प्रारंभ में थोड़ा हिचकिचाती हुई अनुराधा जी का चेहरा शीघ्र ही आत्मविश्वास की प्रभा से दमकने लगा। उनकी भावपूर्ण भाव भंगिमाएँ एवं सधी हुई मुद्राओं ने उनके नृत्य में जैसे एक सम्मोहन सा उत्पन्न कर दिया था, जिसके प्रभाव में आकर जैसे आज पूरी प्रेमधाम सोसाइटी मुग्ध और सम्मोहित थी।
दीपावली के अवसर पर एक हफ्ते पहले ही से प्रेम धाम सोसाइटी में तैयारियां प्रारंभ हो जाती थी और दीपावली से दो-तीन दिन पहले सांस्कृतिक कार्यक्रम का भी आयोजन होता था। और आज इसी कार्यक्रम में अनुराधा जी के नृत्य की प्रस्तुति थी। आज अनुराधा जी का किसी भी मंच पर यह पहला कार्यक्रम था।
जब उनका सम्मोहक नृत्य थमा तो तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा वातावरण गूंज उठा। जब वह मंच से उतरी तो सब उन्हें घेर कर बधाइयां देने लगे, साथ ही सभी आश्चर्यचकित भी थे। सुमित्रा जी ने कहा,-” अरे हमें तो पता ही नहीं था कि आपके अंदर इतनी प्रतिभा छुपी हुई है! आप तो छुपी रुस्तम निकलीं ।
हमें तो बहुत ही प्यारा सरप्राइज मिल गया आज! अद्भुत था आपका नृत्य!” …. तो सुमित्रा जी की बहू निवेदिता ने चहक कर कहा,-” आंटी जी इतना प्यारा नृत्य मैंने सच में कभी नहीं देखा था पहले। मुझे भी आपसे सीखना है.. प्लीज प्लीज आप मुझे भी सिखा दीजिए ना…” अनुराधा जी ने मुस्कुरा कर उसका गाल थपथपा कर कहा,-” क्यों नहीं! जल्दी ही तुम भी सीख जाओगी!” इतना कह कर वह आगे बढ़ गईं।वह शीघ्र से शीघ्र अपनी बहू पल्लवी के पास पहुंचना चाहती थी।
वो अनुराधा की भीड़ को चीरती हुई अपनी बहू पल्लवी के समक्ष जा पहुंची। पल्लवी उनके चरण छूकर भावातिरेक में उनके गले से लग गई। वह बच्चों की तरह किलकारी मार कर चहकने लगी, -” वाह मां, आपने तो कमाल कर दिया! पहला ही परफॉर्मेंस इतना कमाल का था कि सबका मुंह तो खुला का खुला ही रह गया! मुझे आपसे यही आशा थी! आपने मेरा सपना सच कर दिया।”
सुमित्रा जी की आंखें नम हो आईं। पल्लवी का हाथ पकड़ कर आंखों से लगाते हुए उन्होंने भीगे स्वर में कहा,-” मैंने नहीं तुमने मेरा सपना सच कर दिया आज! मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मेरे जीवन में कभी यह दिन भी आएगा। तुमसे मिलने के बाद ही मैंने जाना कि जीवन जीना क्या होता है। तुम्हारा इतना बड़ा उपकार है मुझ पर जो पता नहीं मैं कैसे चुका पाऊंगी।”
-“कैसी बातें कर रही है मांँ! मैं आपकी बहू भी हूँ और आपकी बेटी भी! और संतान कभी भी अपने मां-बाप पर उपकार नहीं करती! ये उनका कर्तव्य होता है और मां-बाप का आशीर्वाद पाना उनका अधिकार ! अच्छा चलिए, आप बहुत थक चुकी हैं। बहुत पसीना भी आ रहा है आपको। आप यहां कुर्सी पर बैठें, मैं आपके लिए जूस लेकर आती हूं। ”
पल्लवी जूस लाने चली गई और सुमित्रा जी वहां बैठकर मंच पर चलने वाले शेष कार्यक्रमों की तरफ देखने लगीं । लेकिन उनका मन अतीत के गलियारे में भटकने लगा।
नृत्य करने का शौक तो उन्हें बचपन से ही था। उनके नृत्य देखकर लोग दांतों तले उंगली दबा लेते थे। परंतु उस समय लड़कियों का विवाह अल्पायु में ही कर दिया जाता था। और इसी प्रथा के अनुसार शीघ्र ही उनका विवाह निश्चित हो गया और देखते देखते विवाह संपन्न भी हो गया। कुल सत्रह वर्ष की ही तो थीं वह जब वह अनिकेत जी से ब्याह कर इस घर में आ गई थी।
माँ ने खोंइछे के साथ-साथ कितनी नसीहतें भी साथ बांध दी, -” घर परिवार का ध्यान रखना.. उनकी इच्छाओं और अपेक्षाओं को सदैव अपनी इच्छा और अपनी रुचियों से ऊपर रखना.. पूरे घर को एक सूत्र में बांधकर चलना.. इतना समझ ले कि लड़कियों की डोली जिस घर जाती है अर्थी भी उसी घर से निकलती है..
