इंसानियत – डॉ. आशा

नवरात्रि के आख़िरी दिनों में मोहल्ले की गलियाँ अपने आप में एक अलग ही रंग ओढ़ लेती थीं। कहीं मंदिर से घंटियों की मधुर आवाज़ आती, कहीं लाउडस्पीकर पर “जय अम्बे गौरी…” गूंजता, और कहीं घरों के आँगन में रंगोली के बीच दिए टिमटिमाते दिखते। दुर्गा नवमी का दिन था—वही दिन जब हर घर में कन्या-पूजन का उत्साह चरम पर होता।

आज शारदा नगर की गली नंबर चार में सबसे बड़ी तैयारी शर्मा जी के घर में थी। उनके आँगन में शामियाना लगा दिया गया था, सफेद चादरें बिछाई गई थीं, और एक तरफ माता दुर्गा की प्रतिमा के आगे धूप-दीप जल रहे थे। घर की महिलाएँ लाल-पीली साड़ियों में सज-धज कर पूजा की थालियाँ संभाल रही थीं। पकवानों की खुशबू हवा में घुली हुई थी—हलवा, काले चने, पूड़ियाँ, खीर, और तरह-तरह की मिठाइयाँ।

पूजा के बाद मोहल्ले की ही पाँच से दस साल की बच्चियों को बुलाया गया। कोई झिलमिल फ्रॉक में थी, किसी ने लहंगा-चोली पहना था, कोई बालों में रिबन लगाकर आई थी, कोई माथे पर छोटा-सा बिंदी लगाकर। सबको पंक्ति में बैठाया गया। एक-एक कर उनके पैर धोए गए, तिलक लगाया गया, लाल चुनरी ओढ़ाई गई, और उनके हाथों में थोड़ा-सा प्रसाद भी रखा गया। महिलाएँ उन्हें “कन्या रूप” मानकर प्रणाम कर रही थीं, मानो साक्षात देवी बैठी हों।

उसी भीड़-भाड़, शोर-शराबे, और उत्सव के बीच गली के किनारे एक छोटी-सी बच्ची चुपचाप खड़ी थी। उसका नाम था गुड़िया। उम्र कोई सात-आठ साल। उसके कपड़े मैले-कुचैले थे—एक पुरानी सी नीली फ्रॉक, जिसकी सिलाई कई जगह से उधड़ी थी। फ्रॉक पर धूल और पुराने दागों के निशान थे। बाल बिखरे हुए थे, जैसे कंघी का चेहरा उसने कई दिनों से नहीं देखा हो।

गुड़िया की आँखें बड़ी थीं—और उन आँखों में भूख भी थी, उत्सुकता भी, और एक मासूम-सी चाहत भी। वह कुछ गज दूर खड़ी, तरसती निगाहों से सब देख रही थी।

वह देख रही थी कि कैसे बच्चियों के पाँव धोए जा रहे हैं, कैसे उन्हें प्रेम से खिलाया जा रहा है, कैसे लोग “देवी” कहकर प्रणाम कर रहे हैं। उसकी नज़रें बार-बार परोसने वाले बर्तनों पर जातीं, फिर उन पूड़ियों के ढेर पर, फिर गरम हलवे के भगोने पर। पकवानों की खुशबू उसकी नाक में भरती तो उसका पेट जैसे अपने आप सिकुड़ जाता।

गुड़िया की माँ, कमला, सड़क के उस पार बैठी थी। हाथ में भीख का कटोरा था। वह वहीं बैठकर आने-जाने वालों से कुछ पैसे माँगती, ताकि शाम तक बेटी के लिए दो रोटी का इंतजाम हो जाए। कमला जानती थी कि ऐसे आयोजनों में गरीबों को दूर रखा जाता है। वह गुड़िया को भी बार-बार समझाती थी, “बिटिया, उधर मत जाना… लोग डाँटेंगे… हाथ पकड़कर भगा देंगे।”

लेकिन बच्चे का मन कहाँ तर्क समझता है? भूख जब आँखों में उतर जाए, तो सबसे बड़ा आकर्षण वही होता है जो पेट भर सके।

जैसे ही भोजन परोसना शुरू हुआ, गुड़िया से रहा नहीं गया। उसने एक कदम बढ़ाया, फिर दूसरा। धीरे-धीरे वह शामियाने के पास पहुँच गई। वह जानती थी कि कोई देख न ले, इसलिए वह किनारे से, पर्दे के पीछे से सरकती हुई अंदर घुस आई।

वहाँ पंक्ति में बैठी बच्चियों के बीच एक जगह खाली थी। गुड़िया ने जैसे किसी अपराधी की तरह इधर-उधर देखा, फिर जल्दी से उस खाली जगह पर जा बैठी। उसने सिर थोड़ा झुका लिया, जैसे वह भी उन्हीं में से एक हो।

