जानकी जी के आश्रम में आज सुबह से ही एक अजीब-सी हलचल थी—वैसी हलचल जैसी बच्चों के स्कूल में “बर्थडे सेलिब्रेशन” वाले दिन होती है। कोई रंग-बिरंगे गुब्बारे फुला रहा था, कोई दीवार पर कागज़ के फूल चिपका रहा था, कोई रसोई में जाकर बार-बार झाँक रहा था कि केक आया या नहीं।
यहाँ “जन्मदिन” का मतलब थोड़ा अलग था। यहाँ वह तारीख नहीं मनाई जाती थी जिस दिन कोई दुनिया में आया हो, बल्कि वह तारीख मनाई जाती थी जिस दिन कोई इस आश्रम में आया—मानो किसी ने टूटे हुए जीवन में फिर से एक नया अध्याय शुरू किया हो।
आज जानकी जी के साथी—रामदास जी—का “आश्रम-जन्मदिन” था। रामदास जी हँसमुख थे, थोड़े-से शरारती भी। जब भी कोई उदास होता, वे एक ही बात कहते—
“अरे, चिंता मत करो! दुख भी तो किराएदार है, थोड़े दिन रहता है… फिर निकल जाता है।”
उनकी बात सुनकर कई लोगों की आँखों में उम्मीद की छोटी-सी चमक लौट आती।
आश्रम के हॉल में आज सचमुच दीवाली सा माहौल था। एक लड़ी जगमग कर रही थी—छोटे-छोटे बल्ब, जो झिलमिलाते हुए हर चेहरे पर रंग बिखेर रहे थे। मेज़ पर केक रखा था, ऊपर गुलाब की पंखुड़ियाँ सजी थीं। कुछ महिलाएँ तालियाँ बजाने की प्रैक्टिस कर रही थीं—
“हैप्पी बर्थडे टू यू…”
और जानकी जी?
वे वहीं थीं… पर जैसे वहाँ होकर भी वहाँ नहीं थीं।
आज सुबह से ही उनका मन कहीं नहीं लग रहा था। वे बार-बार खिड़की के पास जाकर बाहर देखतीं, फिर अपने कमरे में आकर तकिये को सीने से लगा लेतीं। कई बार लगा कि वे ठीक हैं, पर अगले ही पल उनकी आँखें भर आतीं।
आश्रम की संचालिका, सुधा दीदी, जानकी जी को अच्छी तरह जानती थीं। उन्होंने धीरे से पूछा—
“माँ, आज तबियत ठीक नहीं है क्या?”
जानकी जी ने मुस्कुराने की कोशिश की, पर मुस्कान काँप गई।
“ठीक हूँ बेटा… बस… मन थोड़ा भारी है।”
उनके भारी मन की वजह कोई दवा नहीं, कोई बुखार नहीं, कोई कमजोरी नहीं थी।
वजह थी—आज उनके पोते कुश का जन्मदिन था।
जानकी जी को याद आया—कुछ महीने पहले ही तो उन्होंने अपने कमरे की छोटी-सी डायरी में तारीख लिखी थी। उस दिन उन्होंने खुद को समझाया था—
“अब रोना बंद, जानकी। अब जीवन को जीना है… अपने लिए।”
लेकिन तारीखें… तारीखें इंसान को मजबूत नहीं रहने देतीं। वे भीतर से खुरचती हैं, पुरानी आवाजें निकालती हैं, पुराने दृश्य आँखों में उतार देती हैं।
आज उन्हीं दृश्यों ने जानकी जी को घेर लिया।
उनके बेटे का नाम था विवेक। बहू—रितु।
बहुत पढ़े-लिखे, समझदार कहलाने वाले लोग। शहर में अच्छी नौकरी, फिर विदेश जाने की तैयारी।
शुरू में तो जानकी जी को लगा था कि बेटा-बहू उन्हें साथ ले जाएंगे। पर धीरे-धीरे बातें बदलने लगीं।
“माँ, वहाँ सिस्टम अलग है…”
“माँ, वहाँ हमारी जॉब ऐसी है कि…”
“माँ, बच्चों की स्कूलिंग…”
और फिर एक दिन सीधी बात—
“माँ, आपके लिए हम एक बहुत अच्छी जगह देख रहे हैं। वहाँ आपके जैसे लोग होंगे, आप अकेली नहीं रहेंगी।”
“आपके जैसे लोग”—यह शब्द जानकी जी के सीने पर जैसे हथौड़ा बनकर गिरा था।
क्या वे अब घर की नहीं रहीं?
क्या वे अब “आपके जैसे लोग” की सूची में आ गईं—जिन्हें सम्मान के नाम पर अलग कर दिया जाता है?
सबसे ज्यादा दर्द तब हुआ, जब कुश—उनका लल्ला—उनसे चिपक गया था।
वह रो रहा था, चिल्ला रहा था—
“दादी नहीं जाएगी! दादी मेरे पास रहेगी!”