चाहे जो कुछ भी हो सब कुछ स्वीकार करना और उसी को अपना संसार बना कर सुखी रहना…” और वह अपने नन्हे से मन को विशाल बनाने का प्रयास करते हुए इन सभी नसीहतों को आत्मसात करके ससुराल आ गईं।बहुत ही सुखी और संपन्न परिवार था अनिकेत जी का! उनके परिवार की धाक पूरे गांव में थी।
विवाह के बाद के कुछ दिन तो रीति रिवाज में ही निकल गए और फिर सभी संबंधियों के जाने के पश्चात जीवन अपने ढर्रे पर आ गया, जहां औरतें घर और रसोई संभालती थी और पुरुष बाहर का मोर्चा! और पुरुषों का स्थान किसी भी प्रकार से ईश्वर से कम न था। शीघ्र ही वह भी इसी रंग में रंग गईं। पूरे घर में पुरुषों की सत्ता थी, वह और उनकी सासु मां बस रसोई घर और उनकी आज्ञाओं के पालन तक ही सीमित थीं।
और उस समय स्त्रियां बचपन से ही इस मानसिकता को ऐसा स्वीकार कर चुकी थीं कि अब वह सभी स्वयं भी इसी के अनुसार ढल चुकी थीं। परंतु अनुराधा जी का कोमल मन कभी-कभी विकल हो जाता था। उनका मन करता था कि वह पुनः अपने पैरों में घुंघरू बांध लें और जी भर कर नृत्य करें!
एक दिन ससुर जी और अनिकेत जी काम पर गए थे। और पड़ोस में कहीं पूजा थी तो सासु मां भी वहां चली गईं थी।
ऐसा अवसर पाकर अनुराधा जी का मन मयूर नाच उठा। उन्होंने धीरे से बक्से में से अपने घुंघरू निकले और बांधकर दर्पण के समक्ष नृत्य करने लगी। परंतु उनसे भूल यह हो गई कि मां जी के जाने के बाद वे किवाड़ की सांकले लगाना भूल गई थी। उन्हें पता ही नहीं चला कि कब अनिकेत जी भीतर आ गए जो अपने किसी आवश्यक कागज के छूट जाने के कारण उसे लेने के लिए घर वापस आए थे।
अचानक अनिकेत जी का दहाड़ता हुआ स्वर गूंजा,-” यह क्या नौटंकी है? यह सभ्य लोगों का घर है नचनियों की बस्ती नहीं!! ये तुम्हारे घर के चोंचले होंगे यहां यह सब नहीं चलेगा। खबरदार! आज के बाद मुझे कभी अगर यह सब दोबारा दिखा तुम मुझसे बुरा कोई न होगा! मुझे क्षण भर का समय नहीं लगेगा, छोड़ आऊंगा तुम्हें तुम्हारे पिता के घर, वहां नाचती रहना जीवन भर…!!!
