आखिरी फैसला – अपर्णा गर्ग : Moral Stories in Hindi

अरी करमजली कहां रह गई, सूरज सिर पर चढ़ने को तैयार बैठा हैं, और तूने मुझे अभी तक चाय नहीं दी।

तेरा बस चले तो मुझे भूखा ही मार दे।

अभी सात भी नहीं बजे और तुम्हारी मां ने रोज की तरह चिल्लाना शुरू कर दिया। मैं भी क्या क्या

करूं…सुबह पहले पानी गरम करो, पूरे घर की सफाई करो और फिर नहाने के बाद ही रसोई में जाओ, नहीं

तो वे कुछ भी नहीं खाएंगी।

सुबह से ही, मां और शुचि, दोनों ओर से तानों के अस्त्र शस्त्र चलने शुरू हो गए। दीपक को ऑफिस के

लिए देर हो रही हैं, उसका नाश्ता तैयार हुआ या नहीं…किसी को कोई चिंता नहीं।

मां, ये क्या लगा रखा हैं तुमने, खुद ही चाय क्यूं नहीं बना लेती? तुम चाय बनाती तो मुझे भी चाय पीने को

मिल जाती।

इन बूढ़ी हड्डियों में इतना दम होता तो तेरी बहू की ओर एक नजर भी न देखती …

बस रहने दो, अभी पिछले हफ्ते ही सरला मौसी की बेटी की शादी में रसोई का सारा काम तुमने ही

संभाल रखा था। वहां तो तुम कहीं से भी कमज़ोर नहीं लग रही थी। बस घर में ही तुम्हारे नाटक चलते हैं।

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कह ले बेटा…कह ले अपनी विधवा मां को, सब जानती हूं, ये आग कहां की लगाई हुई हैं।

दीपक समझ गया, कि मां से कुछ भी कहना बेकार हैं। कोई भी बात करो, उनकी गाड़ी शुचि पर ही आकर

रुकती हैं। काश उसने मां की पसंद की लड़की से शादी की होती तो घर में हर समय अशांति का माहौल

नहीं रहता।

दीपक के जाते ही शुचि अपने कमरे में आकर धप्प से बिस्तर पर गिर पड़ी। सुबह से चक्करघिन्नी की तरह

काम करती रहती, फिर भी घर में कोई न कोई क्लेश होता ही रहता। आज आंख जरा देर से क्या खुली,

घर में फिर से हंगामा हो गया। घर को अच्छे से संभालने के चक्कर में नौकरी भी छोड़ दी,पर हाथ में कुछ

पल्ले नहीं पड़ा। कितनी भी कोशिश कर ले, कभी भी सीधे मुंह बात ही नहीं करती।

सही कहते हैं, मां बाप की मर्जी के बगैर शादी करो, तो यही सब भुगतना पड़ता हैं। उसका तो मायका भी

खत्म हो गया, जाए तो कहां जाए। पापा ने तो गुस्से में यहां तक कह दिया,अगर घर में कोई मर भी जाए

तो अपनी शक्ल हमें मत दिखाना।

दीपक के भरोसे ही तो सबसे रिश्ता नाता तोड़कर आई थी, और अब वो भी मुझसे कटा कटा रहने लगा

हैं, रोते-रोते शुचि की हिचकी बांध गई। कोई भी तो अपना नहीं हैं,जिससे दो घड़ी बातें करके अपना मन

हल्का कर सकूं। पता नहीं किस जन्म का बुरा फल मुझे भुगतना पड़ रहा हैं। कभी किसी किस्से का सिर

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कही जोड़ती तो कभी कही…सोचते सोचते, शुचि की आंख लग गई।

बहुत देर तक जब घर में कोई हलचल नहीं हुई तो सविता जी, शुचि के कमरे की ओर आई। शुचि को

सोता देख उनका गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। यहां भूख से आंतें कुलबुला रही हैं, और ये हैं कि

घोड़े बेचकर सोई पड़ी हैं।

गुस्से में तिलमिलाई सविता जी ने पानी लाकर शुचि पर उड़ेल दिया।

पानी के गिरते ही शुचि घबराकर उठ बैठी।

सारा घर खुला पड़ा हैं, और इसे कोई फिक्र ही नहीं हैं, चाहे चोर उचक्के आकर सारा घर लूटकर ले जाएं।

तो आप क्या कर रही हैं, आपका घर हैं, तो चौकीदारी भी आपको ही करनी चाहिए।

देखो तो कैसे कैंची से भी तेज इसकी जबान चल रही हैं। क्या मां बाप ने बड़ों से बोलना भी नहीं सिखाया?

