आधुनिक परिवार – कमलेश राणा

सुमन ने जब ब्याह के बाद अपने ससुराल की चौखट पर कदम रखा था, तो भीतर ही भीतर उसके मन में कई तरह की आशंकाएँ थीं। वह अपने मायके में जैसी पली-बढ़ी थी, वहाँ नियम-कायदे बहुत थे—कौन कहाँ जाएगा, कितनी देर रुकेगा, क्या पहनेगा, किससे बात करेगा, इन सब पर घर के बड़े नज़र रखते थे। इसलिए सुमन को डर था कि शादी के बाद शायद उसका दायरा और छोटा हो जाएगा। पर हुआ ठीक उल्टा।

जिस घर में उसका विवाह हुआ, वह सचमुच आधुनिक विचारों वाला परिवार था। सास, मनोरमा जी, हँसमुख थीं और व्यवहार में इतनी सरल कि सुमन को कभी “बहू” होने का बोझ महसूस ही नहीं हुआ। खाने में क्या पसंद है, किस रंग के सूट अच्छे लगते हैं, कौन-सा शैम्पू सूट करता है—मनोरमा जी ने जैसे उसकी आदतों को बिना पूछे ही पढ़ लिया था। कई बार तो सुमन कुछ कहती भी नहीं और उसके पहले ही सामान आ जाता। कभी-कभी वह मुस्कुरा कर सोचती—“यह कैसा घर है… जहाँ मुझे अपनी जरूरतें बोलनी ही नहीं पड़तीं।”

उसका पति, अर्पित, तो जैसे उसे आँखों में बसाकर रखता था। सुबह ऑफिस जाने से पहले उसके लिए चाय बनाना, लौटते समय उसके पसंदीदा गुलाब जामुन ले आना, रात को थककर भी उसके साथ बैठकर बातें करना—अर्पित का प्यार सुमन को चमत्कार जैसा लगता। वह हर छोटी-सी बात पर उसे महत्व देता।

अगर सुमन मायके जाने की बात करती, तो अर्पित खुद उसे कार से लेकर जाता। अगर कहीं रिश्तेदारी में जाना हो, तो वह सुमन के साथ ही जाता। बाहर घूमने जाएँ, फिल्म देखें, मॉल जाएँ—अर्पित हमेशा साथ रहता, जैसे उसके बिना उसका दिन पूरा न हो।

शुरुआत में सुमन को यह बहुत अच्छा लगता था। उसे लगता था—“काश हर लड़की को ऐसा पति मिले, जो इतना ख्याल रखे।” लेकिन धीरे-धीरे उसके मन के किसी कोने में एक छोटी-सी कसक जन्म लेने लगी।

वह जब भी मायके जाती, अर्पित साथ होता। सुमन अगर अपनी बहनों या सहेलियों से अकेले में हँसकर बातें करना चाहती, तो भी अर्पित वहीं आसपास रहता। वह कभी टोकता नहीं, कभी रोकता नहीं, बस रहता।

एक-दो बार सुमन ने हल्के-फुल्के अंदाज़ में कहा भी, “कभी-कभी आप मुझे अकेला भी छोड़ दिया करो… मैं माँ से, बहनों से खुलकर बातें कर लिया करूँ।”

अर्पित ने मुस्कुराकर उसे बाँहों में भर लिया, “मैं तुम्हें अकेला छोड़ ही नहीं सकता, सुमन। मेरी प्यारी बीवी के बिना मैं एक पल भी नहीं रह सकता।”

उसके शब्द इतने मीठे थे कि सुमन उस पल खुद पर नाज़ करने लगती। उसे लगता—“कितना प्यार करता है।” और सच तो यह भी था कि वह खुद भी अर्पित के बिना रहने की कल्पना नहीं कर सकती थी। उसकी दुनिया, उसकी आदतें, उसकी खुशियाँ… सबमें अर्पित शामिल हो गया था।

फिर भी मन का स्वभाव अजीब है—जब कुछ बहुत अधिक मिलने लगता है, तो इंसान उसके भीतर ही भीतर अपने लिए थोड़ा “अपना” भी माँगने लगता है। सुमन को भी कभी-कभी लगता कि यह प्यार कहीं-कहीं एक खूबसूरत-सा पिंजरा बन जाता है। सोने का पिंजरा—जिसमें सब सुविधाएँ हैं, सुरक्षा है, मगर उड़ान की आज़ादी नहीं।

