मालती तैयार होकर आईने के सामने खड़ी थी। सलीके से बंधी साड़ी और हल्के मेकअप में उसका व्यक्तित्व निखर उठा था। आज आईने में एक सफल बिज़नेस वूमेन और समाज सेविका का प्रतिबिंब था.. जिसके चेहरे पर उसकी सफलता की चमक और समाज के लिए कुछ कर पाने की तसल्ली झलक रही थी। आईना वही दिखा रहा था जो मालती आज थी।
‘आईना कभी गुज़रा वक्त नहीं बताया करता’, मालती ने सोचा और सोचते हुए अतीत की सीढ़ियां नीचे उतरती हुई पहुंच गई अपने उस समय में जब वह कपूर खानदान की इकलौती बेटी थी। घर में दादा दादी ,माता रुकमणी देवी और पिता सुदर्शन जी थे। पिता का अच्छा खासा कारोबार था। सुदर्शन जी व्यवहार में भी सुदर्शन थे इसलिए लोग लोग उनके नाम से ही उनके साथ व्यापार करने के लिए राज़ी हो जाते ।
रुकमणी देवी घरेलू महिला थी.. जिन्होंने घर परिवार को बखूबी संभाला हुआ था। उसी घर के इकलौती बेटी थी मालती.. देखने में सुंदर.. पढ़ने में अच्छी और व्यवहार में बिल्कुल पिता जैसी। पैसो का घमंड लेश मात्र भी छू नहीं नहीं पाया था उसे…पूरे घर की लाड़ली थी वह। वैसे तो कपूर परिवार आज के जमाने के साथ चलने वालों में से था और मालती को भी अपने जीवन अपने ढंग से जीने की आज़ाद दी गई थी पर दादी की कुछ बंदिशें कभी कभी मालती को गुस्सा दिला जाती थी ।
“छोरी.. यह क्या अनाप-शनाप पहन कर जा रही है कॉलेज”, दादी कहती।
“यह फैशन है दादी..तुम नहीं समझोगी.. कहो तो तुम्हारे लिए भी ला दूं”,मालती दादी को कहती हुई कॉलेज भाग जाती।
इसी तरह वक्त बीत रहा था.. मालती ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद पोस्ट ग्रेजुएशन भी करना चाहती थी पर उसकी किस्मत में शायद कुछ और ही लिखा था। सुदर्शन जी के एक व्यापारी मित्र ने अपने पुत्र सुहास के लिए उसका हाथ मांग लिया और देखते-देखते दोनों की ब्याह की बातें होने लगी।
“मुझे अभी और पढ़ना है”, मालती तुनक कर बोली थी।
“बहुत हो गई पढ़ाई लिखाई.. अब अपने घर में जाओ और अपने पिता को इस ज़िम्मेदारी से मुक्त करो “, दादी भी जैसे अड़ गई थी।
मालती ने फिर से अपनी बात रखने की कोशिश की.. पर फिर पिता ने उसे आश्वासन दिया कि वे लोग उसेे आगे पढ़ाने के लिए तैयार हैं और सुहास एक भला लड़का है। मालती पिता की बात को सुन मान गई थी और फिर कुछ दिनों बाद सुुुुहास की दुल्हन बन ससुराल की दहलीज पार कर गई थी। सुुहास सच में एक भला लड़का था और उसके ससुराल वाले भी बहुत अच्छे थेे। अपने वायदे के अनुसार उन्होंने मालती को आगे पढ़ने के लिए बोल दिया था।
मालती वहां खुश थी.. सुहास का एक बड़ा भाई भी था जयंत.. जोकि सुहास से बिल्कुल उल्टा था और उसे नशे की बुरी आदत भी थी पर.. मालती की जेठानी मीनाक्षी बहुत अच्छी थी। सुहास और मालती अपनी ज़िंदगी में खुश थे.. साथ मिलकर उन्होंने सुनहरे भविष्य के सपने देखे थे पर शायद वे सपने सपने ही रहने वाले थे।
मालती की शादी के साल भर बाद सुहास की एक एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई। उस पल सिर्फ सुहास ही नहीं बल्कि मालती भी खत्म हो गई थी। सुहास का जाना उसके लिए बहुत अप्रत्याशित सा था ..ज़िंदगी जैसे थम सी गई थी। उसके चेहरे से हंसी.. उसकी भूख और जीने की तमन्ना तो जैसे सुहास के साथ ही चली गई थी। उसके सास-ससुर बहुत प्यार से समझाते हालांकि उनका दुख भी कम नहीं था पर उसके आगे वे अपना दुख कुछ समय के लिए भूल जाते थे।
मीनाक्षी भी उसका ख्याल रखने की पूरी कोशिश करती। सब की मेहनत कुछ कुछ रंग ला रही थी। मालती अब अपने कमरे से बाहर आकर उनके साथ कभी कभी बैठ जाती। माता-पिता भी इस 1 महीने में उसे कितनी बार आकर देख गए थे। मां तो उसे साथ लेकर जाना चाहती थी पर उसकी सास ने यह कहकर उन्हें रोक दिया था कि सुहास के बाद अगर वह भी चली जाएगी तो उनका घर तो खाली हो जाएगा।
