बरामदे की कुंडी खटकी तो रमाकांत ने अख़बार मोड़कर एक तरफ़ रखा। इस वक़्त किसी के आने की उम्मीद नहीं थी। दरवाज़ा खोला तो सामने खड़े व्यक्ति को देख वह ठिठक गए। सामने उनके कॉलेज के पुराने मित्र नरेश खड़े थे—चेहरा उतरा हुआ, आँखों के नीचे गहरे साये और कंधों पर ऐसा बोझ जैसे बरसों का दुख एक साथ लद गया हो।
“अरे नरेश! तुम… इस समय?”
रमाकांत ने हाथ पकड़कर उन्हें भीतर खींच लिया।
नरेश बिना कुछ बोले भीतर आ गए। उनके होंठ काँप रहे थे, पर आँखों में भरी नमी बाहर नहीं आ पा रही थी। रमाकांत समझ गए—कुछ बहुत गहरा टूटा है।
“बैठो… पहले पानी पी लो।”
उन्होंने आवाज़ देकर पत्नी से पानी लाने को कहा।
शारदा पानी लेकर आईं। नरेश की हालत देखकर उन्होंने बस सिर झुकाया, गिलास आगे बढ़ाया और चुपचाप भीतर चली गईं। उन्हें अंदाज़ा था कि यह बातचीत दो मित्रों के बीच ही होनी चाहिए।
“अब बताओ, क्या हुआ?”
रमाकांत ने धीरे से पूछा।
नरेश ने लंबी साँस ली।
“मैं आज अपना घर छोड़कर आया हूँ।”
“घर छोड़कर? झगड़ा हुआ क्या?”
“झगड़ा नहीं… फैसला हुआ।”
रमाकांत चौंक पड़े।
“कैसा फैसला?”
“मेरे बेटे ने कह दिया कि या तो मैं अपनी ज़मीन बेच दूँ, या फिर उनके रास्ते से हट जाऊँ।”
नरेश की आवाज़ भर्रा गई।
“और तुम?”
“मैंने कहा—ज़मीन नहीं बेचूँगा।”
“तो?”
“तो उसने कहा—‘फिर आप अपने हाल पर रहिए।’”
कुछ पल तक कमरे में सन्नाटा छा गया। बाहर से आती ट्रैफिक की आवाज़ भी जैसे रुक गई हो।
“लेकिन तुम्हारी बहू… बच्चे?”
“सब उसी की तरफ़ हैं। बहू तो पहले से ही मुझसे बात करना छोड़ चुकी थी। पोती जब मेरे पास आती थी तो उसे डाँट पड़ती थी—‘दादाजी के पास मत बैठो।’”
नरेश ने आँखें बंद कर लीं।
“तुम्हारी पत्नी होती तो शायद बात संभल जाती…”
रमाकांत ने धीरे कहा।
“हां… उषा होती तो आज मैं यहाँ न बैठा होता।”
नरेश की आवाज़ में टूटन थी।
“वो हमेशा कहती थी—‘घर पैसे से नहीं, रिश्तों से चलता है।’ लेकिन उसके जाने के बाद रिश्ते ही सबसे महंगे हो गए।”
रमाकांत कुछ देर सोचते रहे।
“तुम्हारी बेटी से बात हुई?”
नरेश ने कड़वाहट से हँस दिया।
“वो भी वही चाहती है—अपना हिस्सा। कहती है, ‘पापा, अब ज़माना बदल गया है, सब कुछ लिखत-पढ़त में होना चाहिए।’”
“तो अब क्या करोगे?”
“पता नहीं। आज पहली बार लगा कि इस उम्र में इंसान सच में अकेला हो सकता है।”
रमाकांत ने कुर्सी खींचकर पास बैठते हुए कहा,
“नरेश, क्या तुमने कभी सोचा है कि हम अपने बच्चों के लिए जीते-जी खुद को खत्म कर देते हैं?”
नरेश ने हैरानी से देखा।
“क्या मतलब?”
“मतलब यही कि हम सोचते हैं—बच्चे ही सब कुछ हैं। लेकिन जब वही हमें बोझ समझने लगें, तब?”
“तब आदमी टूट जाता है।”
नरेश ने धीमे से कहा।
“या फिर खुद को दोबारा जोड़ता है।”
रमाकांत बोले।
नरेश ने सवालिया नज़र से देखा।
“देखो,” रमाकांत बोले,
“हमारी पीढ़ी ने हमेशा त्याग को महिमा मंडित किया। पर अब समय बदल गया है। बच्चे अपने लिए जीते हैं, तो क्या हम अपने लिए नहीं जी सकते?”
“इस उम्र में?”
“इसी उम्र में।”
रमाकांत ने दृढ़ता से कहा।
“तुम अभी बूढ़े नहीं हो, अकेले हो। और अकेलापन सबसे खतरनाक होता है।”
नरेश चुप रहे।
“एक बात बताओ,”
रमाकांत ने बात आगे बढ़ाई,
“अगर तुम्हें कोई ऐसा साथी मिल जाए जो तुम्हारे जैसे ही हालात में हो—क्या वह गलत होगा?”
नरेश चौंक गए।
“तुम क्या कहना चाहते हो?”
“मैं यह नहीं कह रहा कि किसी की जगह भरनी है। लेकिन जीवन को फिर से बाँटना… क्या वह अपराध है?”
रमाकांत की आवाज़ में कोई बनावटीपन नहीं था।
“लोग क्या कहेंगे?”
नरेश ने वही पुराना सवाल किया।
“लोग तब भी क्या कह रहे थे जब तुम्हारा बेटा तुम्हें अकेला छोड़ रहा था?”
रमाकांत ने सीधा प्रश्न किया।
नरेश निरुत्तर हो गए।
“मेरी जान-पहचान में एक महिला हैं—सुधा।”
रमाकांत बोले।
“पति को गुज़रे सात साल हो गए। बेटा विदेश में है। साल में एक बार फोन करता है। वो भी तुम्हारी तरह अकेली हैं, पर टूटी नहीं।”
“पर… मैं किसी अजनबी को अपने जीवन में…”
नरेश हिचकिचाए।
“अजनबी ही तो सबसे पहले दोस्त बनता है।”
रमाकांत मुस्कराए।
“और कोई जल्दबाज़ी नहीं है। मिलो, बात करो, समझो। फैसला बाद में।”
नरेश ने खिड़की की ओर देखा। शाम ढल रही थी।
“शायद तुम ठीक कह रहे हो। मैं खुद किसी को यही सलाह देता। पर जब बात खुद पर आती है…”
“तब डर लगता है।”
रमाकांत ने वाक्य पूरा किया।
“डर स्वाभाविक है। लेकिन डर के कारण जीना छोड़ देना गलत है।”
कुछ देर बाद शारदा चाय लेकर आईं।
“चाय पीजिए नरेश जी।”
उन्होंने अपनत्व से कहा।
नरेश ने पहली बार हल्की मुस्कान दी।
“आज पहली बार लगा कि मैं किसी का बोझ नहीं हूँ।”
रमाकांत ने उनका कंधा थपथपाया।
“जब तक दोस्त हैं, कोई बोझ नहीं होता।”
बाहर अँधेरा घिर आया था। घर के भीतर चाय की भाप के साथ एक नई शुरुआत की संभावना भी फैल चुकी थी। नरेश को लगा, शायद ज़िंदगी ने अभी सारे दरवाज़े बंद नहीं किए हैं।
लेखिका : आरती कुशवाहा