असमर्थ नहीं हूं मैं – मंजू ओमर 

रुक्मणि जी, रूक्मिणी जी, हां कहां खोई हुई हो आप कब से आवाज दे रही हूं सुन ही नहीं रही है। हां बेटा वो बस ऐसे ही ,बोलो क्या बात है,वो गोविंद आया है नये स्वेटरों का आर्डर देने और पिछले पैसे देने आफिस में बैठा है । अच्छा अच्छा आ रही हूं मैं, इतना कहकर रूक्मिणी जी आफिस की ओर चल दी। वहां गोविंद बैठा हुआ था रूक्मिणी जी के इंतजार में। रूक्मिणी बहन जी ये आपका अगला आर्डर है और ये आपके पिछले आर्डर के पैसे। बहुत बहुत धन्यवाद बेटा , धन्यवाद कैसा ये तो आपके हुनर का और आपकी  मेहनत का पैसा है। हमें तो बस दुकानों में सप्लाई करने को माल चाहिए होता है। रूक्मिणी जी पैसा और आर्डर लेकर कमरे में आ गई।और पैसे और आर्डर सिरहाने रखकर लेट गई। लेटते ही वो अपने अतीत के गलियारे में चली गई।

                कितनी असहाय , लाचार और बेचारी हो गई थी मैं । यही सब सम्बोधन तो सही बैठते थे मुझपर। किसी लायक नहीं रह गई थी मैं।बेटों बहुओं पर एक बोझ बन कर रह गई थी मैं। मेरे अंदर तो इतनी भी ताकत नहीं थी कि जो लोग मेरे आत्मसम्मान को चोट पहुंचा रहे थे ,या जो लोग मुझे असहाय और लाचार समझ रहे थे उनको जवाब दे सकूं । लेकिन जो कुछ भी मेरे साथ हुआ शायद ठीक ही हुआ। मेरी लाचारी और असहायता ने मुझे यहां वृद्धाश्रम की चौखट पर पहुंचाया।और यही पर मेरी एक नई पहचान बनी। नहीं तो अपने दोनों बेटों और बहुओं के ताने सुन सुन कर तो शायद मैं एक दिन आत्महत्या कर लेती या किसी रेलगाड़ी के नीचे कटकर मर जाती ।

            रूक्मिणी एक जुझारू किस्म की महिला थी। बहुत मेहनती और गुणों की खान,घर के सभी कार्यों में निपुण।सिलाई,सुनाई , कढ़ाई और घर के सारे काम जो पहले के समय की महिलाएं करती थी। लेकिन इन सब कामों में कोई कोई महिला बहुत निपुण होती थी।बुनाई करने में इसी तरह रूक्मिणी बहुत निपुण थीं ।16 साल की उम्र में श्याम लाल जी के साथ ब्याह दी गई। श्याम लाल जी एक गार्ड की नौकरी करते थे। रूक्मिणी के ससुराल में सास और एक बड़ी ननद थी । नन्द की शादी पहले ही हो गई थी। श्याम लाल के पिता जी नहीं थे। पैसे की इन्कम कम थी तो रूक्मिणी बहुत कम पैसों में घर चलाती थी। शादी के कुछ समय बाद ही रूक्मिणी की गोद भर गई और नौ महीने बाद एक बेटे को जन्म दिया। छोटे बच्चे के लिए रूक्मिणी छोटे छोटे स्वेटर अपने हाथों से बनाती थी। ऐसे ही एक दिन पड़ोस की कमला आंटी रूक्मिणी की सास से मिलने आईं तो देखा धूप में कुछ स्वेटर और मोजे टोपे सूख रहे थे जो बड़े प्यारे थे। उन्होंने रूक्मिणी से पूछा कि तुमने बनाए हैं तो रूक्मिणी ने कहा हां , बहुत सुंदर है ।वो मेरी बहू के भी बाल बच्चे होने को है तो क्या तुम उसके लिए भी बना दोगी , रूक्मिणी ने हामी भर दी।

               धीरे धीरे रूक्मिणी के स्वेटरों की चर्चा पूरे मुहल्ले में हो गई। पहले इस तरह के स्वेटर बाजार में नहीं मिलते थे।लोग बच्चों के स्वेटर घर में ही बनाया करते थे। अब तो अक्सर ही घर में कोई ना कोई आ जाता था स्वेटर बनवाने के लिए। एक दिन ऐसे ही  रुक्मणी ने सोचा क्यों नहीं ऐसे स्वेटर बनाकर दुकानों  पर दिए जाएं जिससे कुछ पैसों की भी आमदनी हो  जाया करेगी तो समय निकालकर रुक्मणी ने स्वेटर बनाकर बेचना शुरू कर दिया और बहुत तो नहीं लेकिन स्वेटर धीरे-धीरे बिकने लगे  और धीरे-धीरे रुक्मणी के पास स्वेटर के ऑर्डर आने लगे ।इसी बीच रुक्मणी ने  दूसरी बार भी मां बनी और एक बेटे को फिर से जन्म दिया।

