प्रज्ञा बचपन से ही अलग तरह की लड़की थी।बचपन में जब मोहल्ले की लड़कियाँ गुड़िया-गुड़िया खेलती थीं, वह किसी पुराने रेडियो को खोलकर उसके तारों को जोड़ने में लगी रहती। स्कूल में भी उसका मन हमेशा गणित, कंप्यूटर और किताबों में लगा रहता।
पढ़ाई में वह इतना तेज़ थी कि पूरे जिले में उसका नाम हुआ। इंटर में टॉप, बी.टेक में यूनिवर्सिटी रैंक।
लेकिन एक बात थी जो हमेशा उसके पीछे अपनी लंबी, काली छाया की तरह लगी रहती—उसका रूप-रंग और शरीर।
प्रज्ञा गोरी, नाज़ुक या मॉडल जैसी नहीं थी।
थोड़ी भारी भरकम, गेहुँआ रंग, बड़ी सी नाक और घुँघराले, बिखरे से बाल।
घर वाले अक्सर मज़ाक में कहते—
“अरे, हमारी इंजीनियर बेटी को तो दूल्हा हमीं ढूँढेंगे, वरना ये कंप्यूटर के सीपीयू से ही शादी कर लेगी।”
प्रज्ञा हँसकर टाल देती, पर उसे पता था कि समाज की नज़र में उसके सारे गुणों के आगे उसका रंग, क़द-काठी और चेहरा सबसे पहले खड़ा हो जाता है।
बी.टेक के बाद उसे दिल्ली की एक बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी में नौकरी मिल गई।
साल का पैकेज अच्छा था, घरवालों के लिए गर्व की बात।
पर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, घरवालों की चिंता बढ़ने लगी।
“बेटा, अब सत्ताईस की हो गई हो। रिश्ते देखना शुरू करें?”
माँ ने एक दिन धीरे से कहा।
“माँ, अभी तो मुझे अपने प्रोजेक्ट्स पर ध्यान देना है। अभी-अभी प्रमोशन मिला है। दो–तीन साल देख लें ना…”
प्रज्ञा ने टालने की कोशिश की।
लेकिन रिश्तेदारों की बातें, आसपास की शादी-ब्याह की खबरें, सोशल मीडिया पर सबकी ‘हैप्पी मैरिड लाइफ’ वाली तस्वीरें, माँ के माथे की लकीरें…
सब मिलकर प्रज्ञा को भीतर से कहीं चुभते थे।
फिर भी उसने मन ही मन तय किया था—
अगर कोई उसे सिर्फ उसकी नौकरी, सैलरी या ज़िम्मेदारी निभाने की क्षमता के लिए नहीं, बल्कि इंसान के रूप में नहीं स्वीकार करेगा, तो वह अकेले रहना पसंद करेगी।
कंपनी में उसी की टीम में एक लड़का था—आदित्य।
चेहरे पर हल्की दाढ़ी, हँसमुख स्वभाव, और सबको सहज लगने वाली बात करने की कला।
पहले-पहल तो दोनों के बीच बस दफ्तर की बातें होती थीं—
“कोड रिव्यू कर दो”,
“क्लाइंट कॉल है, साथ चलना है”,
या “आज कॉफी मेरी तरफ से।”
धीरे-धीरे दोनों की बातें दफ्तर से बाहर भी बढ़ने लगीं।
कभी टीम के साथ फ़िल्म, कभी लंच, कभी वीकेंड पर किसी सेमिनार में जाना।
आदित्य का स्वभाव ऐसा था कि कोई भी उसके साथ सहज हो जाता।
वह अक्सर प्रज्ञा से कहता—
“देख प्रैग, तू जानती है ना, टीम में सबसे ब्रिलियंट तू है। बस थोड़ा कॉन्फिडेंस और रख, तू कुछ भी कर सकती है।”
“मैंने कब कहा कि मैं कुछ नहीं कर सकती?”
