मेरी पत्नी मेरी जिंदगी है, और मेरी माँ मेरी जड़। – गरिमा चौधरी

  रसोई में गैस जल रही थी, मसालों की खुशबू फैल रही थी, शारदा देवी ने आँखों पर चढ़े चश्मे को थोड़ा ऊपर किया, फिर धीमे से कमर पकड़कर खड़ी हुईं। घुटने में दर्द था, पर आज दर्द की छुट्टी नहीं थी। आज उनके बेटे सिद्धार्थ का जन्मदिन था। और सिद्धार्थ… बचपन से एक ही चीज़ पर अटक जाता था—माँ के हाथ की “दूधपाक” पर।

“माँ, बस आज दूधपाक बना देना… बाकी कुछ नहीं चाहिए,” वह तब भी कहता था, जब स्कूल में पहला इनाम मिला था।
और वही सिद्धार्थ अब एक बड़ी कंपनी में सीनियर मैनेजर था। नौकरी की ऊँचाई बढ़ी, पर माँ की मिठास वही रही—दूध, केसर, इलायची और माँ की उँगलियों का अपनापन।

शारदा देवी ने दूधपाक को धीमी आँच पर रखा, जैसे प्रेम को धीमी आँच पर रखा जाता है—जल्दबाज़ी में नहीं। बीच-बीच में चम्मच चलातीं तो मन में पुराने दिन घूम जाते—जब पति के गुजरने के बाद उन्होंने अकेले घर संभाला था, बेटे को पढ़ाया था, और अपनी इच्छाओं को चूल्हे की राख में दबा दिया था।

“माँ, आराम करो… आज मैं बाहर से ऑर्डर कर दूँगा,” सिद्धार्थ कभी-कभी कहता।
पर शारदा देवी का जवाब हमेशा एक ही होता—
“बाहर का खाना पेट भरता है बेटा, पर दिल नहीं।”

उसी समय बाहर गाड़ी का हॉर्न बजा।
शारदा देवी ने हाथ पोंछे और दरवाजा खोला। सामने सिद्धार्थ खड़ा था, मुस्कुराता हुआ। उसके साथ थी उसकी पत्नी—नायरा—चमकती साड़ी, हाथ में बैग, चेहरे पर ऐसी ताज़गी जैसे सुबह-सुबह ही कैफे से लौटकर आई हो।

और नायरा के पीछे… दो और लोग।
नायरा की माँ—कमला जी—और छोटी बहन—तन्वी।

शारदा देवी एक पल ठिठकीं।
“ये सब?” आँखों में सवाल था, पर आवाज़ में नहीं।

सिद्धार्थ ने झुककर माँ के पैर छुए। “माँ, सरप्राइज़! नायरा ने कहा आज का दिन फैमिली के साथ मनाना चाहिए।”

नायरा ने चहककर कहा, “हैप्पी बर्थडे तो शाम को होगा मम्मी जी। अभी तो बस… हम लोग सीधे आपके पास आ गए।”

कमला जी ने मुस्कुराते हुए कमरे का जायज़ा लिया, जैसे हर चीज़ की कीमत और क्वालिटी नाप रही हों।
“घर तो ठीक है… पर आजकल शहर में ऐसे पुराने घर कम मिलते हैं।”

शारदा देवी ने बात को अनसुना किया। उन्होंने सबको बैठाया और भीतर से दूधपाक की कटोरी निकालकर सिद्धार्थ के पास ले आईं। चम्मच भरकर बेटे की तरफ बढ़ाते हुए उनकी आँखों में चमक थी।
“ले बेटा… जन्मदिन है… मुँह मीठा कर।”

सिद्धार्थ ने मुँह खोला ही था कि नायरा बोल पड़ी—
“अरे मम्मी जी! आपने फिर ये सब बना लिया? सिद्धार्थ, तुम तो हमारे साथ ब्रंच करके आए हो ना… अब ये कौन खाएगा?”

