मिनी ने जैसे ही स्कूल का बस्ता उठाया । मिनी की रमिया ताई बोल उठी। मिनी अब तुम्हें स्कूल जाने की क्या जरूरत है। सातवीं तक पढ़ लिया,नाम और पत्र लिखना आ गया । अब बहुत हुआ। वैसे भी तेरे ताऊ जी घर के इतने सदस्यों के बोझ अकेले कैसे सहेंगे।
अपनी ताई जी की ऐसी कड़वी बात सुनकर मासूम मिनी को कुछ समझ नहीं आया । वो उदास हो गई और चुपचाप अपने कमरे में आकर बिस्तर पर लेट गई और रोने लगी। रुक्मिणी जैसे ही काम निपटा के कमरे में आई तो अपनी बेटी मिनी को बिस्तर पर रोते देख आश्चर्य चकित हो गई क्योंकि उसने तो तैयार करके मिनी को स्कूल भेज दिया था फिर मिनी बिस्तर पर कैसे।
अचानक रुक्मिणी को बुरे बुरे ख्याल आने लगे। उसने तुरंत मिनी को सोते से उठाया और पूछने लगी। मिनी तु तो स्कूल चली गई थी, फिर ऐसी क्या बात हो गई और तू कब आई । मुझे क्यों नहीं बोली।
मिनी अपनी मां रुक्मिणी की बात सुनकर रोते हुए कहने लगी। मां अब मैं स्कूल क्यों नहीं जा सकती । ताई जी ने मुझे स्कूल जाने से क्यों रोक दिया। मां ये बोझ क्या होता है । पिंटू भैया और सोनू तो स्कूल चले गए। उन्हें तो ताई जी ने नहीं रोका। मां बताओ ना मुझे ।
क्या मैं अब कभी स्कूल नहीं जा सकूंगी। मां बाबूजी इतनी जल्दी क्यों और कहां चले गए। वो तो मुझे कहते थे । बिटिया तुझे बड़ी होकर एक नेक ईमानदार अफसर बनना है । सबका भला करना है, सबका सहारा बनना है। मगर अब ये क्या हो गया मां। मैं कैसे अफसर बनूंगी।
अपनी बिटिया की ऐसी मासूम बातें सुनकर रुक्मणी का दिल बैठ गया। वह उसे तुरंत समझाते हुए कहने लगी। नहीं बिटिया तु स्कूल जरूर जाएगी, अफसर भी बनेगी। अभी इतनी असहाय भी नहीं हूं मैं।
तुम्हारी जिंदगी संवारने के लिए मैं आज ही घर का काम निपटा के ठकुराइन के घर जाऊंगी। उसके बाद ही मैं तुम्हारी ताई जी से बात करूंगी । तुम बिल्कुल निराश ना होना। मिनी ईश्वर ने तुम्हारे बाबूजी को उतनी ही सांसे यहां जीने के लिए दी थी खैर अब तुम्हारे बाबूजी नहीं है, तो क्या हुआ,मैं तो हूं ना मेरी लाडो कहते हुए रुक्मणी ने मिनी को जोर से अपने कलेजे से लगा लिया।
कुछ देर बाद रुक्मणी घर के छोटे-मोटे काम निपटाकर ठकुराइन के यहां चल पड़ी। वहां सारी बातचीत करके जैसे ही रुक्मणी ने घर में कदम रखा। पार्वती जी कड़क आवाज में बोल पड़ी। कहां चली गई थी।
अभी मेरे बेटे को गए हुए एक महीना भी नहीं हुआ, और तु गांव भर में घूम आई। कल को चार लोग क्या कहेंगे। कुछ तो हया होनी चाहिए कहकर पार्वती जी रुक्मिणी को गुस्से से देखने लगी ।
पार्वती जी के चुप होते ही जेठानी रमिया भी कहने लगी। और नहीं तो क्या देवर जी को अभी दिन ही कितने हुए हैं, कम से कम 6 महीने तो बैठ जाती।
जेठानी रमिया और कुछ कहती मगर इसके पहले ही रुक्मणी दुखी मन से बोल उठी। गांव के उन रीति रिवाजों की बेड़ियों का मैं क्या करूं जो हमारा परिवार, हमारा समाज, हमारे अपने, पैरों में बांधने को मजबूर भी करते हैं और वही तोड़ने को भी मजबूर करते हैं।