एक दिन मालती धूप में बैठी थी.. मीनाक्षी किसी काम के लिए अंदर गई थी। मालती को अपने कंधे पर किसी की छुअन का अहसास हुआ.. पीछे देखा तो उसका जेठ जयंत खड़ा था शायद.. नशे में था। मुस्कुराते हुए बोला,” कुछ चाहिए हो तो बताना”। इतने में मीनाक्षी आ गई और वो एकदम से वहां से चला गया। मालती उसकी हरकत से दंग रह गई थी उसकी आंखों में ऐसा कुछ था जिससे मालती डर गई थी संयोगवश उसी दिन मालती के पिता भी उससे मिलने आ गए।
मालती ने पिता के साथ मायके जाने की अपनी इच्छा जताई तो सास ससुर ने भी ज़्यादा विरोध नहीं किया शायद उन्होंने भी जयंत की हरकत को देख लिया था। मालती की आशा के विपरीत दादी ने उसे अपने अंक में भर लिया और उसके चेहरे को चूमते हुए बोली,” तू यहीं रह मेरी बच्ची.. हमारे बीच.. अपनों के साथ.. तू अकेली नहीं है.. हम सब है.. तेरे अपने.. तेरे साथ.. सदा के लिए”, वह शायद जान गई थी कि सुहास के बिना उसका वहां रहना कितना मुश्किल था।
रात को मां की गोद में सर रखकर मालती ने पूछा,” मैं वापिस नहीं जाना चाहती.. क्या ऐसा हो सकता है”?
“क्यों नहीं हो सकता मेरी बच्ची.. जो तेरी मर्ज़ी है वही होगा अब की बार …कोई नहीं रोकेगा तुझे”, मां का प्यार छलक उठा था।
पिता ने भी उसके ससुर से उसे भी रखने का बोला तो शायद उन्हें भी वही सही लगा इसलिए चुप रहे थे। मालती मायके तो आ गई थी पर उसने अपने को एक खोल में बंद कर रखा था.. गुमसुम सी एक जगह बैठी रहती। एक दिन उसके पिता उसे महिला आश्रम ले गए जहां समाज और अपनों की सताई हुई कितनी ही महिलाएं और लड़कियां थी। उन्हें देखकर मालती को लगा कि आज की दुनिया में कितना गम भरा है वह तो सिर्फ अपने गम में डूबी है। इन सबके आगे तो उसका गम कितना कम है क्योंकि उसके साथ उसका साथ देने के लिए उसके घर वाले तो हैं पर वे औरतें तो बिल्कुल अकेली हैं फिर भी उनमें से कईयों ने अपने आप को किसी ना किसी काम में व्यस्त कर रखा है।
मालती के पिता भी शायद उसे यहां लाकर यही समझाना चाहते थे। फिर उनकी प्रेरणा से मालती ने अपनी पढ़ाई पूरी की और पिता के कारोबार में हाथ बंटाने लगी। दादा दादी भी साथ छोड़ गए थे। उसके साथ से कारोबार और बढ़ता जा रहा था। सुहास को गए 10 वर्ष बीत चुके थे। मालती ने पूरी तरह से अपने आपको काम में झोंक रखा था.. वह साथ में महिला आश्रम भी जाती और वहां की महिलाओं की हर संभव मदद करती। उसकी मदद से कई लड़कियां आगे बढ़कर कुछ बन पाई थी।
फिर एक दिन उनके दफ्तर में काम करने वाले विवेक ने मालती के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। वह सुहास की जगह किसी को नहीं देना चाहती थी पर माता पिता के समझाने से एक बार सोचने को फिर से मजबूर हो गई थी। विवेक उसे पूरी तरह से जानता था… समझता था।मालती ने बहुत सोचने के बाद हां कर दी थी। विवेक एक भला आदमी था। उसने मालती को उसके अतीत के साथ ही स्वीकार किया था। वह हर मायने में अच्छा पति और अच्छा इंसान साबित हुआ था। मालती सुहास के माता-पिता से भी मिलने जाती रहती थी। जयंत कभी उसके बाद उसके सामने नहीं आया था।
आज मालती एक सफल बिज़नेस वूमेन थी और समाज के प्रति उसके काम की सभी सराहना करते थे। आए दिन अखबारों में उसका नाम छपता था। विवेक और मालती एक छोटा बेटा भी था जो कि अब उनकी प्यारी सी छोटी दुनिया का केंद्र बिंदु था। आज मालती के आश्रम की एक लड़की का विवाह था। कन्यादान मालती और विवेक के हाथों ही होना था।
“जल्दी करो मां देर हो जाएगी”, बेटे की आवाज़ सुन मालती वर्तमान में लौट आई थी।
आईने के सामने खड़े खड़े ही उसने अपनी गुज़री ज़िंदगी को फिर से दोहरा लिया था और आईना उसकी आज की तस्वीर अपने में समाए मुस्कुरा रहा था।
#स्वरचितएवंमौलिक
गीतू महाजन,
नई दिल्ली।