शारदा देवी का हाथ हवा में ही रुक गया। चम्मच का दूधपाक काँप-सा गया, जैसे उनके आत्मसम्मान में हल्की दरार पड़ी हो।

सिद्धार्थ ने जल्दी से कहा, “माँ, मैं खा लूँगा… बस दो चम्मच…”

“दो चम्मच भी क्यों?” नायरा ने हँसकर कहा, “आजकल इतनी शुगर-फ्री लाइफस्टाइल… और ये दूधपाक… मम्मी जी, आप भी न! आपको पता है मुझे मीठा पसंद नहीं, और सिद्धार्थ मेरा साथ देता है। हमारा ‘डाइट रूटीन’ है।”

कमला जी ने भी साथ दे दिया, “हाँ बहू की बात सही है। आजकल हेल्थ बहुत जरूरी है। पुराने जमाने की चीज़ें अब…”

शारदा देवी ने चम्मच वापस कटोरी में रख दिया। आवाज़ बाहर नहीं आई, पर भीतर बहुत कुछ टूटकर गिरा।
उन्होंने बस इतना कहा, “अच्छा… ठीक है।”

और कटोरी लेकर रसोई की तरफ बढ़ गईं।

पीछे से सिद्धार्थ की आवाज आई, “माँ… रुको…”
वह उठकर आया, कटोरी उनके हाथ से ली और फुसफुसाकर बोला, “माँ, मैं खाऊँगा। बस… आप उदास मत हो।”

उसने दो चम्मच जल्दी-जल्दी खाए, जैसे अपराधबोध भी मिठाई की तरह निगल रहा हो।
शारदा देवी की आँखें भीग गईं। माँ का दिल इतना सस्ता होता है कि दो चम्मच में भी भर जाता है।

पर नायरा का चेहरा कस गया।

उस दिन बाहर सब “हैप्पी-हैप्पी” था। शाम को केक, फोटो, स्टोरी, रील—सब हुआ। तन्वी ने फोन निकालकर हर एंगल से वीडियो बनाया। कमला जी ने एक बार भी रसोई में झाँककर नहीं पूछा कि “मम्मी जी आप ठीक हैं?”
पर सबके सामने नायरा का व्यवहार इतना मीठा था कि कोई समझ नहीं पाता कि घर के भीतर कौन-सा कड़वा सच घुल रहा है।

रात को जब सब अपने कमरे में चले गए, शारदा देवी भी धीरे-धीरे अपने कमरे में आकर बैठ गईं।
पर दीवारें पतली थीं, और रिश्तों की आवाज़ मोटी।

“तुम्हें अपनी माँ के हाथ का दूधपाक खाने में इतनी तसल्ली मिलती है?” नायरा की तेज आवाज़ साफ सुनाई दे रही थी।
“कहाँ? मैंने तो दो चम्मच… बस…”
“बस दो चम्मच नहीं थे सिद्धार्थ। वो ‘मैसेज’ था—कि तुम्हें मेरी परवाह नहीं। मेरी माँ को बुरा लगा। तन्वी ने भी नोटिस किया। हम ब्रंच में थे, तुमने कहा पेट भरा है… और यहाँ पेट में जगह बन गई!”

सिद्धार्थ ने थकी आवाज़ में कहा, “मेरी माँ ने बनाया था, नायरा… उम्र हो गई है… वो भी दर्द में खड़ी थी…”
“तो? हर बार यही ड्रामा। दर्द, बीमारी, अकेलापन… सब कुछ हमारी खुशियों के बीच क्यों?”

शारदा देवी ने आँखें बंद कर लीं।
उन्हें लगा जैसे उनका दूधपाक नहीं, उनका अस्तित्व ही “बीच” में आ रहा है।

उनके मन में एक पुरानी बात चमकी—जब सिद्धार्थ की शादी हुई थी, उन्होंने खुद को पीछे कर लिया था। बहू के कमरे के पास बेवजह नहीं जातीं, उनके फैसलों में दखल नहीं देतीं, यहां तक कि घर में नए फर्नीचर तक नायरा ने अपनी पसंद से चुना, और शारदा देवी ने बस “ठीक है” कहा।
उन्होंने समझौता इसलिए किया था कि घर शांत रहे।

पर कभी-कभी शांत घर में सबसे ज़्यादा चीख माँ के भीतर होती है।


कुछ दिन बाद नायरा ने अपना “फ्रेंड्स ब्रंच” घर पर रखा।
कमला जी और तन्वी भी आईं।
उस दिन घरेलू सहायिका की तबियत खराब थी, इसलिए वह नहीं आई।