प्रज्ञा मुस्कुरा कर जवाब देती,
“मुझे बस ये दुनिया समझ नहीं आती, जहाँ सर्टिफिकेट से ज़्यादा सेल्फी की फिल्टर वेल्यू होती है।”
आदित्य उसकी बातों पर हँस देता,
“तू भी ना, हमेशा गहराई में जाने लगती है।”
धीरे-धीरे दफ्तर में लोग दोनों को साथ जोड़ने लगे।
लंच में साथ, मीटिंग में साथ, कई बार देर रात तक एक ही प्रोजेक्ट के लिए रुकना—
सबको लगता, “इन दोनों में कुछ तो है।”
प्रज्ञा, जो हमेशा रिश्तों से दूरी बनाकर रखती थी, पहली बार किसी के सामने अपने दिल के दरवाजे थोड़े-थोड़े खोलने लगी।
उसे अच्छा लगता जब आदित्य उसकी तारीफ करता, उसे “पार्टनर इन क्राइम” कहता, या कहता—
“अगर तू नहीं होती तो ये प्रोजेक्ट डूब ही गया होता।”
शायद… वो आदित्य को पसंद करने लगी थी।
पर उसने कभी ज़ाहिर नहीं किया।
एक डर हमेशा भीतर बैठा था—
“कहीं ये भी मुझे सिर्फ दोस्त मानता हो… और मैं खुद ही ज़्यादा सोचने लगूँ।”
उसी बीच कंपनी में एक नया प्रोग्राम चला—
“स्टार्टअप इनक्यूबेशन प्रोग्राम”।
जिसमें अगर कोई कर्मचारी अपनी बिज़नेस आइडिया लेकर आए, तो कंपनी उसे निवेश और मेंटर दे सकती थी।
प्रज्ञा के दिमाग में तो सालों से एक आइडिया घूम रहा था—
गाँवों और छोटे शहरों के बच्चों को सस्ती और आसान टेक्निकल एजुकेशन देने वाला एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म।
जहाँ बच्चा सिर्फ रटने वाली पढ़ाई नहीं, बल्कि प्रोजेक्ट बनाकर, खुद कुछ करके सीख सके।
वह अपने नोट्स, डायरी और फाइलें बार-बार देखती, पर हर बार पीछे हट जाती—
“इतना बड़ा रिस्क?
स्थिर नौकरी छोड़कर स्टार्टअप?
घरवाले क्या कहेंगे?”
एक दिन दफ्तर की कैंटीन में उसने मज़ाक-मज़ाक में आदित्य से अपने आइडिया का ज़िक्र किया।
आदित्य चुपचाप सुनता रहा, फिर अचानक बोला—
“प्रैग, ये तो गज़ब है!
तूने पहले क्यों नहीं बताया?
ये प्रोग्राम तो तेरे जैसों के लिए ही बना है।
चल, हम पार्टनर बनकर ये स्टार्टअप शुरू करते हैं।
मैं फाइनेंस और मार्केटिंग देख लूँगा, तू टेक्निकल और प्रोडक्ट संभाल ले।”
प्रज्ञा ने चौंक कर पूछा,
“तू मेरे साथ पार्टनर बनना चाहता है?”
“हाँ, क्यों? मैं कोई एलियन लग रहा हूँ?”
आदित्य ने मज़ाक किया,
“मुझे भी कुछ बड़ा करना है, और तेरे पास ठोस आइडिया है।
हम मिलकर बहुत अच्छा कर सकते हैं।”
प्रज्ञा के चेहरे पर चमक आ गई।
पहली बार उसे लगा कोई उस पर सिर्फ दया या बराबर की नौकरी देखने वालों की तरह नहीं, बल्कि प्रतिभा के स्तर पर भरोसा कर रहा है।
दोनों ने कई रातें आइडिया पर काम करते हुए बिताईं—
मार्केट रिसर्च, बिज़नेस मॉडल, फंडिंग प्लान
सब कुछ।
फाइल तैयार हुई, प्रेजेंटेशन बनी, और कंपनी के सामने दोनों ने मिलकर प्रस्ताव रखा।
तीन हफ्ते बाद जब रिज़ल्ट आया, तो दोनों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा—
प्रोजेक्ट सिलेक्ट हो गया था।
कंपनी शुरुआती निवेश देने के लिए तैयार थी, साथ ही ऑफिस स्पेस और मेंटरशिप भी।
आदित्य बोला—
“प्रैग, तूने कर दिखाया! अब तो हम सच में अपने बॉस खुद होंगे।”
प्रज्ञा हँस पड़ी,
“हम दोनों ने किया है आदित्य।
अगर तू साथ न देता तो शायद मैं फाइल तक सबमिट न करती।”
धीरे-धीरे बात घर तक पहुँची।
माँ ने पूछा,
“ये नया काम क्या है? लोग कह रहे हैं कि तू नौकरी छोड़कर कोई अपना काम करने वाली है?”
