अस्पताल के बरामदे में लगी बेंच पर बैठी सुधा अपने हाथों को बार-बार मल रही थी। दिसंबर की सर्द रात
में उसकी उँगलियाँ ठंड से सुन्न हो चुकी थीं और वह काँप रही थी। पर तन से भी ज्यादा उसका मन कांप
रहा था। सामने से आती-जाती नर्सों, स्ट्रेचर पर ले जाए जाते मरीजों और दुख से व्याकुल परिजनों के
बीच वह खुद को असहाय और बेहद अकेला महसूस कर रही थी।
यह सुधा के जीवन का सबसे कठिन समय था। अंदर आईसीयू में उसका पति मोहक जीवन और मृत्यु के
बीच संघर्ष कर रहा था। बिना किसी चेतावनी और बिना किसी पूर्व संकेत के अचानक आए ब्रेन स्ट्रोक ने
पल भर में सब बदल दिया था। दो दिन पहले तक जो व्यक्ति चाय पीते हुए अपनी पत्नी थके साथ हंसी के
ठहाके लगाता था, अब वही मशीनों के सहारे साँस ले रहा था।
सुधा का दिल बैठा जा रहा था। वह अपने सुहाग की सलामती के लिए मन ही मन प्रार्थना कर रही थी।
बीच-बीच में उसकी नज़र मोबाइल पर भी चली जाती, शायद किसी का मैसेज आया हो। फिर उसके मन
का एक कोना उसी को चिढ़ाने लगता, "अरी सुधा, पागल हो गई हो क्या? किसके मैसेज का इंतजार
कर रही हो? यह वही तो मोबाइल है, जिससे तुमने अपनों को फोन किए थे।"
“भैया, मोहक जी को स्ट्रोक आ गया है। अस्पताल में भर्ती हैं।”
दूसरी ओर से क्षणभर की चुप्पी के बाद औपचारिक आवाज़ आई, “अरे! ये तो बहुत बुरा हुआ। अभी हम
लोग थोड़ा व्यस्त हैं। देखते हैं, कैसे मैनेज हो पाएगा।”
“दीदी, डॉक्टर ने कहा है कि अगले 24 घंटे बहुत क्रिटिकल हैं। क्या आप आ सकती हो?”
“सुधा, तुम जानती हो ना, बच्चों के एग्ज़ाम चल रहे हैं। वैसे भी इतनी ठंड में सफ़र…”
हर कॉल के साथ सुधा की उम्मीदें ध्वस्त होती गई। शब्द सबके एक से थे: सहानुभूति, व्यस्तता,
असमर्थता। फोन कॉल्स का बुरा अनुभव याद आते ही, मोबाइल पर्स में रखकर सुधा चुपचाप बैठ गई।
उसके मन में एक टीस उठी, “शायद सच ही कहा गया है कि सुख में सब अपने होते हैं, पर दुख में
आदमी खुद ही अपना होता है।”
सुधा का जीवन बहुत साधारण था। शादी के बाद वह मोहक के साथ इसी शहर में आ बसी थी। मोहक
एक निजी कंपनी में अकाउंट्स संभालता था। आमदनी सीमित थी, लेकिन संतोष भरा जीवन था।
सरल स्वभाव का मोहक हमेशा दूसरों की सहायता के लिए तत्पर रहता था। रिश्तेदारों में किसी को
नौकरी दिलवाने में मदद करनी हो, किसी को अस्पताल में इलाज के लिए सहयोग चाहिए, मोहक कभी
पीछे नहीं हटता था।
सुधा अक्सर मोहक से कहती, “देखो जी, ज़रा संभलकर रहा करो, हर कोई आपकी तरह सीधा-सच्चा
नहीं होता।” मोहक मुस्करा कर कहता, “अगर हम अच्छे रहेंगे तो दुनिया भी एक दिन अच्छी हो
जाएगी। सुधा चुप हो जाती। पर वह जानती थी कि दुनिया इतनी सरल नहीं होती।
मोहक का बड़ा भाई रघुवीर अक्सर काम के सिलसिले में शहर आता और पूरे हक से मोहक के यहां कई-
कई दिन ठहरता। सुधा ने कभी मना नहीं किया। आखिर अपने ही तो थे। आज वही रघुवीर फोन पर