नायरा ने बिना झिझक शारदा देवी से कहा, “मम्मी जी, आप नाश्ता बनवा दीजिए। बाहर से मंगवाना नहीं है। मेरी फ्रेंड्स ‘होममेड’ पसंद करती हैं।”

शारदा देवी ने धीमे से कहा, “बहू, मेरा घुटना… और इतने लोगों का…”
“मम्मी जी, आज तो कर दीजिए। मैं आपकी बहू हूँ ना… आपकी अपनी… और फिर आप घर पर ही तो रहती हैं।”
नायरा ने “अपनी” शब्द ऐसे बोला जैसे एहसान जता रही हो।

कमला जी ने चुटकी ली, “अरे शारदा जी, आजकल तो इतना सब आसान है। आप बस डायरेक्शन दे दीजिए… बाकी हम कर देंगे।”

शारदा देवी को पहली बार लगा—ये लोग मदद नहीं, आदेश देने आए हैं।
उन्होंने शांत पर स्पष्ट स्वर में कहा, “बहू, बाहर से मंगवा लो या किसी कुक को बुला लो। ये मेरा शरीर है… मशीन नहीं।”

नायरा का चेहरा उतर गया। उसने ब्रंच बाहर कर लिया।
और घर में तीन दिन तक ऐसा माहौल रहा जैसे शारदा देवी ने कोई गुनाह कर दिया हो।


फिर एक घटना हुई।
नायरा की कॉलेज फ्रेंड की शादी थी। वह तैयार होकर निकलने लगी। सिद्धार्थ ने कहा, “माँ का बीपी आज सुबह से लो है। हम थोड़ी देर रुक जाएँ?”

नायरा ने मुस्कुराकर—पर जानबूझकर ऊँची आवाज़ में—कहा, “अरे थोड़ी बहुत तबियत खराब है तो क्या? कमला जी हैं, तन्वी है, मेड भी आ जाएगी… और वैसे भी… माँ जी अपने बेटे-बहू की खुशी क्यों रोकेंगी?”

शारदा देवी ने सुन लिया।
उन्होंने कुछ नहीं कहा। माँ अक्सर कुछ नहीं कहती—ताकि घर में तूफान न उठे।

वे लोग शादी में चले गए।
पर आधे घंटे बाद शारदा देवी बेहोश होकर गिर पड़ीं। पड़ोस की आंटी ने घबराकर सिद्धार्थ को फोन किया।
सिद्धार्थ शादी से भागता हुआ लौटा। अस्पताल ले गया। डॉक्टर ने कहा—“बहुत स्ट्रेस है। शरीर कमजोर है। ध्यान रखिए।”

नायरा ने अस्पताल में बस इतना पूछा, “डॉक्टर, कितने घंटे लगेंगे?”
जैसे वह अपने प्लान का टाइम-टेबल पूछ रही हो, माँ की सांस नहीं।

रात को घर लौटते समय कार में सन्नाटा था।
सिद्धार्थ के भीतर कुछ बदल रहा था।


अगली सुबह सिद्धार्थ ऑफिस के लिए निकला।
नायरा ने इंतजार किया कि वह गेट से बाहर जाए… और फिर सीधे शारदा देवी के कमरे में आ गई।
आज उसके चेहरे पर मिठास नहीं थी।

“मम्मी जी, कल आपने हमें जानबूझकर बुलाया था ना?” नायरा ने आरोप उछाला।
शारदा देवी उठकर बैठ गईं। “बहू… मैं बेहोश हुई थी…”
“बेहोश? दो घंटे में डिस्चार्ज हो गईं। इतना नाटक!” नायरा की आवाज़ बढ़ गई।
“आपको हमारे इवेंट्स खराब करने में मजा आता है क्या? हर बार आप खुद को सेंटर बनाना चाहती हैं। आपने देखा नहीं, मेरी माँ और मेरी बहन कितनी शर्मिंदा हुईं?”

शारदा देवी का चेहरा पीला पड़ गया।
उनके होंठ हिले, पर शब्द टूटते रहे। “बहू… मैं… किसी को… शर्मिंदा…”

नायरा ने कठोरता से कहा, “आपके रहते मेरा घर कभी ‘मेरा’ नहीं बनेगा। आज तय हो जाए—या आप रहेंगी, या मैं।”

शारदा देवी ने आँखें बंद कीं।
माँ के हिस्से में अक्सर यही अल्टीमेटम आता है—“या तो तुम, या मैं।”

उसी पल दरवाजे पर आवाज़ हुई।
“या तो तुम, या मैं…?”