प्रज्ञा ने समझाया,
“माँ, ये भी नौकरी की तरह ही है, बस इसमें बॉस मैं खुद बनूँगी।
जो चीजें मैंने सीखी हैं, उन्हें गाँव के बच्चों तक पहुँचाना चाहती हूँ।”
पिता शांत स्वभाव के व्यक्ति थे।
उन्होंने बस इतना कहा,
“तूने अभी तक जो किया है, अपने दम पर किया है।
अगर तुझे लगता है कि ये सही है, तो कर।
हम डरेंगे, चिंता करेंगे, पर तेरे रास्ते में रुकावट कभी नहीं बनेंगे।”
भाई ने भी मज़ाक में कहा,
“दीदी, जब करोड़ों की कंपनी बना लेना, तब हमारी फ्री में वेबसाइट बना देना।”
घर का सपोर्ट मिल गया था, पर समाज की खुसर-पुसर शुरू हो गई—
“अकेली लड़की, इतना बड़ा रिस्क?”
“ये उम्र नई कंपनी शुरू करने की नहीं, घर बसाने की है।”
“लड़के तो चाहते हैं सैटल्ड वाइफ, ये तो खुद रिस्की बन रही है।”
प्रज्ञा हर बात सुनती, कभी दर्द होता, कभी हँसी आती,
पर उसने अपने सपने से समझौता न करने का फैसला कर लिया था।
स्टार्टअप शुरू हो गया।
पहले साल में ही कुछ छोटे स्कूल जुड़ गए।
प्रज्ञा खुद विडियो लेक्चर रिकॉर्ड करती, डिज़ाइन बनाती, बच्चों के सवालों का जवाब देती।
आदित्य शहर के बिज़नेस मीटिंग में जाता, निवेशकों से बात करता, मार्केटिंग सँभालता।
वो अक्सर दोस्तों के सामने शान से कहता—
“ये जो कोड चलता है न, सब प्रैग का दिमाग है। मैं तो बस बोलने वाली मशीन हूँ।”
धीरे-धीरे दोनों का नाम भी बनने लगा।
कुछ अखबारों में छोटी-छोटी ख़बरें भी छपीं—
“मध्यवर्गीय परिवार की लड़की ने शुरू किया टेक-एजुकेशन प्लेटफॉर्म”,
“ग्रामीण बच्चों को मिल रही ऑनलाइन कोडिंग शिक्षा।”
इन सबके बीच, टीम के बाहर और अंदर लोग दोनों को एक ‘फ्यूचर कपल’ की तरह देखने लगे।
कई बार कलीग पूछ लेते—
“अरे, तुम दोनों शादी कब कर रहे हो?”
प्रज्ञा हँसकर टाल देती,
“पहले कंपनी तो सैटल हो जाए, फिर देखेंगे।”
पर भीतर कहीं, उसने आदित्य के लिए अपने मन में एक जगह बना ली थी।
उसे लगता,
“ये आदमी मुझे मेरे काम और दिमाग के लिए जानता है, शायद ये ही वो साथी है, जिसका मैं इंतज़ार कर रही थी।”
एक दिन की बात है।
कंपनी में इन्वेस्टर्स के साथ एक बड़ी मीटिंग थी।
प्रेज़ेंटेशन के बाद सब लोग कॉन्फ्रेंस रूम से बाहर निकल रहे थे, तभी दो निवेशकों की बातें प्रज्ञा के कानों तक आ गईं।
एक ने दूसरे से हँसते हुए कहा,
“आदित्य तो स्मार्ट है, हैंडसम भी, पब्लिक रिलेशन में अच्छा।
और ये जो टेक्निकल पार्टनर है न… प्रज्ञा?”