कितनी देर से पानी के लिए आवाज लगा रही हूं, पर ये महारानी तो कानों में रुई ठूंसे पड़ी हैं।

मुझ पर पानी गिराने के लिए तो रसोई में जा सकती हो, तो खुद पानी नहीं पी सकती, शुचि अपने ऊपर

पानी देख बुरी तरह से झल्ला गई थी।

दोनों बहुत देर तक बिना बात की बहस करती रही, फिर सविता जी पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली

गई।

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न तो शुचि ने खाना बनाया और न ही कोई काम करा। दोनों ही अपने कमरे को बंद करके पड़ी रही।

शाम को जब दीपक घर में आया,तो घर में शांति पसरी हुई थी। शायद आज फिर घर में महाभारत का

युद्ध हो गया हैं।

आज तो दोनों में से कोई भी उठकर नहीं आया। दीपक भी चुपचाप कमरे में चला गया।

शुचि सो रही हो क्या…भूख लग रही हैं, कुछ तो खाने को दो।

शुचि ने कोई जवाब नहीं दिया, चुपचाप करवट पलटे पड़ी रही।

अब बस…बहुत हो गया , सुबह से गया आदमी शाम को थकाहारा घर आता हैं, उसका हाल पूछने की बात

तो अलग,एक ग्लास पानी भी पूछने की जरूरत नहीं समझती हो।

पानी का जिक्र आते ही शुचि भड़क गई।

हां सही कह रहे हो। बस अब बहुत हो गया, और शुचि ने एक सांस में दोपहर का सारा किस्सा सुना दिया।

अब तुम मुझे बताओ, मुझे क्या करना चाहिए। सुबह से सिर में दर्द हो रहा हैं, मुझसे किसी ने पूछा कि

खाना खाया, दवाई ली, “कहकर शुचि रोने लगी।”

मैं चाय लेकर आता हूं, उसके बाद दवाई खा लेना।

बहुत देर तक दोनों में मौन पसरा रहा। कौन बात शुरू करें, फिर दीपक ने ही भूमिका बांधकर बात की

शुरुआत की।

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शुचि, मैने बहुत कोशिश की, कि मैं मां और तुम्हारे बीच सामंजस्य बिठा पाऊं, पर आज के हालात देखकर

ऐसा लग रहा हैं कि अब कुछ नहीं हो सकता। मैं तुम्हारी जिम्मेदारी निभाने में नाकामयाब रहा। मेरी वजह

से तुम्हें नौकरी भी छोड़नी पड़ी। मैने तुम्हारी जिंदगी बर्बाद कर दी। मैं तुम्हारा कसूरवार हूं। तुम मुझे जो

सजा दोगी, मुझे मंजूर हैं।

मैं अब इस घर में रहना नहीं चाहती। मैं कल ही ये घर छोड़कर चली जाऊंगी।

क्या ये तुम्हारा आखिरी फैसला हैं…

हां, बात अब मेरे आत्मसम्मान की हैं, जब उन्हें मेरा यहां रहना इतना अखरता हैं, तो मैं यहां क्यूं रहूं? …

अभी तुम गुस्सा हो, सारी रात पड़ी हैं, थोड़ा और सोच लो, मैने मां और तुम्हें हमेशा एक ही पलड़े में रखा

हैं,शायद इसीलिए कोई समाधान नहीं ढूंढ पाया। फिर भी तुम्हारा जो फैसला होगा, मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा,”

कहकर दीपक कमरे से बाहर चला गया।”

रसोई से फिर दो कप चाय बनाकर दीपक मां के कमरे की ओर गया।

आ गया…मिल गई फुर्सत तुझे…या देखने आया हैं कि मां अभी जिंदा हैं या मरी पड़ी हैं।

ऐसी अशुभ बातें क्यूं अपने मुंह से निकालती हो। कभी सोचा हैं,अगर तुझे कुछ हो गया तो मेरा क्या

होगा…

पहले चाय और बिस्कुट ले ले,वरना तबियत खराब हो जाएगी।

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जिसकी किस्मत ही खराब हो,उसकी तबियत खराब हो या अच्छी…क्या फर्क पड़ता हैं।

मां, मैने सोचा हैं कि मैं शुचि को तलाक दे देता हूं। रोज रोज के झगड़े से अलग रहना सही होगा। मेरे लिए