सुमन जब मायके जाती तो अपनी भाभियों को पर्दे में काम करते देखती। उसके मायके में अब भी पुरानी सोच मौजूद थी—घर की बहू को बड़े-बुजुर्गों के सामने ज्यादा हँसना नहीं चाहिए, बाहर निकलना सीमित होना चाहिए, बात करते समय आँचल सिर पर हो, और हर समय “मर्यादा” का ध्यान रहे।

सुमन यह देखकर परेशान हो जाती। माँ से कहती, “माँ, अब तो बदल जाओ। अब कौन पर्दा करता है? जमाने के साथ चलने में ही समझदारी है।”

पर माँ बस एक ठंडी साँस भरकर कहती, “बेटा, सब घर तेरे ससुराल जैसे नहीं होते। यहाँ जो रीति है, वही चलती है।”

सुमन चुप हो जाती, लेकिन भीतर उसका मन खिन्न हो जाता। वह सोचती, “अगर घर बदलने में समय लगता है, तो दिल तो बदल सकता है… पर यहाँ दिल भी जैसे लोहे में ढला है।”

इन्हीं दिनों एक दिन वह मायके से लौट रही थी। रास्ते में उसने सामने एक जानी-पहचानी-सी आकृति देखी। उसने कार रुकवाई। वह उसकी बचपन की सखी थी—चंचल, बेबाक, हर बात सच-सच बोल देने वाली। उसका नाम था नेहा।

सुमन की आँखें चमक उठीं। “अरे नेहा! तू यहाँ?”

नेहा ने भी उसे देखते ही खुशी से हाथ हिलाया। “अरे सुमन! शादी के बाद तो तू जैसे उड़ ही गई। पता ही नहीं चलता कहाँ रहती है।”

दोनों ने जल्दी-जल्दी हाल-चाल पूछा। सुमन ने तुरंत कहा, “किसी दिन मेरे घर आ जा। बहुत बातें करेंगे… बचपन वाली सारी बातें याद करेंगे।”

नेहा ने हँसकर कहा, “हाँ-हाँ, क्यों नहीं। मेरा भी मन करता है। कल ही आ जाती हूँ।”

अगले दिन नेहा सच में आ गई। सुमन ने उसे बड़े प्यार से अपने कमरे में ले जाकर बिठाया। घर में सास भी थीं, पर वे अपने काम में लगी थीं। अर्पित भी ऑफिस में था। नेहा कमरे को देखकर दंग रह गई।

“वाह सुमन! बड़े ठाठ हैं तेरे तो! तभी तेरा मन मायके में नहीं लगता!” नेहा ने शरारत से कहा।

सुमन हँस पड़ी। “अरे वो बात नहीं… अर्पित मुझे इतना प्यार करते हैं कि मेरे बिना उन्हें अच्छा नहीं लगता… इसीलिए मैं ज्यादा नहीं रुकती।”

नेहा ने सुमन को ऊपर से नीचे तक देखा, फिर उसकी आँखों में झाँककर बोली, “ओह… मेरी सखी तो बहुत भोली है। मर्दों की ये लच्छेदार बातें हैं। सच तो यह है कि उन्हें आदत हो जाती है कि हर चीज़ हाथ में मिले, इसलिए वे तुम्हें अकेले जाने नहीं देते। सही कह रही हूँ न मैं? कभी-कभी ये बंधन जैसा नहीं लगता?”

नेहा के शब्द चुभे नहीं, बल्कि सुमन के मन के भीतर छुपी हुई बेचैनी को जैसे नाम मिल गया। वह कुछ पल चुप रही। फिर धीमे से बोली, “लगता तो कई बार है… क्योंकि इनके साथ होते हुए मैं किसी से खुलकर बात नहीं कर पाती। कभी-कभी मन करता है कि सहेलियों, बहनों, भाईयों, भतीजों के साथ खूब खेलूँ। जी भर के ऊधम करूँ। सहेलियों के साथ पार्क में झूला झूलने जाऊँ और खूब शोर मचाऊँ। सच में… कभी तो ये प्यार एक प्यारा पिंजरा-सा लगने लगता है। अपनी मर्जी से कुछ नहीं कर सकती…”

वह बोलती चली गई, जैसे भीतर की सारी बातें बाहर आ गई हों। और जैसे ही उसने आखिरी वाक्य कहा, दरवाज़े पर हल्की-सी आहट हुई।

अर्पित कमरे में आ गया था।

उसकी आवाज़ में शरारत और अपनापन था, “अच्छा… तो अपनी सखी से हमारी शिकायतें हो रही हैं?”