दूसरा बोला,
“हाँ, टैलेंटेड तो है, लेकिन लुक्स के मामले में… खैर, सब नहीं मिलता।
वैसे, आदित्य ने अच्छा किया, बिज़नेस पार्टनर के लिए तो दिमाग चाहिए, शादी के लिए कहीं और देख लेगा।”
दोनों हल्के से हँसे और आगे बढ़ गए।
प्रज्ञा के कान जैसे सुन्न हो गए।
वह कॉरिडोर में खड़ी रह गई।
उसके भीतर कुछ टूटता सा महसूस हुआ।
उसी शाम ऑफिस में देर तक काम करते हुए उसने आदित्य की टेबल पर एक फाइल देखी—
उसका लैपटॉप खुला था, शायद वह जल्दी में मीटिंग के लिए निकल गया था।
आमतौर पर वह दूसरों की चीज़ों में झाँकती नहीं थी,
पर आज उसकी नज़र स्क्रीन पर पड़ी एक ईमेल ड्राफ्ट पर ठिठक गई—
“प्रिय मंगेश सर,
जैसा कि हमने चर्चा की थी, अगर अगली फंडिंग राउंड में कंपनी वैल्यू सही मिली तो मैं प्रज्ञा के हिस्से के शेयर धीरे-धीरे खरीद सकता हूँ।
वह टेक्निकल काम में अच्छी है, लेकिन फाइनेंस और लीगल में कमज़ोर है, उसे समझाना मुश्किल नहीं होगा।
आपके सुझाव के अनुसार, मैं अभी सबको यही दिखा रहा हूँ कि हम दोनों बराबर पार्टनर हैं।
बाद में आपके साथ मिलकर स्ट्रक्चर सेट कर लेंगे…
– आदित्य”
प्रज्ञा कुछ सेकंड तक स्क्रीन देखती रह गई।
शरीर के भीतर से जैसे सारा खून खींच लिया गया हो।
वो महसूस कर रही थी—
“तो ये है असली सच?
ये मुझे बराबर का पार्टनर नहीं, बस इस्तेमाल करने लायक समझता है?
जो मैं नहीं जानती, वहाँ ये मेरे भरोसे का फायदा उठाने को तैयार है…”
इसके बाद उसने और कुछ नहीं पढ़ा।
लैपटॉप बंद किया, अपनी मेज़ से बैग उठाया, और चुपचाप घर चली आई।
उस रात वह अपने कमरे में देर तक जागती रही।
माँ ने पूछा,
“कुछ हुआ है क्या?”
प्रज्ञा ने सिर हिलाया—
“नहीं माँ, बस थक गई हूँ।”
लेकिन अंदर एक तूफान चल रहा था।
उसने खुद को शांत किया और सोचा—
“मैं हमेशा इस डर में रही कि कोई मुझे मेरे रूप के लिए रिजेक्ट करेगा।
पर आज किसी ने मेरे दिमाग, मेरे भरोसे, मेरे हिस्से पर ही हाथ डालने की प्लानिंग कर ली।
अगर मैं आज भी चुप रही, तो ये गलती मेरी होगी।”
सुबह ऑफिस पहुँची तो सबसे पहले बोर्ड मीटिंग के लिए ईमेल किया।
आदित्य को मेसेज भी भेजा—
“आज 11 बजे बोर्ड रूम में मिलो। जरूरी बात है।”
समय पर सब लोग आ गए—
कंपनी का मेंटर, दो इन्वेस्टर्स, और आदित्य।
आदित्य ने हल्के अंदाज में कहा,
“क्या बात है प्रैग? आज बड़ी औपचारिक लग रही है।”
प्रज्ञा ने शांत स्वर में कहा,
“हाँ, आज बात औपचारिक ही होगी।”
उसने अपनी लैपटॉप स्क्रीन मीटिंग रूम की बड़ी स्क्रीन से कनेक्ट की,
और आदित्य का वही ईमेल ड्राफ्ट सबके सामने खोल दिया।
कमरे में सन्नाटा छा गया।
आदित्य का चेहरा एक पल में सफेद पड़ गया।
प्रज्ञा ने कहा,
“शायद ये ड्राफ्ट अभी ‘सेंड’ नहीं हुआ था,
पर इरादा साफ है।
हम दोनों ने अपनी-अपनी मेहनत से यह स्टार्टअप बनाया है।
मैंने हर लीगल डॉक्यूमेंट पर भरोसे से साइन किया,
और तू, आदित्य, मेरे हिस्से को धीरे-धीरे खरीद लेने की प्लानिंग कर रहा था?”