           बच्चे धीरे-धीरे बड़े हो रहे थे  और रुक्मणी बहुत किफायत से घर चलाती थी।समय निकालकर स्वेटर भी बनाती थी। इस बीच  सास भी परलोकवासी हो गई। और श्यामलाल भी अस्थमा की चपेट में आ गया इलाज ना होने के कारण श्यामलाल भी कुछ समय बाद भगवान को प्यारे  हो गए।दोनों बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ रहे थे।बड़ा वाला बेटा अजय इंटर करके बीए करने के बाद में  रेलवे में नौकरी करने लगा। छोटा बेटा विजय किसी प्राइवेट फैक्ट्री में काम करने लगा सरकारी नौकरी उसकी नहीं लग पाई।

        बड़े बेटे की शादी रिश्तेदारी में हो गई थी अब रुक्मणी जी ने स्वेटर बनाना कम कर दिया था कम क्या  खत्म सा ही कर दिया था ,क्योंकि अब उनको आंखोंकी थोड़ी  परेशानी हो गई थी बेटा भी नौकरी करने लगा था तो इतनी जरूरत नहीं समझ में आ रही थी । छोटे बेटे विजय ने अपनी पसंदकी  लड़की से शादी कर ली थी।बहूओं के आते ही घर का माहौल बदल गया, रुक्मणी की इज्जत कम होने लगी छोटी बहू लड़ाई झगड़ा करने लगी घर से अलग रहने को विजय पर दबाव डालने लगी। छोटी बहू के पिताजी ने विजय की नौकरी लगवा दी और विजय वही पत्नी के मायके के पास में ही किराए का मकान लेकर रहने लगा था।

         इधर अजय के एक बेटा हो गया था रुक्मणी दिनभर बच्चे को संभालती और घर के काम भी करती उस पर भी  बहू दिन भर ताने मारती की दिन भर बैठकर खाती रहती हैं रुक्मणी सब सुनती र हती थी लेकिन लेकिन बोलती कुछ भी नहीं थी, आखिर बुढ़ापे में कहां जाएगी और कोई सहारा भी तो नहीं था  विजय तो कभी भी  मां को पूछता ही नहीं था।

           उम्र के हिसाब से अब रुक्मणी भी बीमार रहने लगी उसकी हर समय खांसी आती थी। लेकिन कोई इलाज नहीं करवाता था ।घर में उससे कोई बातचीत नहीं करता था। अब तो बहू अपने बच्चों को भी उसके पास नहीं आने देती थी की खांसी लग जाएगी। अब बड़ी बहू  अजय से कहने लगी कि हम ही  क्यों रखें अम्मा को छोटा भी तो है वह क्यों नहीं ले जाता अपने पास ।अजय ने जब  छोटे-से कहा तो कहने लगा वाह  भैया अम्मा का मकान तो तुम हड़पे  बैठे हो ,मैं क्यों रखूं मेरी तो इतनी कमाई भी नहीं है कि मैं मां का खर्च उठा सकूं तुम ही रखो मैं नहीं रखूंगा अम्मा को लेकर दोनों भाइयों  और बहू में खूब तू तू मैं मैं होने लगी।

            एक दिन छोटे विजय को घर बुलाया गया कि कोई फैसला लिया जाए अम्मा का क्या करना है। दोनों एक दूसरे पर अम्मा को रखने का बोझा डाल रहे थे।अजय कह रहा था मैं थक गया हूं अम्मा का बोझा उठाते उठाते विजय अब तुम ले जाओ। लेकिन विजय तैयार नहीं था  कह रहा था हमारे पास अक्सर पत्नी की मां आकर रहती है मेरे पास जगह नहीं है ।और अम्मा अभी अच्छी खासी है न जाने कितना जीना है अभी उनको । भइया मेरे दिमाग में एक ख्याल आया है अम्मा को न तुम रखो न मैं रखूं उनको किसी वृद्धाश्रम में क्यों नहीं छोड़ देते । अम्मा चुपचाप बैठी सुन‌  रही थी कि ये औलाद है जिसको अपना खून पीला कर बड़ा किया था। रूक्मिणी आंखों में आसूं भर दोनों बेटों का फरमान सुन रही थी। कोई विरोध नहीं किया । कितना असहाय और असमर्थ समझ रही थी खुद को। चुपचाप बेटों का फैसला मान लिया और आ गई वृद्धाश्रम। खाली हाथ ,और खाली मन लेकर चुपचाप वृद्धाश्रम में बैठी रहती किसी से कुछ बातचीत न करती ।