सिर्फ इतना बोला था, "सुधा, आ नहीं पाऊँगा। ऊपरवाले से प्रार्थना करो, मोहक ठीक हो जाएगा।” और
फोन कट गया था।
बरामदे में बैठे-बैठे सुधा की आँखें बंद हो गईं। थकान और चिंता ने शरीर को जकड़ लिया था। तभी किसी
ने उसके कंधे को हल्के से छुआ, “बहन जी, चाय पी लीजिए।” सुधा ने आँखें खोलीं। उसके सामने एक
अधेड़ उम्र की महिला खड़ी थी, साधारण साड़ी पहने और चेहरे पर अपनापन लिए। उसने मुस्कराकर
कहा, “मैं शांता हूँ।”
सुधा ने बिना कुछ कहे चाय ले ली। न जाने क्यों, उस अजनबी महिला के स्पर्श में उसे कुछ भरोसा महसूस
हुआ। “आप यहाँ अकेली हैं?” शांता ने पूछा।
सुधा की आँखें भर आईं, “अपने तो बहुत हैं, लेकिन आज कोई नहीं है।” शांता ने कुछ नहीं कहा। बस
पास बैठ गई। कभी-कभी सबसे बड़ा सहारा शब्द नहीं, साथ होता है।
रात गहराने लगी। आईसीयू के बाहर सन्नाटा और बढ़ गया। डॉक्टरों के चेहरे गंभीर थे। एक डॉक्टर से
सुधा ने मोहक की स्थिति के बारे में पूछा, तो उसने कहा, “अभी कुछ कहना मुश्किल है, लेकिन हिम्मत
रखिए।” सुधा ने सिर हिला दिया। हिम्मत… यह शब्द आज उसे बहुत भारी लग रहा था।
थोड़ी देर बाद शांता फिर आई, “आपने कुछ खाया?” सुधा ने ना में सिर हिलाया। “चलिए, मेरे साथ कैंटीन
चलिए। भूखे रहकर हिम्मत नहीं आती।” शांता ने अधिकारपूर्वक सुधा का हाथ पकड़ लिया। सुधा
अनमने मन से उठी। शांता ने उसके लिए खाना लिया, पानी दिया। वह हर छोटे-बड़े काम में अपनेपन से
सुधा का साथ निभा रही थी।
“आप इतनी मदद क्यों कर रही हैं?” सुधा के मुँह से अचानक निकल गया। शांता मुस्करा दी, “क्योंकि
कभी मैं भी इसी बेंच पर बैठी थी और तब किसी अजनबी ने मुझे सहारा दिया था। मेरे पति गंभीर चोटों
के कारण बच नहीं पाए। पर मैं इस सहारे का मूल्य समझ गई। बस इसीलिए…..।”
शांता नम होती आंखों को पोंछते हुए बोली, "संतान मुझे हुई नहीं। जीविका के लिए पति की पेंशन
पर्याप्त है। ज्यादा समय अब यहीं बिता लेती हूं। किसी के काम आकर थोड़ा सुकून मिलता है। अधेड़ उम्र
में इसी को जीवन का ध्येय बना लिया है।"
अगले दिन सुबह सुधा ने फिर अपने खास लोगों को फोन किया। अब भी कहीं न कहीं उसे उम्मीद थी
कि शायद कोई आ जाए।
“मौसी, अब मौसा जी कैसे हैं?” भांजी ने पूछा।
“अभी आईसीयू में हैं।” सुधा ने बताया।
“अच्छा! मम्मी कह रही थीं कि जैसे ही संभव होगा, हम आएँगे।” भांजी ने कह कर फोन रख दिया।
“जैसे ही संभव होगा”, यह वाक्य सुधा के कानों में हथौड़े की तरह बजता रहा।
उसी समय बीमा क्लेम और दस्तावेज़ों के संबंध में सुधा को फोन आया। उसका सिर चकराने लगा।
शांता बोली, “कार्यालय पास में ही है। आप चाहें तो मैं आपके साथ चल दूँ। अकेले सब मुश्किल होता है।”
सुधा को महसूस हुआ कि कैसे एक अजनबी, बिना किसी स्वार्थ के अपना समय, ऊर्जा, सब कुछ दे
रही थी और अपने…….?