और जानकी जी… वे भी रो रही थीं। उन्होंने बार-बार बेटे से कहा था—
“विवेक… मुझे मत छोड़। मैं चुप रहूँगी, मैं किसी को परेशान नहीं करूँगी… बस मुझे घर में रहने दे।”
लेकिन विवेक की आँखें सूखी थीं।
रितु की आवाज़ में भी वह अपनापन नहीं था, जो एक बहू की नहीं—एक बेटी की तरह लगती।
उन्हें बस जल्दी थी—कागज़ पूरे हों, टिकट हो, पैकिंग हो।
कुश ने उनके पल्लू को पकड़ रखा था।
जानकी जी ने उसे अपनी गोद में उठाकर रोते हुए कहा था—
“लल्ला… दादी यहीं रहेगी… तुम मिलना… तुम भूलना मत…”
और कुश बार-बार कह रहा था—
“मैं नहीं भूलूँगा दादी… मैं नहीं भूलूँगा…”
पर उस दिन, घर के दरवाजे से निकलते हुए, जानकी जी ने महसूस किया था—
कुछ लोग आपके आँसुओं को भी ‘इमोशनल ड्रामा’ समझने लगते हैं।
पहले-पहले जानकी जी यहाँ बिल्कुल नहीं टिक पाती थीं।
रात भर नींद नहीं आती।
दिन में किसी से बात नहीं होती।
खाना गले से नीचे नहीं उतरता।
आश्रम का हर कमरा साफ था, हर व्यवस्था ठीक थी, लोग भी अच्छे थे…
पर “अपना” कहाँ था?
वे अक्सर अपने कमरे के कोने में बैठकर कुश का नाम धीरे-धीरे बुदबुदातीं—
“कुश… मेरा बच्चा…”
कई बार तो वे सोते-सोते उठकर दरवाजे तक आ जातीं, मानो घर का दरवाजा हो और बाहर कुश खड़ा हो।
पर बाहर सिर्फ सन्नाटा होता।
फिर समय ने अपना काम किया।
समय बड़ा अजीब डॉक्टर है—दवा नहीं देता, बस आदत बदल देता है।
धीरे-धीरे जानकी जी भी बाकी लोगों के साथ जुड़ने लगीं।
किसी दिन बागवानी में मदद करतीं—गुलाब के पौधों में पानी डालतीं।
किसी दिन रसोई में सब्जियाँ काटतीं।
किसी की दवा समय पर याद करातीं।
किसी की चादर ठीक करतीं।
और सबसे बड़ी बात—वे लोगों की बातें सुनने लगीं।
किसी की बेटी ने घर से निकाल दिया था।
किसी का बेटा विदेश चला गया था।
किसी का पति चला गया था।
जानकी जी को लगा—दुख अलग-अलग हैं, पर अकेलापन सबका एक-सा है।
धीरे-धीरे वे हँसने लगीं।
कभी रामदास जी की किसी बात पर।
कभी सुधा दीदी की किसी प्यारी डाँट पर।
कभी अपने हाथों से बनाए अचार की खुशबू पर।
वे फिर से “जीने” लगीं।
लेकिन भीतर एक कोना… हमेशा कुश के लिए खाली रहा।
आज रामदास जी का जन्मदिन मनाया जा रहा था। सब तालियाँ बजा रहे थे। केक काटा गया।
रामदास जी ने हँसते हुए कहा—
“देखो, यहाँ आकर इंसान फिर से बच्चा बन जाता है!”
सब हँसे।
जानकी जी ने भी मुस्कुराने की कोशिश की।
लेकिन उनकी आँखों में आँसू तैर गए।
उन्हें लगा—आज कुश के जन्मदिन पर वहाँ घर में क्या हो रहा होगा?
केक कटा होगा?
बच्चे बुलाए गए होंगे?
कुश ने मोमबत्ती बुझाई होगी?
और… क्या उसने दादी को याद किया होगा?
वह धीरे से अपने कमरे में आ गईं।
बिस्तर पर बैठीं।
तकिये को पकड़कर आँखें बंद कर लीं।
“काश… एक बार… बस एक बार…”
यही सोचते-सोचते उनकी आँख लग गई।
नींद में उन्हें एक आवाज़ सुनाई दी—
“दादी… दादी…”
बिल्कुल वही आवाज़।
वही मासूमियत।
वही अपनापन।
जानकी जी की साँस अटक गई।
उन्होंने नींद में ही जवाब दिया—
“लल्ला… दादी यहीं है…”
आवाज़ फिर आई—
“दादी… उठो ना…”
अब उनकी आँख खुली।
किसी ने सचमुच उनके कंधे को हिलाया था।
जानकी जी उठकर बैठ गईं।
सामने जो दृश्य था, उसने उन्हें कुछ पल के लिए पत्थर बना दिया।
विवेक खड़ा था।
रितु खड़ी थी।
और उनके बीच—कुश!
