आखिरी पड़ाव – डॉ शंकर लाल माहेश्वरी : Moral Stories in Hindi

उस दिन बंद कमरे में हो रही उनकी बातें अधखुली खिड़की से सुनीं, तो मैं दंग रह गया। अंदर से खाली होता जा रहा था, अज्ञात भय सालने लगा। बेटे अखिलेश की शादी हुए अभी दो ही साल तो बीते हैं। काफी सोच-विचार कर भरे घर की बेटी को बहू बनाकर लाया था। सोचा, थोड़ा आराम मिलेगा। सेवानिवृति के पहले तो काम के बोझ से दबे रहना पड़ता था।

पोता हुआ, तो चहल-पहल बढ़ेगी, उसकी मनचाही मुराद पूरी करने का आनंद अलग ही होगा । लोग, बहू-बेटे की सेवाओं की पास-पड़ोस में ही क्या गाँव में भी चर्चा होगी। पोते का सुख तो मूल से भी प्यारा होता है न? घर-आँगन की रौनक बढ़ेगी, उसकी किलकारियों से मन मयूर नाच उठेगा । उसे अच्छे संस्कार, उत्तम शिक्षा देकर निहाल हो जाऊँगा। ये सारे अरमान एक ही पल में ध्वस्त हो गये ।

बहू सुरेखा अपने पति अखिलेश से कह रही थी, ‘अब तो इस बूढ़े से पिंड छुड़ाकर कहीं बाहर की जिंदगी जीने की चाह बलवती होती जा रही है। पास के किसी शहर, कस्बे में आपकी नौकरी लग जाये तो चल कर वहीं अपना बसेरा बना लेंगे। कब तक इस बूढ़े की सेवा में दम घुटाते रहेंगे? बाहर चलने में ही सुख है। यहाँ की दमघोंटू जिंदगी से तो बाहर रहकर जीवन यापन करना ही श्रेयस्कर होगा।’ पति अखिलेश यह सब कुछ सुनकर भी मौन रहा। गजब हो गया, क्या सोचा और क्या हुआ जा रहा है ।

पत्नी के मरने के बाद सेवानिवृत्त कमलकांत भी अकेले हो गये । सेवा समाप्ति पर जो पैसा मिला उसे पत्नी की बीमारी में लगा दिया। उसे ब्लड कैंसर था। दिन बीतते गये, ये बातें मन को झकझोरने लगी। अखिलेश ने कुछ तो कहा होता, पर नहीं ! वह भी तो यही चाहता था। मेरा मन भी अब वृद्धाश्रम को तलाशने लगा। आत्मबल मजबूत बना कर कि दुनिया में लोग अकेले भी तो जी रहे हैं। केवल दो जून की रोटी का ही तो जुगाड़ बिठाना है।

आखिर वह दिन आ ही गया, जिसकी संभावना थी । अखिलेश ने दबी जबान से मेरे सामने प्रस्ताव रखा, ‘पापाजी ! हम लोग अब शहर में जाकर बसना चाहते हैं। मुझे एक बैंक में नौकरी का भी आश्वासन मिल गया है। कीर्तन को भी किसी अच्छे स्कूल में पढ़ा लूँगा। आप यहीं रहकर खेत-खलिहान व घर की देख-रेख कर ही लेंगे, घर में सारी सुविधाएँ हैं ही। केवल दो समय का खाना ही तो बनाना है। मेरे मुँह से स्वीकृति सूचक भाव निसृत हो गये और मैं अचानक बुझ सा गया, जैसे किसी ने मेरा सब कुछ एक ही झटके में छीन लिया हो। वे चले गये ।

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आज घर सूना है। चूल्हा भी नहीं जलाया। अब कीर्तन का कीर्तन भी सुनाई नहीं पड़ता। घर में अंधकार रहने लगा। मैं पहले कम और अब अधिक गमगीन हो गया। मेरा संकल्प बल डिगने लगा। मेरा हृदय विदीर्ण हो गया। अब वे कभी भी नहीं आयेंगे। यह सोच कर तड़प उठता, अपने भी कभी पराये हो जाते हैं, यह तो कभी सोचा भी नहीं था। अब बंद कमरे में दीवारों से ही बातें करता रहता।

बस मैं जी ही रहा था। प्रात: उठता, झाडू-बुहारी करता, सफाई, पोंछा लगाता, पड़ोसी से पानी की झुगाड़ बिठाता, पेट की आग को बुझाने के लिए खाना बनाने की सोचता, भले ही खाना दोनों समय नहीं बने। एक ही समय बनाकर दोनों समय पेट की आग बुझानी होगी। आज का खाना नहीं बना सका। दूसरे दिन भगवान भास्कर ने दस्तक दी। दिनकर की लालिमा खिड़कियों से झाँकने लगी, मानो वह मेरा साथ निभाने आयी हो और विचार आया, इस तरह जीना भी कोई जीना है ?

