“मालकिन, बहू जी आजकल बहुत चुप रहने लगी हैं। हँसती कम हैं।”
कमला जी को ये बात चुभ गई।
एक रात वे मालिनी के कमरे के बाहर से गुज़रीं। अंदर प्रकाश उससे कह रहा था—
“माँ अब बहुत बदल गई हैं।”
मालिनी ने कहा—
“हाँ… लेकिन कई घाव ऐसे होते हैं जो जल्दी नहीं भरते।”
कमला जी के कदम यहीं ठहर गए।
उन्होंने पहली बार महसूस किया कि उनकी शिकायतें सिर्फ शब्द नहीं, हथियार बन गई थीं, जिन्होंने बहू के दिल को छील दिया था।
रातभर उन्हें नींद नहीं आई।
अगली सुबह वे रसोई में गईं। मालिनी उन्हें देखकर चौंक गई।
“बहू, थोड़ी देर बैठोगी? मुझे तुमसे कुछ कहना है,” कमला जी ने कुर्सी की तरफ इशारा किया।
मालिनी बैठ गई।
कमला जी बोलीं—
“बहू… मैं बहुत गलत थी। बहुत।
मैंने अपने भीतर की खालीपन का ग़ुस्सा तुम पर निकाला।
तुम्हें ताने दिए, तुम्हें रुलाया… जबकि तुमने कभी मुझे दुख नहीं दिया।
मैंने तुम्हें सताया और तुम रोज़ मुस्कुराती रहीं।
आज जब मैं दादी बनने वाली हूँ… तो एक डर है कि कहीं मैं उस स्त्री का दर्द भूल न जाऊँ जिसने बिना गलती के इतनी सज़ा झेली।”
मालिनी की आँखें भर आईं।
कमला जी ने आगे कहा—
“बहू, अगर हो सके तो मुझे माफ़ कर देना। मैं तुम्हें फिर कभी दुख नहीं दूँगी।”
मालिनी ने सास के हाथ थाम लिए।
“माँ जी… आपने दर्द में ताने दिए, मैंने ताने में भी माँ का प्यार तलाशा। जीवन में कुछ रिश्ते हम चुनते हैं… कुछ रिश्ते हमें चुनते हैं। आप मेरी माँ हैं, और माँ को माफ़ किया नहीं जाता—बस गले लगाया जाता है।”
कमला जी रो पड़ीं। वर्षों बाद उनका हृदय सचमुच हल्का हुआ।
नौ महीने पलक झपकते बीत गए। घर में खुशियाँ थीं, तीज-त्योहार, पूजा, सौभाग्य की थाली, मालिनी की देखभाल… और एक अनकहा वादा—अब कोई ताना नहीं।
जब मालिनी ने एक बेटा जन्म दिया, कमला जी ने उसे पहली बार गोद में उठाया तो उनकी आवाज़ काँप रही थी—
“धन्यवाद भगवान… मेरे घर की रौनक लौटा दी आपने।”
लेकिन इससे ज्यादा भावुक क्षण तब आया जब उन्होंने नवजात को मालिनी की बाहों में वापस रखा और बोलीं—
“वचन देती हूँ बहू, अब कभी तुम्हारे चेहरे का आँसू नहीं देखूँगी। तुमने मुझे दादी ही नहीं बनाया… इंसान भी बनाया।”
मालिनी मुस्कुरा उठी।
उसकी मुस्कान अब पुरानी गम से भरी मुस्कान नहीं रही थी—
अब वह स्वीकृति, सम्मान और नए रिश्तों के पुनर्जन्म की मुस्कान थी।
घर फिर से पहले जैसा हो गया—नहीं, उससे भी बेहतर।
अब हर त्योहार में, हर हँसी में मालिनी की जगह थी, और हर निर्णय में उसके मान का सम्मान।
कमला जी अक्सर पड़ोस की सहेलियों से कहतीं—
“बच्चे होते या न होते… बहू की कीमत कोख से नहीं, उसके दिल से मापनी चाहिए। मैंने देर से समझा, पर समझ तो लिया।”
और मालिनी हर बार गर्व से मुस्कुराती।
क्योंकि वह जानती थी—
रिश्ता जब टूटने से बचाया जाए, वही सबसे सुंदर रिश्ता होता है।
लेखिका : गरिमा चौधरी