शुचि से पहले तुम आती हो। मैं शुचि को छोड़ सकता हूं, पर तुम्हें कभी नहीं…तुम मुझे सुबह तक सोचकर

बता देना, तुम्हारा फैसला ही आखिरी फैसला होगा, फिर मैं शुचि से सब बात कह दूंगा।

दीपक, सविता जी से शुचि को अलग करने की बात कह तो आया, पर मन ही मन डरने लगा, कहीं मां ने

सच में शुचि को घर से निकाल दिया। और अभी तो शुचि के दिमाग भी यही सब चल रहा हैं, अगर उसने

ये फैसला ले लिया तो…

आज इसे क्या हो गया,जो ये बहकी बहकी बात कर रहा हैं। कल तक तो उसके पीछे साए की तरह रहता

था। अब अचानक से उसे छोड़ने की बात कर रहा हैं। कौन मां होगी,जो अपने बच्चे का घर तोड़ना चाहेगी।

मुझे समझाने चला हैं, उससे नहीं कह सकता,कि मां का खयाल रखा करें।

जहां चार बरतन होंगे, वहां आपस में भिड़ेंगे भी। पर इसका मतलब ये तो नहीं कि उन्हें अलग ही कर दो।

सच में हीरे जैसा बेटा हैं मेरा…मेरे लिए अपनी पत्नी को भी छोड़ने के लिए तैयार है। जिससे भी शादी करके

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लायेगा, मेरे लिए तो सब एक जैसी हैं। अपने बच्चे के लिए तो मैं सौ घूंट जहर के पीने के लिए भी तैयार

हूं। कोई नहीं…मैं ही कल सुबह बहू से माफी मांग लूंगी।

शुचि भी रात भर करवटें बदलती रही। दीपक एक बार कमरे से जो गया, लौटकर नहीं आया। शुचि का

गुस्सा शांत होने की जगह और बढ़ गया। अब तो पक्का ही मै घर छोड़कर चली जाऊंगी। इतनी बड़ी

दुनिया हैं, मेरे रहने के लिए कहीं न कहीं छत मिल ही जाएगी। शुचि की कब आंख लगी, उसे खुद भी पता

नहीं चला।

बहू…आज उठना नहीं हैं क्या…सात बजने वाले हैं। दीपक को ऑफिस भी जाना होगा। मैने चाय बना ली हैं,

दीपक को भी उठा दे।

शुचि को लगा, जैसे कोई उसे आवाज दे रहा हैं। घड़ी में देखा, तो सात बज रहे थे।

सविता जी ने एक बार फिर आवाज दी बहू, चाय पी लो, ठंडी हो जाएगी। दीपक को भी उठा ले।

शुचि ने पलटकर देखा, तो दीपक वही सोया हुआ था।

सुनो, मां बुला रही है, चाय पी लो।

तुम जाओ, मैं बाद में आता हूं।

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शुचि के मन में क्या आया, उसने सविता जी के पांव छू लिए।

सदा सौभाग्यवती रहो।

बहू मुझे कल के लिए माफ कर दे, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था।

आप तो बड़ी हैं, आपकी माफी क्यूं मांग रही हैं। गलती तो मेरी भी थी। मुझे खाना बनाना चाहिए था।

नहीं बहू, गलती मेरी ही थी, पता नहीं मुझे इस बात का डर था कि तूने मेरे बेटे को तो मुझसे छीन लिया हैं,

अब घर पर भी अपना राज जमाने लगेगी। इसलिए मैं तुझसे लड़ती झगड़ती रहती थी। कल मुझे

अहसास हो गया कि दीपक तो हमेशा से मेरे पास ही था। फिर मुझे किस बात का डर…

शायद हम दोनों ने ही एक दूसरे के बीच इतनी लंबी दीवार खड़ी कर दी थी, जिससे हम कभी एक दूसरे

को पहचान ही नहीं पाए। मैं भी आपमें मां तो तलाशती रही,पर मां जैसा मान नहीं पाई।

छोड़ इन सब बातों को.. क्या हम दोनों मिलकर एक नई शुरुआत कर सकते हैं, “सविताजी ने शुचि का

हाथ अपने हाथ में लेकर कहा।”

दीपक कोने में खड़ा उनकी बातें सुनकर मंद मंद मुस्कुरा रहा था, आखिर उसकी चाल जो कामयाब हो गई

थी।

स्वरचित एवम् मौलिक कहानी

अपर्णा गर्ग

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