आज पहली बार अपने बूढ़े हाथों से खाना बनाने का साहस जुटाया था। कच्चा पक्का जैसा भी बना, उसे खाली पेट में उड़ेल कर भरे पेट का अहसास करने लगा। कभी शाम का खाना न भी बने तो क्या आदमी मरता थोड़े ही है ? अगले दिन पड़ोसी के नल वाले गड्ढ़े से पानी से भरी बाल्टी लेकर सीढ़ियाँ चढ़ रहा था तो साँस फूल गयी, चक्कर आ गया, हाथों का दर्द बढ़ गया। जैसे-तैसे नहा धोकर ईश वंदना की और प्रभु से प्रार्थना की कि ‘हे आराध्य देव! किसी को भी वृद्वावस्था में ये दिन न दिखाना । ‘

जली भुनी रोटियाँ, कच्ची- कसैली सब्जी, नमक का कम ज्यादा हो जाना, दूध का उफन कर बाहर आ धमकना, गैस के चूल्हे का खुला रह जाना, और कभी गैस का लगातार धधकते रहना, ये सब मेरी परेशानी के कारण थे। एक दिन झाडू-बुहारी कर लेने के बाद भरे पानी का मटका उठाये पीड़ित अवस्था में ऊपर की सीढी तक पहुँच तो गया, किंतु वहीं से ऐसा लुढका कि सीधा अंतिम सीढ़ी पर जा पहुँचा। हाथ-पैरों में चोट लगी, दायें हाथ की कुहनी की हड्डी टूट गयी, बेहोशी आ गयी । होश आया तो देखा, पड़ोसी रामनाथ और उसके तीनों बेटे मुझे चारपाई पर लिटाकर कंबल ओढ़ाये, चारों कंधा लगाये अस्पताल की राह पर चल रहे थे। चौंकिए नहीं! यह कोई अर्थी नहीं, जिंदा लाश है।

अस्पताल में उपचार हुआ। चार दिनों तक वहीं के मुफ्त में मिले दाल-दलिए से गुजारा किया। लोगों ने इस घटना की सूचना अखिलेश तक पहुँचाने का प्रयास किया तो मालूम हुआ, वह सपत्नीक हरिद्वार तीर्थ यात्रा पर गया है। चारों धाम की यात्रा करके ही लौटेंगे। वे तीर्थ यात्रा करते रहे, मैं अस्पताल में सिसकता रहा।

अब कीर्तन तीन साल का हो गया। उस समय तो वह दूधमुँहा बच्चा ही तो था। पूरे बीस दिन बाद अखिलेश कीर्तन को भी लेकर आया। अखिलेश ने औपचारिक कुशलता पूछी। जाने की जल्दी थी। कीर्तन को मेरा प्रत्यास्मरण कराया, वह तो

भूल

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गया था। जाते समय मैंने कीर्तन को सीने से लगा लिया। छलकते आँसुओं को पोंछते हुए आशीर्वाद दिया, ‘बेटा! सदा सुखी रहो । ‘ अखिलेश को नौकरी करते तीन वर्ष बीत गये। अच्छी पहचान बना ली। अधिकारियों का विश्वास जीत लिया। लोग उसे भरोसे का आदमी समझने लगे, कभी-कभी अधिक विश्वास जमा कर आसानी से धोखा देने में लोग चतुर हो जाते हैं, ऐसा ही हुआ। अब अखिलेश किसी गबन के मामले में फँस गया। जाँच में दोषी पाये जाने पर उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ा। नौकरी भी विश्वास बनाये रखने पर ही रहती है।

विश्वास जीतने के साथ ही जी तोड़ मेहनत भी करनी पड़ती है। लोग भ्रष्टाचार को ही शिष्टाचार बना लेते हैं, तो परिणाम दुखद ही होता है । महीने गुजर गये। अखिलेश को दूसरी नौकरी नहीं मिली । अन्य कार्य व्यवसाय के लिए पैसा था नहीं। बचत करना तो उसने कभी सीखा ही नहीं। तीन प्राणियों का गुजारा भी नहीं कर पाया। हाथ-पैर मारकर