कुछ पल के लिए उसे लगा—वह भी “कन्या” है, उसे भी प्रसाद मिलेगा, उसे भी कोई प्यार से “देवी” कहेगा।

परोसने वाला आदमी—नाम था राकेश—पंक्ति में आगे बढ़ रहा था। उसके हाथ में पूड़ियों की टोकरी थी। वह हर थाली में दो-दो पूड़ियाँ डालता जा रहा था। कुछ बच्चियाँ खुश होकर मुस्कुरा रही थीं, कुछ अपनी माँ की तरफ देखकर हँस देतीं।

जब राकेश गुड़िया तक पहुँचा, तो पहले उसने थाली नहीं देखी—उसकी नज़र सीधे गुड़िया के कपड़ों पर चली गई। उसके चेहरे पर एक पल को जैसे घृणा-सी उभरी।

उसने पूड़ियाँ डालने के बजाय टोकरी रोक दी। आवाज़ थोड़ी ऊँची करके बोला—
“ए… तू किसकी बेटी है?”

गुड़िया चौंक गई। उसके हाथ थाली पर टिके थे। वह डरी हुई आँखों से राकेश को देखने लगी। उसके गले में आवाज़ अटक गई। लेकिन फिर उसने हिम्मत करके अपना सिर उठाया।

उसने मासूम निगाहों से परोसने वाले को देखा, और फिर सड़क के उस पार बैठी अपनी माँ की ओर उंगली से इशारा किया।
“उसकी…” उसने धीमे स्वर में कहा।

इतना सुनना था कि राकेश का चेहरा और कठोर हो गया। उसे जैसे यह स्वीकार नहीं था कि भीख माँगने वाली की बेटी “कन्या-पूजन” की पंक्ति में बैठ सके।

उसने गुड़िया की दुबली-सी बाँह पकड़ ली—इतनी जोर से कि गुड़िया की आँखें भर आईं।
“चल जा!” उसने झिड़ककर कहा। “अपनी माँ के पास जाकर बैठ! बाद में मिलेगा।”
फिर उसने आसपास मौजूद लोगों को दिखाने के लिए और ऊँचा बोल दिया—
“यहाँ अभी कन्या-पूजन चल रहा है!”

गुड़िया को जैसे किसी ने सबके सामने बेइज्जत कर दिया। उसकी बाँह में दर्द हुआ, और उससे ज्यादा दर्द उसके मन में। वह धीरे से खड़ी हुई, लेकिन आँसू उसके गालों पर उतर चुके थे।

कुछ महिलाएँ यह सब देखकर भी चुप रहीं। कुछ ने नज़रें फेर लीं, जैसे उन्हें कुछ दिखा ही नहीं। किसी ने दबी आवाज़ में कहा, “अरे ये कहाँ से आ गई?”
किसी ने कहा, “होगी किसी भिखारिन की बेटी…”

लेकिन पंक्ति में बैठी कुछ बच्चियाँ गुड़िया की तरफ देखकर सहम गईं। उन्हें समझ नहीं आया कि जो लड़की उन्हीं की तरह बच्ची है, उसे “कन्या” नहीं माना जा रहा।

गुड़िया बाहर निकली तो उसका चेहरा लाल था। वह सीधे सड़क पार कर अपनी माँ के पास पहुँची। कमला ने बेटी के आँसू देखे तो उसका दिल बैठ गया।

“क्या हुआ बिटिया?” कमला ने घबराकर पूछा।
गुड़िया ने सिसकते हुए कहा, “माँ… उन्होंने कहा… तू कन्या नहीं है… मैं गंदी हूँ…”

कमला का कलेजा फट गया। वह बेटी को सीने से लगा लेती है। लेकिन अपनी लाचारी पर उसे गुस्सा भी आता है, और शर्म भी। उसने बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “नहीं बिटिया… तू देवी है… तू मेरी देवी है… बस लोग… लोग समझते नहीं।”

कमला की आँखों में आँसू आ गए। पर वह रो नहीं सकती थी। क्योंकि रोने से पेट नहीं भरता।

उधर शामियाने के भीतर कन्या-पूजन जारी था। लोग पैर धो रहे थे, तिलक कर रहे थे, पूजा के मंत्र बोल रहे थे। लेकिन उस पूजा में एक बात छूट गई थी—इंसानियत।

कुछ देर बाद घर की मालकिन, जो सबसे अधिक व्यस्त थी, अचानक बाहर आई। उसका नाम था सुशीला। उसे किसी पड़ोसन ने धीमे से बताया, “अरे सुशीला, एक गरीब बच्ची को अभी भगा दिया… सबके सामने…”