सिद्धार्थ का स्वर था।
पीछे कमला जी और तन्वी भी खड़ी थीं। वे शायद कुछ सामान लेने आई थीं, और बाहर खड़ी रहकर सब सुन चुकी थीं।

नायरा के चेहरे का रंग उड़ गया।
कमला जी ने फौरन बेटी के कंधे पर हाथ रखा, जैसे वह खुद पीड़ित हो।

सिद्धार्थ कमरे में आया। उसकी आँखें लाल थीं, पर आवाज़ नियंत्रण में थी।
“नायरा, तुम कह रही हो—या मेरी माँ, या तुम?”

नायरा रोने लगी। “हां… क्योंकि आपकी माँ हर चीज़ में…”

सिद्धार्थ ने उसे बीच में रोका।
“ठीक है। तो एक शर्त है।”
नायरा ने सिर उठाया।
“अगर सास झंझट है… तो आज से तुम्हारी माँ भी तुम्हारे लिए झंझट है।”

कमला जी का चेहरा तमतमा उठा। “ये क्या बोल रहे हो?”

सिद्धार्थ ने बिना डरे कहा, “जी, वही जो आपकी बेटी बोल रही है। अगर रिश्तों को काटना है, तो बराबरी से काटेंगे। आज से नायरा आपकी माँ से नहीं मिलेगी, आपके घर नहीं जाएगी, आपकी कॉल्स नहीं उठाएगी। और मैं भी अपनी माँ से नहीं मिलूँगा, उनका हाल नहीं पूछूँगा। मंजूर?”

कमरे में जैसे हवा रुक गई।
नायरा के आँसू थम गए। कमला जी के होंठ कांपे। तन्वी चुप हो गई।

सिद्धार्थ ने दूसरा रास्ता भी रखा।
“या फिर… हम अलग रहें। मैं और नायरा किराए के घर में। लेकिन मेरी सैलरी का एक हिस्सा माँ के लिए तय रहेगा। क्योंकि बेटे होने का मतलब सिर्फ़ फोटो और केक नहीं, जिम्मेदारी है। बाकी खर्च—किराया, लाइफस्टाइल, आपकी ब्रंच पार्टियाँ—तुम अपने हिसाब से संभालना।”

नायरा के चेहरे पर पहली बार असली डर आया।
उसने जीवन “कम्फर्ट” में सीखा था—निर्णयों में नहीं।

कमला जी ने धीमे से कहा, “बहू… देख… बात बढ़ गई…”
और नायरा को जैसे समझ आया कि यह लड़ाई जीतकर भी वह हार जाएगी—क्योंकि सिद्धार्थ पहली बार “झुक” नहीं रहा था।

वह कुछ पल खड़ी रही, फिर बिना कुछ कहे रसोई की तरफ मुड़ गई।
जैसे घर का सारा गुस्सा अचानक चाय की केतली में उतर गया हो।

शारदा देवी की आँखों से आँसू बह निकले।
वे रो इसलिए नहीं रही थीं कि बहू चुप हो गई…
वे रो इसलिए रही थीं कि उनके बेटे ने आखिरकार समझ लिया था—माँ दखल नहीं, आधार होती है।

सिद्धार्थ पास आया। धीमे से बोला, “माँ… माफ कर दो। मैं देर से समझा।”
शारदा देवी ने उसके सिर पर हाथ रखा। “बेटा… माँ माफ नहीं करती… माँ तो बस… सहेजती है।”

उस दिन के बाद घर में कोई चमत्कार नहीं हुआ।
नायरा अचानक “देवी” नहीं बन गई।
कमला जी अचानक “समझदार” नहीं बन गईं।
पर एक बदलाव जरूर हुआ—अब शारदा देवी को कोई “या तो” कहने की हिम्मत नहीं करता था।

और सिद्धार्थ ने भी एक नया नियम बना लिया था—
“मेरी पत्नी मेरी जिंदगी है, और मेरी माँ मेरी जड़।
जिंदगी जड़ काटकर खड़ी नहीं रहती।”

लेखिका : गरिमा चौधरी 

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