” और रोष में अंधे अनिकेत जी ने वहां मेज पर पड़ा हुआ फूलदान उठाकर भूमि पर दे मारा। फूलदान के टुकड़े-टुकड़े हो गए और साथ ही स्तब्ध अनुराधा जी के हृदय के भी। उनकी आंखों से अविरल अश्रुप्रवाह होने लगा।
परंतु अनिकेत जी ने आंख उठाकर भी उनकी अवस्था नहीं देखी। वे आंधी की तरह आए थे और तूफ़ान की तरफ बाहर निकल गए। अनुराधा जी ने सिसकते हुए पैरों से घुंघरू उतार कर पुनः बक्से में रख दिए। और उस दिन के बाद से उन्होंने न कभी घुंघरू पहने और न ही कभी नृत्य के लिए पग उठाए।
समय अपनी गति से चलता रहा। धीरे-धीरे सासु मां और ससुर जी भी नहीं रहे और अनिकेत जी ने भी शहर जाकर नया कारोबार प्रारंभ कर लिया। और फिर वे दोनों यहां की दुनिया में रम गए। शीघ्र ही नीरज का जन्म हुआ और अनुराधा जी भी उसके पालन पोषण में व्यस्त हो गईं। अनिकेत जी का स्वभाव तो पूर्ववत ही रहा परंतु अनुराधा जी ने इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया था।
नीरज अब पढ़ लिखकर एक चिकित्सक बन चुका था और साथ ही एक बहुत ही समझदार और परिपक्व व्यक्ति भी। परंतु वैसे तो उसका स्वभाव बहुत ही मृदुल था परंतु कभी-कभी वह भी अपनी बात मनवाने के लिए बहुत हठ कर बैठता था। इसमें उसका भी दोष नहीं था। उसने बचपन से ही घर में पितृसत्तात्मक वातावरण देखा था तो यह कहीं ना कहीं उसके अवचेतन मस्तिष्क में समा गया था कि पुरुष ही परिवार का कर्ता धर्ता है और सभी कुछ उसी के अनुसार होना चाहिए। परंतु हां, वह अनिकेत जी के जैसा उग्र नहीं होता था।
अब घर में नीरज के विवाह की बातें चलने लगी थीं। परंतु इसी बीच अचानक हृदयाघात से अनिकेत जी का निधन हो गया।
जैसे तैसे नीरज ने सब कुछ संभाला। और उनके बाद उनका स्थान जैसे नीरज ने ले लिया। अनुराधा जी का जैसे पहले भी कोई अस्तित्व नहीं था और अभी भी नहीं।
एक वर्ष के पश्चात नीरज के साथ ही पढ़ने वाली पल्लवी के साथ उसी के पसंद के अनुसार उसका विवाह संपन्न हो गया। पल्लवी ने अपने मृदुल और स्नेही स्वभाव से सब का मन जीत लिया। नीरज कभी-कभी कुछ बातों को लेकर हठ कर बैठता तो पल्लवी उसे बहुत ही स्नेह और संयम से समझा कर उसका दृष्टिकोण परिवर्तित करने का प्रयास करती। पता नहीं कितना धैर्य था उस लड़की में!
एक बार दिवाली की सफाई के दौरान उसने स्टोर रूम में पड़े अनुराधा जी के पुराने बक्से को खींच निकाला। जब उसने बक्से को खोला तो उसमें अनुराधा जी की कई छिटपुट पुरानी वस्तुओं के साथ उनके घुंघरू भी रखे मिल गए और साथ में उनका एक पुराना एल्बम भी जिसमें उनके विभिन्न नृत्य की मुद्राओं में अनेक छायाचित्र थे। पल्लवी मंत्रमुग्ध सी देखती रह गई…एक से बढ़कर एक भंगिमाएं! पल्लवी ने उत्साह पूर्वक कहा,-” यह सब क्या है मां? आप नृत्य करती हैं?”
उसका स्वर सुनकर अनुराधा जी ने पलट कर देखा तो अपने चित्र और घुंघरू देखकर अनायास उनकी पलकें भीग गईं। फिर अचानक उन्होंने हड़बड़ा कर कहा,-” अरे यह सब तुम क्या लेकर बैठ गई बेटा! रख दो उन्हें वापस.. वह सब पुरानी यादें हैं!”
पल्लवी बच्चों की तरह हठ कर बैठी,-” नहीं नहीं मां.. मुझे बताइए न.. आपने नृत्य कब सीखा और फिर छोड़ क्यों दिया? मैंने तो कभी आपको नृत्य करते नहीं देखा।”
पल्लवी के स्नेहपूर्ण स्वर में पता नहीं क्या था कि अनुराधा जी ने भी भावुक होकर अपना हृदय उसके समक्ष खोल कर रख दिया। सारी बातें सुनकर पल्लवी की आंखों से आंसू बहने लगे। फिर अचानक जैसे उसने कुछ निश्चय कर लिया।वह आगे बढ़ी और अनुराधा जी से कहा, -” मांँ बांधिए ये घुंघरू और एक बार फिर से प्राण दीजिए इन्हें!”
अनुराधा जी ने हतप्रभ होकर कहा,-” कैसी बातें करती है पल्लवी! अब यह सब मुझे नहीं हो सकता। जाने दे ना! जो बीत गई सो बात गई!”