अंत में मेरे पास आया । उसकी रामकथा सुनकर में द्रवित हो गया। बैंक में मेरे पास केवल बीस हजार ही जमा थे। सारा पैसा तो पत्नी की बीमारी में ही लग गया। मैंने बैक 

की राशि के साथ ही अपनी जमीन गिरवी रख कर कुल एक लाख रुपये की व्यवस्था कर दी ।

इससे मोटर पार्टस की दुकान अच्छी चल निकली। आमदनी ठीक

थी। व्यवसाय बढ़ाकर

अपना निजी मकान भी उसी शहर में बना लिया। अब चौपहिया वाहन की सुविधा भी हो गयी। कीर्तन अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ रहा था। उसे स्कूल लाने ले जाने के लिए कार की सुविधा थी । मैं भी थक हार गया। सहारा किसी का था नहीं। कमर झुक गयी, आँखें जवाब दे गयीं, कम सुनाई देने लगा, आये दिन हारी – बीमारी से ग्रसित रहता, यह तो भला हो पड़ोसी रामनाथ का, जो दुख-दर्द में मेरी सहायता करता रहता। अब जीने की चाह भी जाती रही। क्यों नही अपने बेटे अखिलेश के शहर वाले वृद्धाश्रम में ही शरण ली जाये।

यह सोच ही रहा था कि मेरा लंगोटिया दोस्त रामावतार वर्षों बाद घर आया। रेल्वे में अच्छी नौकरी थी । सेवानिवृत्ति के बाद पहली बार देखा उसे । उससे मिलते ही बचपन की स्मृतियाँ हृदय पटल पर लौटने लगीं। मुझे अब भी याद है, जब अखिलेश घुटनों के बल चलता था, मैं उसका घोड़ा बनकर उसे पीठ पर सवारी कराता, और खुले दालान में घुमाता, कभी कंधों पर बिठाकर झूलता तब रामावतार कहता, ‘कभी कंधे से सिर पर मत बिठा लेना, अन्यथा ये भी बुढ़ापे में सिर पर बैठेगा । बुढ़ापे में सब दूरियाँ बना लेते हैं,

कोई विरला ही बुढ़ापे की लकड़ी पकड़ पाते हैं। बाकी सब तो ‘हम दो हमारे दो’ की मानसिकता से अकेला छोड़ जाते हैं क्यों? ठीक है कि नहीं? यदि विश्वास नहीं हो तो चलो मेरे साथ शिवाजी पार्क में वहाँ तुम देखोगे कि बूढ़ा अकेला अपने आप से बतियाते हुए चक्कर काट रहा होगा। अथवा बूढ़ा बूढ़े से आपबीती सुना रहा होगा । ‘

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रामावतार से रहा नहीं गया और कमलकांत को हाथ पकड़ कर ले गया शिवाजी पार्क में वहाँ उसने बताया, ‘देखो, ये काली टोपी वाले लालाजी जो खंभे के पास खड़े हैं न, शहर के जाने माने रईस थे। इनका व्यापार में

सब कुछ चला गया, खाली हो गये तो सभी दूर होते गये। और इन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया। | बेचारे पुराने दिन याद कर | दु:खी होते रहते हैं। अब ये समाज के कार्यकलापों में सहयोग कर अपना गम भुला रहे हैं। उधर जो पुराना काला कोट पहने साहब दिख रहे हैं, ये इस शहर के जाने माने वकील हैं। दूसरों को न्याय दिलाने वाले स्वयं अन्याय के शिकार हैं। अपने परिजनों के अब ‘जरूरतमंद लोगों को मुफ्त

सलाह देने में व्यस्त रहते हैं। उधर सूनी बेंच पर जो महाशय बैठे हैं, लंबे समय से सरकारी स्कूलों में ज्ञान गंगा बहाते ये मास्टर जी चार बेटों के बाप हैं। सब अलग रहने लग गये तो इन्हे किश्तों में रहना पड़ रहा है, अपने ही बेटों की शरण में। इनकी जिंदगी ठहर सी गयी है। अब ये एक स्कूल चला रहे हैं, जहाँ गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा दे रहे हैं। ‘