             वृद्धाश्रम का संचालन करने को वहां करीब तीस पैंतीस साल की एक युवती मेधा नियुक्त थी । एक दिन वो किसी छोटे बच्चे का स्वेटर बना रही थी । उसमें आगे कैसे करना है किसी से बात करके पूछ रही थी तभी रूक्मिणी वहां से निकली और उन्होंने मैधा को बताया कि इसको ऐसे बनाना है ।मेधा बहुत आश्चर्य चकित हुई कि आंटी आपको आता है क्या स्वेटर बनाना, हां मुझे आता है मैं बाज़ार के लिए स्वेटर बनाया करती थी लेकिन अब सब छोड़ दिया है आंखों से कम दीखता है कोई चश्मा नहीं बनवाया।आज रूक्मिणी जी को बात करते देखकर सभी उनका मुंह देख रहे थे क्योंकि वो किसी से बात नहीं करती थी। आंटी आप फिर से स्वेटर बुनना शुरू करिए मैं उसे बाजार में बिकवाऊगीं। रूक्मिणी जी में आए एक नया जोश का आगाज हुआ।मेधा ने कुछ उन और सलाइयां लाकर रूक्मिणी जी को दिए और उनका आंख टैस्ट कराकर अच्छा चश्मा बनवाया।अब रूक्मिणी जी का समय व्यतीत होने लगा और खुश भी रहने लगी ।उनको स्वेटर बनाते देखकर वहां रहने वाली और महिलाओं ने भी इच्छा जाहिर की बनाने की । क्योंकि उस दौर में सभी को आता था स्वेटर बुनना। रूक्मिणी ने कहा तुम सब भी बनाओ जो गलती होगी वो मैं ठीक करूंगी।और इस तरह वहां धीरे धीरे बच्चों के स्वेटर तैयार होने लगे।

                 मेधा बाजार में दुकानों पर उनको देने लगी । फिर एक एजेंट नियुक्त किया जब कुछ स्वेटर बन जाते तो वो ले जाता और आगे का आर्डर दे जाता। रूक्मिणी के पास अब अपने कुछ पैसे होने लगे और जो भी मदद करता उसको भी पैसे मिलते।इस बीच रूक्मिणी के पास दोनों बहूं बेटों में से कोई भी मिलने नहीं आया।एक दिन छोटी बहू अपने बच्चे के लिए दुकान से स्वेटर खरीद रही थी तो सुंदर स्वेटर देखकर दुकानदार से पूछा कि किसने बनाया है तो दुकानदार ने बताया कि वृद्धाश्रम में कोई रूक्मिणी जी है वहीं बनाती है स्वेटर।ये बात जब अजय और विजय को पता लगी तो वो सच्चाई पता करने वृद्धाश्रम गए । आफिस में जाकर अजय विजय ने कहा रूक्मिणी अम्मा से मिलना है ,आप लोग कौन ,हम उनके बेटे हैं । रूक्मिणी के पास खबर पहुंची कि उनके बेटे आए हैं मिलने तो रूक्मिणी जी ने मना कर दिया मेरे कोई बेटे नहीं है मैं किसी से मिलना नहीं चाहती ।जाओ कह दो बेटों से , अब मैं किसी की मोहताज नहीं हू , नहीं अब मैं असमर्थ हूं । समर्थ हूं अपनी बची-खुची जिंदगी मैं अब खुद से खर्च चलाकर कर सकती हूं मुझे किसी की जरूरत नहीं है ‌दोनो बेटे अपना सा मुंह लेकर वापस आ गए।

          दोस्तों किसी के स्वाभिमान को इतनी भी ज्यादा चोट न पहुंचाए कि वो सभी अपनों से मुंह मोड़ ले।ऐसी स्थिति में आप खुद को असमर्थ न समझे । ईश्वर ने सभी को कुछ न कुछ हूनर तो देता ही है ।उसका सदुपयोग करें और समझदारी से जिंदगी के आखिरी पड़ाव को पूरा करें।

मंजू ओमर 

झांसी उत्तर प्रदेश 

24 दिसंबर 

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