सुमन के शरीर में जैसे बिजली दौड़ गई। उसे लगा किसी ने उसे रंगे हाथ पकड़ लिया है। उसके चेहरे का रंग उड़ गया। पल भर में उसके मन में सौ बातें घूम गईं—“क्या उसने सब सुन लिया? क्या अब वह नाराज़ होगा? क्या वह सोचेंगे कि मैं उसके प्यार की कदर नहीं करती? क्या मैं उसकी नजरों में गिर गई?”

सुमन ने आँखें झुका लीं। उसे अर्पित की तरफ देखने की हिम्मत नहीं हुई। वह पछताने लगी कि क्यों उसने अपनी वाणी पर संयम नहीं रखा, क्यों अपनी सखी के सामने दिल की बात कह दी, क्यों नेहा की बातों में आ गई।

नेहा भी सकपका गई। उसे भी लगा कि शायद उसने हद पार कर दी।

लेकिन अर्पित के चेहरे पर गुस्सा नहीं था। न नाराज़गी। वह बहुत शांत था। उसने सुमन के पास आकर हल्के से कहा, “तुम मेरी नजरों में नहीं गिर सकती, सुमन… क्योंकि मैंने तुम्हें ऊँचा माना है। और जो ऊँचा होता है, उसे किसी एक बात से गिराया नहीं जा सकता।”

सुमन ने धीरे-धीरे आँखें उठाईं। उसकी पलकों पर आँसू थे। अर्पित ने उसे पानी का गिलास दिया और कहा, “सुनो… अगर तुम्हें कभी घुटन लगी हो, तो मुझे बताना चाहिए था। मुझे तुम्हें प्यार देना है, कैद नहीं करना। शायद मेरी आदत बन गई है कि मैं तुम्हारे बिना खाली हो जाता हूँ। लेकिन अगर मेरी मौजूदगी तुम्हें रोकने लगे, तो मुझे बदलना होगा।”

सुमन के आँसू बह निकले। वह बोली, “मैंने आपका प्यार कभी कम नहीं समझा… बस कभी-कभी मन करता है कि मैं भी अपनी सहेलियों के साथ… अपने लोगों के साथ… थोड़ी देर अकेले…”

अर्पित ने उसकी बात पूरी होने से पहले कहा, “ठीक है। तुम जब मायके जाओगी, तो मैं साथ आऊँगा जरूर—लेकिन तुम्हें स्पेस भी दूँगा। तुम अपनी बहनों, सहेलियों के साथ घूमो, बातें करो। और अगर तुम चाहो तो किसी दिन नेहा के साथ पार्क भी चली जाना, झूला भी झूलना… शोर भी मचाना।”

नेहा ने राहत की साँस ली। सुमन अवाक रह गई। उसे लगा उसने जिस डर की कल्पना की थी, वह डर गलत निकला। अर्पित का प्यार सच में सच्चा था—वह केवल पाने वाला नहीं, समझने वाला भी था।

उस दिन नेहा ने जाते समय सुमन के कान में धीरे से कहा, “सखी… तू सच में बहुत किस्मत वाली है। ऐसा आदमी हर किसी को नहीं मिलता, जो सुनकर भी बिगड़ता नहीं, बल्कि बदलने का सोचता है।”

सुमन ने मुस्कुराते हुए सिर हिला दिया, पर भीतर उसकी आँखें अब भी नम थीं। वह समझ गई थी कि रिश्ते सिर्फ प्यार से नहीं चलते, संवाद से चलते हैं। और प्यार अगर सच्चा हो, तो वह सामने वाले की आज़ादी से डरता नहीं—बल्कि उसे और मजबूत करता है।

उस शाम अर्पित ने सुमन को अपने पास बैठाया और हँसकर कहा, “देखो, मैं तुम्हें आँखों से गिरने नहीं दूँगा। और तुम भी मेरे प्यार को गलत मत समझना। प्यार अगर पिंजरा लगे, तो उसे खोलना चाहिए… ताकि उसमें हवा आती रहे।”

सुमन ने पहली बार महसूस किया कि उसका “मॉडर्न परिवार” सच में मॉडर्न है—कपड़ों, घूमने-फिरने या नियमों के कारण नहीं, बल्कि सोच और समझ के कारण।

और उसी दिन से सुमन ने भी तय कर लिया कि वह अपने मन की बातें दबाकर नहीं रखेगी। वह प्यार के साथ-साथ अपनी पहचान भी बनाएगी। क्योंकि सच्चा प्यार वह होता है जो अपने साथी को अपने पंख नहीं काटने देता, बल्कि उन पंखों को और मजबूत कर देता है।

मूल लेखिका : कमलेश राणा 

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