आदित्य हकलाते हुए बोला,
“नहीं प्रैग, तुम गलत समझ रही हो… ये बस एक… बिज़नेस प्लानिंग का हिस्सा था…”
एक इन्वेस्टर ने बीच में बात काट दी,
“आदित्य, यहाँ कोई बच्चा नहीं बैठा।
तुमने साफ लिखा है कि ‘समझाना मुश्किल नहीं होगा’।
मतलब तुम अपने को-फाउंडर का भरोसा तोड़ने की योजना बना रहे थे।”
प्रज्ञा ने गहरी सांस ली।
उसका गला थोड़ा भर आया था, पर उसने अपने स्वर को स्थिर रखा—
“मैंने जीवन में कई बार खुद को अपने रूप के लिए जज होते देखा है।
मुझे लगा था, यहाँ कम से कम मेरे दिमाग की कीमत समझी जाएगी।
पर अगर यहाँ भी मुझे कमज़ोर समझकर इस्तेमाल करने की कोशिश की जा रही है,
तो फिर… मुझे इस साझेदारी की कोई ज़रूरत नहीं।”
उसने एक फाइल खोली और बोली—
“मैं लीगल टीम से बात कर चुकी हूँ।
मैं कंपनी छोड़ नहीं रही, बस अपने हिस्से को सुरक्षित रखते हुए
स्वतंत्र रूप से काम करना चाहती हूँ।
मेरा हिस्सा, मेरा निर्णय।
मैं तैयार हूँ अकेले आगे बढ़ने के लिए,
पर गलत इरादों के साथ किसी और के साथ नहीं रह सकती।”
आदित्य कुछ कहना चाहता था,
“प्रैग, सुनो तो—”
प्रज्ञा ने पहली बार उसके लिए “प्रैग” नाम से पुकारे जाने पर भी प्रतिक्रिया नहीं दी।
बस calmly बोली—
“आदित्य, अभी तुम्हें मेरी नहीं, अपनी बात समझानी है—इन इन्वेस्टर्स को, और खुद को भी।”
मीटिंग लंबी चली।
आखिरकार फैसला हुआ कि कंपनी दो हिस्सों में बँटेगी।
प्रज्ञा अपने प्लेटफॉर्म के टेक्निकल और कंटेंट हिस्से के साथ एक नई कंपनी रजिस्टर करेगी।
निवेश का एक हिस्सा उसे भी मिलेगा, क्योंकि आइडिया और काम दोनों में उसका योगदान दर्ज था।
आदित्य ने कोशिश तो की माफी माँगने की,
लेकिन उसके शब्द प्रज्ञा तक पहुँचने से पहले ही टूट जाते।
विश्वास टूट चुका था।
कई महीने बीते।
लोगों ने तरह-तरह की बातें कीं—
“अरे, पार्टनरशिप टूट गई?”