पल्लवी ने झटके से उन्हें खड़ा कर दिया और अपने हाथों से उनके पैरों में घुंघरू बांधने लगी। घुंघरू पहनते ही पता नहीं क्या हुआ.. जैसे कुछ पिघल गया उनके अंदर… वह फिर से पुरानी वाली अनुराधा बन गई। उनके पैर कांप रहे थे पर उन्होंने इतने वर्षों के बाद फिर से नृत्य किया। उनके पैर थिरक रहे थे और आंखों से आंसू बह रहे थे। जब वह थमी तो पल्लवी ने आगे बढ़कर उन्हें कस कर वक्ष से लगा लिया,-” बस माँ! अब इसी तरह आप रोज अभ्यास करेंगी।
और सपनों को जीने की कोई उम्र नहीं होती। और आप कोई पाप नहीं कर रही हैं। अपनी प्रतिभा को उड़ान देना आपका अधिकार है। और याद रखिए सोसाइटी के अगले सांस्कृतिक कार्यक्रम में आपको अपनी परफॉर्मेंस देनी है। ”
अनुराधा जी ने कुछ बोलना चाह तो पल्लवी ने उनके मुंह पर हाथ रखकर उन्हें चुप करा दिया । आज अनुराधा जी को भी अपना मन फूल की तरह हल्का लग रहा था।
अब यह प्रतिदिन का नियम हो गया था की अनुराधा जी कुछ देर अवश्य अभ्यास करतीं। धीरे-धीरे पुन: नृत्य की मुद्राओं पर उनकी पकड़ पहले की तरह सधने लगी थी।
उस दिन रविवार था। नीरज घर पर ही था। दोपहर में खा पी कर नीरज अपने कमरे में आराम करने चला गया। पल्लवी ने अनुराधा जी को अभ्यास करवाना प्रारंभ किया तो अचानक घर में कुछ गतिविधि के आभास से नीरज की आंख खुल गई। वह अनुराधा जी के कमरे तक आया और दरवाजा खोलकर जब उसने अंदर झांका तो वह वही जड़वत रह गया।
अचानक उसका स्वर विषाक्त हो गया, -” यह क्या कर रही हो मांँ! यह कौन सा भूत सवार हो गया तुम्हारे ऊपर इस उम्र में! तुमने नृत्य करना कब से शुरू कर दिया! बंद करो यह सब! इस उम्र में यह सब करना तुम्हें शोभा नहीं देता। और पल्लवी तुम.. तुम भी मांँ को समझाने के बजाय उनका साथ दे रही हो। मुझे यह सब बिल्कुल पसंद नहीं! ध्यान रखो यह!”
अनुराधा जी एकदम से थम गईं। उन्हें ऐसा लगा जैसे अनिकेत जी का रूप नीरज में जीवंत हो गया है। लेकिन वह कुछ कहती उससे पहले पल्लवी उठ खड़ी हुई। और उसने शांत किंतु दृढ़ स्वर में कहना प्रारंभ किया,-” हाँ नीरज, माँ नृत्य कर रही है। और इसमें बुरा क्या है। तुम्हें मालूम है, यह बचपन से बहुत अच्छा नृत्य करती थीं।
इन्हें अनगिनत पुरस्कार भी प्राप्त हुए थे परंतु विवाह होते ही इन सबको विराम लग गया। इन्होंने भी अपना घर परिवार संभालने में अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं की तिलांजलि दे दी। परंतु यह कौन से शास्त्र में लिखा है कि केवल स्त्री ही अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं से समझौते करे। अरे स्त्री तो इस संपूर्ण सृष्टि का आधार है।
और साथ ही इतनी धैर्यशील और सहनशील के उसने सब कुछ सह लिया। लेकिन स्त्री का भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व है, और जिसे जीवित रखने का उसे पूर्ण अधिकार भी है। स्त्री और पुरुष तो एक दूसरे के पूरक हैं इसीलिए स्त्री और पुरुष दोनों को ही एक दूसरे की भावनाओं और इच्छाओं का सम्मान करना चाहिए।
याद करो कि बाबूजी की हर इच्छा तुम्हारी हर इच्छा सबको पूरा करने का माँ ने कितना ध्यान रखा… किंतु जब उनकी इच्छाओं की बारी आई तो पुरुषोचित अहं आड़े आ गया! क्यों नीरज… ऐसा क्यों?
अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा… बदलो अपने आप को और कभी मां की इच्छाओं को, कभी जीवन संगिनी की इच्छाओं को थोड़ा सम्मान देकर देखो… उनके स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करके देखो, तुम्हें भी अच्छा लगेगा। कभी तुमने माँ को भरतनाट्यम करते देखा है? कैसा अद्भुत नृत्य करती हैं और नृत्य करते समय उनके चेहरे पर कितनी संतुष्टि और कितना आनंद रहता है।
यह तुम्हारी माँ है.. इनके लिए आवाज़ उठाना, इनका ध्यान रखना तुम्हारा कर्तव्य है, जो कि तुम्हें करना चाहिए था परंतु तुम भी अपने अहं में ही सीमित होकर रह गए तो अब मैं आ गई हूं तो मैं अपने कर्तव्य पूरे करूंगी और अपनी इस प्यारी सी माँ को इनका स्वतंत्र अस्तित्व और अधिकार दिलाऊंगी।
…. और मां आप… आप भी पहले पिता और भाई, फिर श्वसुर और पति और अब पुत्र की परछाईं तले अंधियारे में जीवन जीती रहीं। लेकिन अब और नहीं…अब आप स्वयं अपने लिए आगे बढ़कर खिड़की खोलें और उजाला पसरने दें। आप प्रतिदिन अभ्यास करेगी माँ और इस विषय में मैं कुछ नहीं सुनना चाहती और नीरज तुमसे आशा करती हूं कि मेरा सहयोग करोगे मन के सपनों को पूरा करने में… करोगे ना???”
नीरज “हां”तो नहीं बोल पाया परंतु विरोध भी नहीं कर पाया।
और उस दिन से प्रतिदिन का अभ्यास और आज सोसाइटी के मंच पर उनका प्रदर्शन! सब कुछ एक सपने के सच होने जैसा था। पल्लवी जूस लेकर आ चुकी थी। वह जूस पीने लगीं परंतु उनकी दृष्टि नीरज को ढूंढ रही थी। जब उन्हें नीरज कहीं नहीं दिखा तो उन्होंने पल्लवी से उसके विषय में पूछा। पल्लवी एक क्षण को चुप रह गई। फिर उसने धीरे से कहा, -” माँ जूस पीजिए ना फिर घर चलते हैं!”
उल्लास से दमकता अनुराधा जी का चेहरा थोड़ा मलिन हो गया। वे दोनों चुपचाप घर की ओर बढ़ चले। कॉलबेल बजाने के पश्चात भी जब दरवाजा नहीं खुला तो उनकी आंखों में आंसू आ गए । बुझे हुए मन से उन्होंने वापस कॉलबेल के स्विच पर उंगली रखी तभी अचानक नीरज ने धीरे से दरवाजा खोला। उसकी आंखें सजल थीं।
उसने द्वार से एक ओर हटकर उन्हें अंदर आने का रास्ता दे दिया। अंदर आते ही वह सुखद आश्चर्य से भर उठीं। पूरा कमरा फूलों से सजा हुआ था।और बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था “दुनिया की सबसे अच्छी माँ का नए जीवन में स्वागत!”
नीरज आकर उनसे लिपट गया, -” मुझे क्षमा कर दो मां! मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सका परंतु पल्लवी ने मेरी आंखें खोल दीं ।आज तुम्हारा नृत्य मैंने भी देखा।
आकाश में लपलपाती हुई बिजलियों सा तेज है तुम्हारे नृत्य में! सभी लोग तुम्हारी इतनी प्रशंसा कर रहे थे कि मुझे स्वयं पर अभिमान हो आया कि मैं तुम्हारा बेटा हूं! आज तुमने सोसाइटी के मंच पर नृत्य किया है माँ परंतु अभी आकाश और भी हैं। अब तुम्हारे हर सपने को पूर्ण करने का दायित्व तुम्हारे इन दोनों बच्चों पर है।”
अनुराधा जी का कंठ अवरुद्ध हो गया। वे जैसे नि:शब्द हो गईं। उन्होंने भाव विभोर होकर नीरज को कस कर अपने वक्ष से लगा लिया और दूसरा हाथ बढ़ाकर पल्लवी को भी अपनी ओर खींच लिया।
खुली हुई खिड़की से आकाश दिखाई दे रहा था जो मानो स्वयं को छूने का उन्हें स्नेहिल निमंत्रण दे रहा हो।
निभा राजीव”निर्वी”
स्वरचित और मौलिक रचना
मुंद्रा, गुजरात
#अस्तित्व