राम लाल बाबू सुबह की सैर से वापिस आए, तो जोरों की भूख लगी हुई थी। बहू नमिता, बेटा अश्वनी और दोनों बच्चे किर्ती और निशांत सब जा चुके थे। उन्होंने अपनी चाबी से ताला खोला और अंदर आ गए। हाथ पैर धोकर जब रसोई में नाश्ता लेने गए तो चार सूखी सी रोटियां और थोड़ी सी भिंडी की सब्जी पड़ी थी।
कितनी बार बहू से कहा है कि सूखी रोटियां उनसे चबाई नहीं जाती , थोड़ा घी लगाकर बना दिया करे। राम लाल जी परौंठे नहीं खाते थे, लेकिन बिना तले नमक, मिर्च, अजवायन और थोड़ा देसी घी लगा परौंठा कम फुल्का उन्हें पंसद था। पत्नी लक्ष्मी उनकी हर पंसद, नापंसद का कितना ध्यान रखती थी। लगभग दो साल हो गए उसे उपर गए। जब वो जिंदा थी तो बहू नमिता भी उसके जैसा ही खाना तैयार करती थी , लेकिन उसके जाते ही न जाने नमिता को क्या हो गया है।
रामलाल जी ने सोचा चलो दही में डुबो कर रोटी खाने का प्रयास करता हूं। फ्रिज खोलकर देखा तो थोड़ी सी दही पड़ी थी। वो तो बच्चों के लिए रखी रहती है। फिर कुछ सोचते हुए कटोरे में थोड़ा सा दूध डाला और एक रोटी के टुकड़े करके उसमें डाल दिए। दस मिंट के बाद जैसे तैसे सब निगला और जा कर अपने कमरे में लेट गए।
आज उन्हें फिर उनहें रह रह कर लक्ष्मी की याद आ रही थी। वैसे तो याद उसे किया जाता है, जो कभी भूला हो, लक्ष्मी तो उनकी हर सांस में बसी थी। कितने खुशहाली भरे दिन थे, जब लक्ष्मी उनके जीवन में सचमुच लक्ष्मी बन कर आई थी।
गांव में अपने पिताजी के साथ खेतों में जाया करता था रामलाल, लेकिन उसने पढ़ाई भी जारी रखी थी। नौकरी के लिए अप्लाई करता रहता, आखिर उसे शहर में वाटर वर्कस डिपार्टमैंट में सरकारी नौकरी मिली। क्लर्क से शुरू होकर सुपरडैंट तक पहुँचा। कुछ समय अकेला रहा, फिर लक्ष्मी को भी साथ ले गया। बेटी रावी का जन्म गांव में ही हो गया था, शहर में पहले अंजना और फिर अश्वनी का जन्म हुआ।
तीनों बच्चों ने शहर में अच्छी तालीम हासिल की। गांव भी आना जाना लगा रहता। उसके पिता और चाचा के घर साथ साथ ही थे। रामलाल के दादा के देहांत के बाद दोनों बेटों के नाम अच्छी जमीन हिस्से में आई थी। पिताजी तो खेती पर ही निर्भर रहे। तीन बेटियों की गांव के स्कूल तक पढ़ाई और रामलाल फिर रामलाल की पढ़ाई, सबकी शादियां बहुत अच्छे से हुई।राम लाल को सरकारी आवास मिला हुआ था। उसके मां , बाप और बहने आते जाते रहते थे। चाचा के परिवार से भी बहुत प्यार था। और भी रिशतेदारी में आना जाना लगा रहता।
ये वो जमाना था जब रिशतेदार तो क्या कई बार तो गांव से शहर किसी काम से आए लोग भी घर में रह जाते थे। राम लाल के बच्चे वही शहर में जवान हुए, बेटियां अपने घर गई , अश्वनी की शादी अभी नहीं हुई थी। रामलाल की रिटायरमैंट भी पास ही थी तो सोचा कि शहर में घर खरीद लिया जाए। गांव का घर भी बंद पड़ा था, मां बाप भी भगवान को प्यारे हो गए थे, लेकिन चाचा चाची बहुत स्नेह करते थे, उनका एक बेटा था हरिहर उसका वहीं पर अच्छा फलों सब्जियों का कारोबार था।
रामलाल की जमीन भी उसी के पास बंटाई पर दी हुई थी। शहर में जब मकान खरीदने की योजना बनी तो काफी पैसे चाहिए थे, अश्वनी भी अच्छी नौकरी पर लग गया था, लेकिन एकमुश्त देने के लिए पैसे काफी नहीं थे। अश्वनी का कहना था कि कम से कम चार बैडरूम का घर तो होना ही चाहिए ताकि पूरा परिवार आराम से रह सके, उसकी भी शादी होनी थी। तो रिटायरमैंट की लगभग सारी पूंजी, जमा पूंजी और गांव का घर बेचकर भी बैंक से अश्वनी के नाम कुछ लोन लिया तब जाकर अच्छी सोसायटी में घर मिला।
समय के साथ अश्वनी की शादी नमिता से हुई, दो बच्चे हुए, रामलाल और लक्ष्मी भी वहीं रहते। कभी कभी गांव जा आते। रामलाल की पेंशन भी थी और बंटाई के पैसे भी आते तो वो अश्वनी की भी काफी आर्थिक मदद कर देते। नमिता भी नौकरी करती थी, सब अच्छे से चल रहा था, लेकिन सास के देहांत के बाद नमिता ने ससुर की और ध्यान देना बंद कर दिया।