सुशीला के चेहरे पर क्षण भर के लिए असहजता आई। वह खुद भी माँ थी। उसे अपने बच्चों का चेहरा याद आया। उसका मन भीतर से हिल गया। वह बाहर की तरफ बढ़ी।

उसकी नज़र सड़क पार बैठी कमला और गुड़िया पर पड़ी। गुड़िया सिर झुकाए बैठी थी, भूख और अपमान दोनों से चुप। कमला बेटी को बहलाने की कोशिश कर रही थी।

सुशीला के कदम अपने आप तेज हो गए। वह उनके पास पहुँची।
“बहन…” उसने धीरे से कहा। “बच्ची… अंदर आ गई थी?”

कमला ने पहले तो डरकर सिर झुका लिया। “जी… बच्ची भूखी थी… गलती हो गई…”

सुशीला की आँखें नम हो गईं। उसने गुड़िया के चेहरे पर लगे आँसू देखे। फिर उसने झट से अपने दुपट्टे से गुड़िया के आँसू पोंछे और कहा, “गलती बच्ची की नहीं, हमारी है।”

कमला चौंक गई।
सुशीला ने गुड़िया का हाथ पकड़ लिया, “चल बिटिया… अंदर चल। तू भी कन्या है। तुझे कोई नहीं रोकेगा।”

कमला घबरा गई, “मालकिन… लोग…”
सुशीला ने दृढ़ स्वर में कहा, “लोग क्या कहेंगे? माँ दुर्गा को तो हम कन्या में पूजते हैं… और कन्या को हम कपड़ों से तौलेंगे? यही धर्म है?”

इतना कहकर सुशीला गुड़िया को लेकर अंदर आई।

लोगों की नजरें उठीं। वही राकेश, जिसने उसे बाहर निकाला था, एकदम चुप हो गया।
सुशीला ने पंक्ति के पास जाकर सबके सामने कहा, “यह बच्ची भी कन्या है। इसे भूख लगी थी, इसलिए आ गई। इसे बाहर निकालना गलत था। पूजा का मतलब दिखावा नहीं, करुणा है।”

कुछ महिलाएँ शर्मिंदा हो गईं। कुछ ने सिर झुका लिया। कुछ ने दबी आवाज़ में कहा, “हाँ, बात तो सही है…”

सुशीला ने गुड़िया के हाथ धुलवाए, उसके माथे पर तिलक लगाया, और उसके लिए एक नई थाली लगवाई।
गुड़िया की आँखें अब भी नम थीं, पर उनमें एक चमक लौट आई। वह धीरे-धीरे पूड़ी तोड़कर खाने लगी। जैसे हर निवाला उसके भीतर सिर्फ भूख नहीं मिटा रहा था, बल्कि उसका आत्मसम्मान भी लौटा रहा था।

खाने के बाद सुशीला ने गुड़िया को एक छोटी-सी चुनरी ओढ़ाई। फिर घर के अंदर जाकर अपने बच्चे के कपड़े निकाले—एक साफ फ्रॉक—और कमला को देते हुए बोली, “बहन, इसे रख लो। बच्ची को पहनाना। और… अगर कभी जरूरत हो, तो मेरे घर आ जाना।”

कमला की आँखों से आँसू बह निकले। वह हाथ जोड़कर बोली, “माई… आज आपने मेरी बेटी को देवी बना दिया।”
सुशीला ने धीरे से कहा, “देवी तो वो पहले से थी… बस हमने आज पहचान लिया।”

उस दिन शामियाने के नीचे जितनी पूजा हुई, उससे ज्यादा पूजा उस क्षण हुई जब एक भूखी बच्ची को कपड़ों के आधार पर नहीं, इंसानियत के आधार पर अपनाया गया।

और मोहल्ले के कई लोगों के भीतर भी कुछ बदल गया। अगले दिन किसी ने कमला के लिए काम खोजने की कोशिश की, किसी ने उसे राशन दिलवाया, और सुशीला ने पास की सोसायटी में उसकी साफ-सफाई की नौकरी भी लगवा दी। गुड़िया को स्कूल में दाखिला दिलवाने के लिए भी बातें शुरू हुईं।

कन्या-पूजन का असली अर्थ केवल पैर धोना या तिलक लगाना नहीं था। असली अर्थ था—हर बच्ची को उसी सम्मान से देखना, चाहे उसके कपड़े साफ हों या मैले।

क्योंकि देवी कपड़ों में नहीं होती… देवी तो उस मासूम चेहरे में होती है, जो भूख और अपमान सहकर भी मुस्कुराने का साहस रखता है।

मूल लेखिका 

डॉ. आशा

वर्धा, महाराष्ट्र✍️✍️✍️

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