दीदी आपके देवर के जाने का आपको कितना दुख है। यह तो मैं नहीं जानती मगर इतना जरूर जान गई हूं। आपके देवर के जाते ही आपने उनकी बेटी मिनी के स्कूल जाने पर रोक लगा दी। दीदी जीवनसाथी से बिछड़ने का दुख क्या होता है। यह आप समझ ही नहीं पाई।
अरे दीदी सच कहूं तो सिर्फ कहने भर से अपने “अपने” नहीं होते बल्कि एक दूसरे के दुख दर्द को समझना, उनकी भावनाओं की कदर करना ही होता है ।
आपसे तो बेहतर वो ठकुराइन भली, जो मेरे कहते ही मिनी की स्कूल की फीस देने के लिए तैयार हो गई मगर मेरा भी अपना स्वाभिमान है, इसीलिए मैं बदले में उनके यहां उनकी रसोई में जो मुझसे हो पाएगा। मैं मदद कर दूंगी। और हां कल से मिनी स्कूल जाएगी क्योंकि अब उसके पिता नहीं तो क्या हुआ उसकी मां सही।
रुक्मिणी की बात सुनकर पार्वती जी बोल उठी। अरे रुक्मिणी ये तूने क्या किया।अब इस बुढ़िया को यही दिन देखने रह गए थे।
अरे मिनी स्कूल नहीं जाएगी तो कौन सा पहाड़ टूट जाएगा। बेटी है,ऐसे भी इसे ब्याह कर दूसरे घर जाना है।
हमने कौन सी पढ़ाई की थी। मगर घर गृहस्थी तो अच्छे से चला रहे हैं ना ।अपनी सासू मां के मुंह से ऐसी रूखी बातें सुनकर रुक्मणी के सब्र का बांध टूट गया और फिर वो रोते हुए बोल उठी ।
मां जी आप भी मेरे दर्द को नहीं समझ पाई। आपने अपना बेटा खोया है तो मैं ने भी अपना पति खोया है। मिनी के बाबूजी की बहुत इच्छा थी कि मिनी बड़ी होकर ईमानदार अफसर बने। मां जी पुराने जमाने में सरस्वती का महत्व इतना नहीं जानते थे मगर अब तो हमारे देश की सरकार भी गांव गांव में साक्षरता को लेकर जागरुक अभियान चला रही है ।
आप खुद एक मां होकर फिर ऐसा क्यों कह रही है। मां जी अब जितनी मेहनत मुझे करनी पड़े। मैं करूंगी मगर मैं मिनी को अफसर बनाकर रहूंगी। अब इतनी भी असहाय नहीं हूं मैं। भले आप इसमें मेरा साथ दे या ना दे कहते हुए रुक्मणी मिनी का हाथ पकड़ कर बोल उठी।
चल मिनी आज के बाद मैं तुझे खुद तुम्हारे बाबूजी के सपने को पूरा करने के लिए तुम्हें स्कूल छोड़ कर आऊंगी कहते हुए रुक्मणी अपने कमरे में जाने लगी। रुक्मणी की बात सुनकर आज पहली बार पार्वती जी को बहुत पश्चाताप हुआ और वह भी दुखी मन से कहने लगी।
रुक्मिणी तु ठीक कह रही है मैंने अपना बेटा खोया है,तो तूने भी तो अपना पति खोया है। मिनी ने अपने पिता को खोया है । मुझे तो तेरी मां बनकर तेरा साथ देना था मगर मैं अपनी जिम्मेदारी भूल गई थी।
सुन रुक्मिणी आज से तू मेरी बहू नहीं मेरी बेटी है। यह सब देखकर रमिया से भी रहा नहीं गया। वह भी भीगी आंखों से कहने लगी।
मुझे माफ कर दे रुक्मणी। मैं भी आज से तेरी जेठानी नहीं बल्कि तेरे हर सुख दुख में साथ खड़ी रहने वाली तेरी बड़ी बहन बनकर तुझे दिखाऊंगी कहते हुए रुक्मणी को अपने गले लगा लिया।
पार्बती जी भी दोनों बहुओं का प्यार देखकर आज पहली बार दिल से दोनों को आशीर्वाद देने लगी।
रुक्मिणी ने मन ही मन मिनी के बाबूजी को प्रणाम करते हुए अपने आंसू पूछ लिए और मन ही मन प्रार्थना करने लगी। मिनी के बाबूजी इसी तरह मुझे आगे भी प्रोत्साहन देते रहना ,कभी किसी के आगे असहाय बनने मत देना।
स्वरचित
सीमा सिंघी
गोलाघाट असम