अश्वनी ने कभी इस और ध्यान नहीं दिया।पहले मेड भी बाबूजी का ध्यान रखती, उन्हें दूध , फल , दवाईयां सब समय पर देती। पर अब वो भी बहाने बनाती, नमिता ने ही मना किया होगा।आखिर कब तक वो सहते। बेटे को बता कर वो घर में क्लेश नहीं डालना चाहते थे। ध्यान रखने का फर्ज तो बेटे का भी बनता है, जब लक्ष्मी जिंदा थी तो कई बार सब इकट्ठे घूमने भी गए, लेकिन उसके बाद तो सारा माहौल ही बदल गया।
बच्चे कभी कभार दादाजी के पास बैठ जाते लेकिन शायद नमिता को ये भी न सुहाता, वो उनहें बुलाकर होम वर्क करने या फिर खेलने भेज देती। रामलाल को बीपी और शूगर की बीमारी हो गई थी, थी तो पहले पंरतु अब बढ़ गई थी। उनहोनें बेटे से कई बार बात करने की कोशिश की लेकिन कभी वो फोन पर तो कभी लेपटाप पर या फिर किसी और काम में व्यस्त ही रहता।
सारी उम्र इतनी मेहनत, इतनी अच्छी नौकरी करने वाले रामलाल अपने आप को एकदम असमर्थ पाते और जी में आता कि इस तरह जीने से तो अच्छा है, अपने आप को खत्म ही कर लें।दो दिन पहले उनका चचेरा भाई हरिहर गांव से आया था, शहर काम से और उनसे मिलने चला आया।वो रामलाल से उम्र में काफी छोटा था।
उसे अपना भाई बहुत कमजोर और निराश सा लगा, और उसे भी घर में कुछ ठीक नहीं लगा।उसने पूछा तो रामलाल ने कुछ नहीं कहा, लेकिन न चाहते हुए भी आंखे नम हो गई। हरिहर जिद करके उनहें अपने साथ गांव ले आया। गांव का माहौल तो अब भी खुशनुमा था। चाचा चाची भी भले ही बुजुर्ग हो गए थे, लेकिन ठीक थे। बहू मीनाक्षी भी बहुत अच्छे स्वभाव की थी।गांव में मिलने जुलने भी दूर पास के रिश्तेदार आते रहते।
हरिहर स्वंय अपने भाई को गांव की डिस्पैंसरी में ले गया। चैकअप वगैरह करवाया। दूध घी की तो घर में वैसे ही कमी नहीं थी। महीना भर होने को आया। रामलाल का मन तो नहीं था, लेकिन वापिस तो जाना ही था, अपना घर तो था नहीं, वो तो बिक चुका था।
घरवालों ने उनहें जाने नहीं दिया, कहा कि कुछ दिन अभी और रहो। इसी बीच अशवनी का एक बार फोन आया था वो भी पैसों के लिए, मकान की किशत जो भरनी थी। रामलाल ने भेज दिए पैसे। कुछ दिनों बाद जब हिसाब किया तो हरिहर ने रामलाल को बंटाई के पैसे दिए तो उनहोंने लेने से मना कर दिया और कहा कि अब वो गांव में ही रहेगें, उनका प्रबंध कहीं करवा दो।
भाई साहब, ये घर भी तो आपका ही है, आप यहीं रहो, हरिहर ने अपनत्व से कहा, मीनाक्षी ने भी हां में हां मिलाई और उसके दोनों बेटे भी रामलाल की बहुत इज्जत करते थे।चाचा, चाची ने भी यही कहा।
वो बिना जाने ही सब समझ गए थे। हरिहर ने शहर का हाल बताया था घर पर। रामलाल का भी मन नहीं था जाने को। अगले महीने जब अशवनी का फोन आया पैसों के लिए तो उसने मना कर दिया और पैसे देने में असमर्थता जताते हुए कहा कि जब औलाद अपना फर्ज भूल जाए तो बड़ो को भी कठोर कदम उठाना पड़ता है।उसके बाद अशवनी दो तीन बार गांव आया लोकिन अपना सा मुँह लेकर वापिस चला गया। रामलाल का मन पोते पोती के लिए तड़पता था, लेकिन बेटे बहू का व्यवहार याद आते ही भावनाओं पर काबू पा लेते।
हरिहर से उन्होनें बंटाई के पैसे कभी नहीं लिए, और अपनी पैंशन से वो अपना खर्च निकालते और घर पर भी बहाने से खर्च करते रहते।इसी बीच चाचा चाची भी चल बसे। चार पांच साल बाद दो दिन की बीमारी के बाद ही रामलाल ने भी दुनिया को अलविदा कह दिया।दिखावे के लिए बेटा बहू सपरिवार आए, और मन में जमीन की लालसा भी तो थी।
रामलाल ने वसीयत कर रखी थी जिसके बारे में किसी को पता नहीं था। जब उनकी अल्मारी खोली तो वसीयत मिली। वसीयत पढ़ते ही अशवनी के होश उड़ गए। आधी जमीन हरिहर और आधी पोते निशांत के नाम थी। बैंक में जमा पैसा उन्होनें बेटियों, और पोती को बराबर बांटने और कुछ गांव की डिस्पैंसरी में देने का लिखा था।
दोस्तों, पाठकों, उमर होने पर शारीरिक असमर्थता हो सकती है, लेकिन अपनी आर्थिक स्थिति जरूर मजबूत रखें और यथासंभव रिश्ते संभालकर रखें और कभी अपने आप को असहाय न समझें।
विमला गुगलानी
चंडीगढ़
वाक्य- असमर्थ