‘मेरे दोस्त ! मुश्किलें हारती हैं, यदि संकल्पों में शक्ति हो । धैर्य रखो, संतुलन बनाकर जीना सीखो, जो गये उनकी याद में

आँसू मत बहाओ | वर्तमान में जीना सीखो, आराम मिलेगा। तनाव और कुंठाओं से मुक्त रहकर लगे रहो किसी भी सेवा कार्य में तो मुश्किल समय भी आसान हो जायेगा। अपेक्षाओं को तिलांजली दे दो । छोड़ो कल की बातें। और जीना है तो अपने बल-बूते पर जिओ | अंतिम समय में सुखी जीवन जीने की यही एक मात्र रामबाण दवा है कमल!’ रामावतार चला गया। उसकी बातें बार-बार सीने पर चोट करने लगी। मन में उचाट हो गयी तो कमल ने सोच लिया। जब शरीर ही साथ छोड़ने को मजबूर हो जाता है तो फिर वृद्धाश्रम ही तो एकमात्र सहारा है थके-हारे आदमी का। यही सोच कर कमलकांत वृद्धाश्रम की ओर चल पडा… ।

कातर

आज वृद्धाश्रम के बाहर की चबूतरी पर बैठा, दृष्टि से दुनिया वालों को देख ही रहा था, तभी एक सफेद कार वृद्धाश्रम की ओर मुड़ी तो देखा अखिलेश कीर्तन को साथ लेकर आया है। खड़े-खड़े ही बातें होती रही। कीर्तन अब बड़ा हो गया था। उसने पूछा – ‘दादाजी ! क्या बूढ़ा हो जाने पर हर आदमी को यहाँ आना पड़ता है?” कीर्तन की यह बात सुनकर अखिलेश मेरी नजर से नजर नहीं मिला सका। वह चला गया और मेरे नेत्रों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी ।

तभी मेरे वृद्धाश्रम के अस्सी वर्षीय सहवासी वृद्ध ने आँसू पोंछते हुए कहा – ‘हारिये न हिम्मत, बिसारिये न हरि नाम, जाही विधि राखे राम, ताही विधि रहिए और उस बूढ़ी आत्मा से नहीं रहा गया। उसने कहा, मेरे दोस्त ! ढलती साँझ में व्यक्ति नैराश्य नद में गोते लगाता है, अज्ञात असुरक्षाएँ सालती रहती हैं,

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कुंठा और तनाव की अवस्थाओं में जीना पड़ता है। भावी जीवन की दुश्चिंताएँ सालती हैं। परिजनों की नजदीकियाँ दूरियाँ बना लेती हैं। अपनों के अपनेपन के अभाव में आदमी बोझिल हो जाता है। अधूरापन, विखराब, उत्पीड़न की खीझ से टूटने लगता है। चिंतन कम और चिंताएँ अधिक घेरती हैं। आवाज की बुलंदी को ग्रहण लग जाता है। भूत-भविष्य की विचारणाएँ अकेलेपन को बोझिल बना देती हैं। संवेदनाएँ दबी-कुचली लगती हैं । अपेक्षाएँ आहत हो जाती हैं। उपेक्षाओं का अंतहीन दबाव आलोड़ित करता है। भावनात्मक टूटन सिसकने लगती है । ‘

‘कमल जी ! आँसू कभी मत निकालना, धैर्य और साहस जीवन नौका के वे पतवार हैं, जो उसे मंजिल तक ले जाते हैं। जब परिस्थितियाँ विपरीत हों तो सब कुछ ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए। कठिनाई और विरोध की मिट्टी में ही तो धैर्य और आत्म-विश्वास का विकास होता है । अतीत से सीखो, वर्तमान का सदुपयोग करो, भविष्य के प्रति आशावान रहो। बस ! यही आधार स्तंभ हैं अंतिम पड़ाव के लिए । ‘

आसमान के पश्चिमी छोर पर सूर्य डूबने लगा था । अंधेरा हो गया। आश्रम के मंदिर की घंटियाँ बजने लगीं। आरती प्रारंभ हो गयी। मैंने देव दर्शन किये और आहत अरमानों को दबाए अपने शयन कक्ष की ओर चला आया।

लेखक : डॉ शंकर लाल माहेश्वरी 

पूर्व जिला शिक्षा अधिकारी

पोस्ट- आगूचा, जिला

भीलवाड़ा

राजस्थान – 311022

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