कुश सच में उनके पास था।
वह रो रहा था, और बार-बार कह रहा था—
“दादी… दादी…”
जानकी जी ने उसे दोनों हाथों से जकड़ लिया।
कुश ने उनके गले में बाहें डाल दीं।
“दादी… आप मुझे छोड़कर क्यों गईं?”
यह वाक्य जानकी जी के दिल में तीर की तरह लगा।
उन्होंने बच्चे को चूमते हुए कहा—
“दादी ने नहीं छोड़ा लल्ला… दादी को छोड़ दिया गया…”
हॉल में सब लोग जमा हो गए थे।
कई आँखें नम थीं।
रामदास जी भी दूर खड़े चुपचाप देख रहे थे—उनकी हँसी आज किसी के आँसू में बदल गई थी।
विवेक और रितु ने आगे बढ़कर जानकी जी के पैर छुए।
विवेक की आवाज़ टूट रही थी—
“माँ… हमें माफ कर दो।”
जानकी जी ने कुश को सीने से लगाकर बस इतना कहा—
“अब माफी का क्या करूँ? जो समय तुमने छीना… वो लौटाओगे?”
रितु ने हाथ जोड़ दिए।
“माँ… हमें अपनी करनी का फल मिल गया। कुश आपके बिना… हँसना भूल गया। खाना-पीना भूल गया। स्कूल में भी चुप रहता है। जन्मदिन पर इसने बस एक ही चीज माँगी—‘दादी’।”
विवेक ने सिर झुका लिया—
“हमने सोचा था आप यहाँ खुश हो जाएँगी… पर हमने नहीं समझा कि घर से अलग करके हम आपको नहीं… खुद को सजा दे रहे हैं।”
कुश ने जानकी जी का हाथ पकड़ लिया—
“दादी, चलो ना… मेरे लिए… मैं आपके बिना नहीं रह सकता… मैं बड़ा हो गया हूँ… मैं आपका ख्याल रखूँगा…”
जानकी जी की आँखें फिर भर आईं।
वे बेटे-बहू पर भरोसा नहीं कर पा रही थीं।
पर कुश का हाथ… कुश की आँखें… कुश का काँपता स्वर…
उनके भीतर की कठोरता को पिघला रहा था।
उन्होंने गहरी साँस ली।
फिर बहुत धीमे, पर स्पष्ट शब्दों में बोलीं—
“ठीक है… मैं चलूँगी। लेकिन मेरी एक शर्त है।”
विवेक ने तुरंत कहा—
“जो कहोगी माँ।”
जानकी जी ने हॉल की तरफ देखा—अपने साथियों को… अपने नए परिवार को…
“हर शनिवार-इतवार मैं यहाँ आऊँगी। अपने इन साथियों से मिलूँगी। इनके सुख-दुख में साथ रहूँगी। ये मेरे अपने हैं। मैं इन्हें छोड़ नहीं सकती।”
कुश ने उत्साह से कहा—
“दादी, मैं भी आपके साथ आऊँगा! मैं भी आपके दोस्तों से मिलूँगा!”
रामदास जी ने आगे बढ़कर जानकी जी के सिर पर हाथ रखा—
“जाओ बहन… घर जाओ। पर याद रखना… तुम्हारा घर अब दो जगह है।”
जानकी जी के आँसू बह निकले।
उन्होंने एक-एक साथी को देखा—किसी ने उनका दुपट्टा ठीक किया, किसी ने उनके हाथ में पानी का गिलास थमा दिया, किसी ने बस आँखों से आशीर्वाद दे दिया।
जानकी जी ने कुश का हाथ थाम लिया।
एक बार फिर हॉल में वही लड़ी जगमग कर रही थी—पर अब वह दीवाली की नहीं, वापसी की रोशनी लग रही थी।
वे धीरे-धीरे कदम बढ़ाती हुई बोलीं—
“चलो लल्ला… दादी घर चलती है… लेकिन याद रखना… दादी अब सिर्फ तुम्हारी नहीं… दादी की दुनिया भी है।”
कुश ने उनके हाथ को और कसकर पकड़ लिया—
“हाँ दादी… अब कभी नहीं छोड़ूँगा।”
और इस तरह, आश्रम के दरवाजे से बाहर निकलते हुए, जानकी जी के चेहरे पर दो साल बाद एक सच्ची मुस्कान लौटी—
वह मुस्कान, जिसमें दर्द भी था…
पर उम्मीद उससे बड़ी थी।
अगर चाहो तो मैं इसी कहानी का और भी सिनेमैटिक वर्ज़न लिख दूँ—जैसे शुरुआत में बारिश/दीवाली-लाइट्स, फ्लैशबैक, और अंत में “शनिवार को आश्रम लौटने” वाला भावुक सीन—ताकि कहानी और ज्यादा असरदार लगे।
लेखिका : रीतू गुप्ता