“सुना है लड़ाई हो गई दोनों की।”
“ऐसी लड़कियाँ ही तो घूम-फिरकर अकेली रह जाती हैं, इतना ‘सेल्फ रिस्पेक्ट’ लेकर कौन घर बसाता है।”
इन सबके बीच प्रज्ञा चुपचाप अपना काम करती रही।
उसने अपने नए प्लेटफॉर्म को “साक्षी लर्निंग” नाम दिया—
क्योंकि उसका मानना था कि हर बच्चा अपनी क्षमता का साक्षी खुद होता है,
बस उसे सही दिशा और अवसर चाहिए।
वह गाँव-गाँव में जाकर वर्कशॉप करती,
भीड़ भरे सरकारी स्कूलों में बैठकर बच्चों से बात करती,
लड़कियों को समझाती—
“किसी के हँसने से तुम छोटी नहीं हो जातीं।
तुम्हारे सपने किसी के ‘लाइक’ या ‘कमेंट’ पर नहीं टिके हैं।”
धीरे-धीरे उसका काम फैलने लगा।
कुछ एनजीओ, कुछ सरकारी योजनाएँ उससे जुड़ने लगीं।
एक दिन एक छोटे से शहर के स्कूल में
एक पतली-दुबली, साँवली सी लड़की उसके पास आई और बोली—
“मैम, सब कहते हैं मैं इंजीनियर नहीं बन सकती।
मेरे घरवाले भी कहते हैं कि मेरी शादी कर देंगे, पढ़ाई का क्या फायदा…
पर आपका वीडियो देखा तो लगा शायद मैं भी कर सकती हूँ।
लेकिन डर लगता है… कहीं मैं फेल हो गई,
तो लोग मेरे चेहरे पर हँसेंगे।”
प्रज्ञा ने उसका चेहरा ध्यान से देखा,
जैसे कई साल पहले आईने में खुद को देखती थी।
उसने धीमे से कहा—
“बेटा, लोग हँसेंगे या नहीं, ये तुम तय नहीं कर सकती।
पर तुम कोशिश करोगी या नहीं, ये सिर्फ तुम तय कर सकती हो।
और सुनो,
फेल होने से इंसान छोटा नहीं होता,
कोशिश न करने से जरूर छोटा हो जाता है।”
लड़की ने धीरे-धीरे मुस्कुराते हुए पूछा—
“तो मैम, आप शादी क्यों नहीं कीं?”
प्रज्ञा ने ज़रा सा रुककर कहा—
“क्योंकि मैंने सोचा,
जब तक मुझे कोई ऐसा इंसान नहीं मिलता
जो मुझे पूरे रूप में देख सके—
मेरे दिमाग, मेरी मेहनत, मेरी थकावट,
मेरे डर, मेरा हँसना,
सबके साथ—
तब तक मैं खुद ही अपनी साथी रहूँगी।
अधूरी सिर्फ वो जिंदगी होती है
जो दूसरों के डर से जी जाए,
अपने सपनों के बिना।”
लड़की की आँखों में चमक आ गई।
और उस पल प्रज्ञा को महसूस हुआ—
उसने भले ही किसी के घर की ‘दुल्हन’ के रूप में जगह न पाई हो,
पर इन सैकड़ों बच्चों के सपनों में वो
एक मार्गदर्शक, एक दीया बन चुकी थी।
उस रात घर लौटकर
माँ ने पूछा,
“थक गई होगी?”
प्रज्ञा मुस्कुराकर बोली,
“हाँ, थक गई हूँ…
पर आज पहली बार लगा कि मेरी थकान की भी कीमत है।”
माँ ने उसके बालों को सहलाते हुए कहा,
“बेटा, शादी हो या न हो,
माँ की नज़र में बेटी कभी अधूरी नहीं होती।
समाज जो कहता है, उसे कहने दो।
हमने हमेशा तेरी आँखों में जो चमक देखी है ना,
वो किसी भी सुहाग-सिंदूर से कम नहीं है।”
प्रज्ञा की आँखें भर आईं।
उसने आकाश की ओर देखकर धीरे से सोचा—
“हाँ, शायद एक स्त्री की पूरी कहानी
सिर्फ उसकी ‘सुहागन’ पहचान से नहीं लिखी जा सकती।
उसके मन, उसकी मेहनत,
उसके निर्णय, उसकी हिम्मत,
सब मिलकर उसे पूरा बनाते हैं।”
वह मुस्कुराई,
अपनी लैपटॉप खोली,
एक नया कोर्स डिजाइन करना शुरू किया—
शीर्षक था:
“खुद पर भरोसा करना कैसे सीखें।”
क्योंकि उसने तय कर लिया था—
अब वह किसी को भी
अपने होने की कीमत
दिखावट या रिश्ते से नहीं,
अपने अस्तित्व और कर्म से ही समझाएगी।
लेखक : मुकेश पटेल