तीसरे दिन मोहक की हालत कुछ सुधरी। डॉक्टरों ने कहा, “अब मोहक खतरे से बाहर है, पर अभी
आईसीयू में ही रखना होगा।” सुधा की आँखों से आँसू बह निकले। उसने भगवान का धन्यवाद किया।
शांता वहीं खड़ी थी। उसने चुपचाप सुधा का हाथ पकड़ लिया।
उसी शाम अचानक सुधा का भाई आया। “सुधा, आजकल फैक्ट्री के काम में काफी भागदौड़ हो रही है।
अभी भी जरूरी काम बीच में ही छोड़कर आया हूँ।” सुधा ने उसकी ओर देखा। मन में कोई शिकायत नहीं
उठी, बस एक खालीपन सा महसूस हुआ।
भाई ने चार बातें कीं, हालचाल पूछा और कहा, “कल ज़रूरी मीटिंग है, इसलिए ज़्यादा रुक नहीं पाऊँगा।”
सुधा ने हां में सिर हिला दिया। शांता यह सब दूर से देख रही थी।
हफ्तों बाद मोहन को सामान्य वार्ड में शिफ्ट किया गया। सुधा अब पहले से कुछ मज़बूत हो चुकी थी।
दुख ने उसे भीतर से बदल दिया था।
एक दिन उसने शांता से कहा, “आपसे मिलकर मेरी सोच बदल गई। मैं समझ गई कि रिश्ते खून से नहीं,
करुणा से बनते हैं।”
शांता की आँखें नम हो गईं, “बहन, जब जीवन हमें तोड़ता है ना, तब वह हमें असली और नकली रिश्तों
का फर्क भी सिखा देता है।”
मोहक के डिस्चार्ज के दिन सुधा ने शांता का हाथ पकड़कर कहा, “अगर आप न होतीं, तो शायद मैं टूट
जाती। आपका कैसे आभार व्यक्त करूँ, नहीं जानती। शायद मैं आपका कर्ज कभी नहीं चुका पाऊँगी।"
शांता ने सुधा के कंधे पर हाथ रखा, “आज आप मजबूत हैं। कल किसी और का सहारा बन जाना।
बस यही कर्ज़ है।”
"शांता जी, जीवन की इतनी गहरी सीख देकर आपने मुझे धन्य कर दिया!" भावविह्वल सुधा इतना ही
कह पाई और डबडबाई आंखों से ही कृतज्ञता प्रकट करते हुए शांता से विदा ली।
घर लौटते समय सुधा लगातार शांता से मिले संबल के बारे में सोचती रही। शांता के निस्वार्थ सहयोग ने
उसे महसूस कराया कि अपनों से शिकायत करना आसान है, लेकिन गैरों में भी अपना ढूँढ लेना,
यही जीवन की सबसे बड़ी समझदारी है।
कठिन समय बीत गया। मोहक धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगा। सुधा अब पहले जैसी नहीं रही थी। दुख ने उसे
तोड़ा नहीं था, बल्कि भीतर से गढ़ दिया था। वह और अधिक संवेदनशील, और अधिक जागरूक हो गई
थी। उसकी जीवन-दृष्टि बदल गई थी।
उसने जाना कि रिश्तों की पहचान नामों और संबोधनों से नहीं होती, बल्कि संकट की घड़ी में निभाए गए
साथ से होती है। जो अपने कहलाते हैं, उनमें से कई परिस्थितियों की आड़ लेकर दूर खड़े हो जाते हैं
और कई बार गैर ही निस्वार्थ भाव से कंधा दे जाते हैं।
अब शांता उसके जीवन की आदर्श है, जिसने उसके साथ निस्वार्थ करुणा का रिश्ता स्थापित किया।
अब वह किसी अस्पताल के गलियारे में बैठी, उम्मीद और भय के बीच झूलती किसी अकेली स्त्री को
देखती है, तो शांता की तरह उसका सहारा बन जाती है। किसी भी जरूरतमंद की यथासंभव सहायता
करती है। किसी भी दुखिया का हाथ थाम लेती है।
उसे अब शिकायत नहीं रहती कि कौन आया और कौन नहीं आया। उसने स्वीकार कर लिया था कि हर
रिश्ता हर मोड़ पर साथ निभाने के लिए नहीं बना होता।
पर यह भी उसने उतनी ही गहराई से जाना कि मानवता अब भी जिंदा है, बस कभी-कभी अपनों के रूप
में नहीं, गैरों के रूप में सामने आती है।
सुधा के मन में शांता द्वारा रोपा गया करुणा का भाव उसे किसी के भी दर्द से सहज ही जोड़ देता है।
क्योंकि उसने सीख लिया था….
हर अपना अपना नहीं होता,
और हर गैर पराया नहीं होता।
कभी-कभी,
अपनों से गैर ही भले होते हैं।
-सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)
साप्ताहिक विषय: अपनों से गैर भले