अभी-अभी की ही तो बात है। सुबह ऑफिस के लिए निकलते समय आईने में खुद को देखा तो मानो कोई और चेहरा दिखा—थकी आँखें, बुझा हुआ मन। साक्षी ने मोबाइल उठाया। माँ के पाँच मिस्ड कॉल थे।
वह जानती थी—अब पूछताछ नहीं, हिदायतें आएँगी।
उसने मोबाइल साइलेंट कर दिया।
ऑफिस पहुँचकर भी मन वहीं अटका रहा। कैंटीन के कोने में बैठी वह चाय को घूर रही थी, तभी सामने कुर्सी खिसकी।
“मैं बैठ जाऊँ?”
रिया थी—नई लड़की, अभी एक महीना ही हुआ था।
“हाँ,” साक्षी ने औपचारिक-सा कहा।
दो मिनट की चुप्पी के बाद रिया बोली, “तुम रोज़ मुस्कुराती हो… आज कोशिश भी नहीं की।”
साक्षी की पलकें भर आईं।
कितना अजीब था—जिसे वह जानती तक नहीं, वही उसकी हालत पढ़ गया।
“कभी-कभी थक जाती हूँ,” साक्षी बोली।
रिया ने धीरे से कहा, “लड़की थकती नहीं, थकाई जाती है।”
बस वहीं से लड़की-लड़की की बातें शुरू हो गईं।
साक्षी ने बताया—शादी के बाद सब बदल गया। मायके में कहा जाता है, अब तो पराई हो, और ससुराल में सुनना पड़ता है, अभी सीख जाओगी। माँ हर बात पर बस इतना कहती है—“हमने भी तो निभाया था।”
“पर माँ यह नहीं समझती,” साक्षी बोली, “कि हर निभाना सही नहीं होता।”
रिया सुनती रही। फिर बोली, “मेरी माँ भी यही कहती है। जब मैंने नौकरी बदलने की बात की, तो बोलीं—ज़्यादा आज़ादी अच्छी नहीं।”
दोनों हँसीं, फिर अचानक चुप हो गईं।
दिन बीतते गए। साक्षी और रिया की दोस्ती गहरी होती गई। ऑफिस के काम से ज़्यादा बातें ज़िंदगी की होने लगीं—डर, सपने, गुस्सा, चुप्पी।
जो बातें साक्षी अपनी बहन से नहीं कह पाई थी, वो रिया से कह देती थी।
एक शाम साक्षी का बुख़ार तेज़ था। ससुराल में सब अपने-अपने मोबाइल में व्यस्त थे। पति ने कहा, “दवा ले लो, मैं ज़रूरी कॉल में हूँ।”
माँ को फोन किया तो जवाब आया, “आज पूजा है, बाद में बात करेंगे।”
साक्षी बिस्तर पर पड़ी सोचती रही—इतने अपने… फिर भी इतनी अकेली क्यों हूँ?
थोड़ी देर बाद दरवाज़े की घंटी बजी। बाहर रिया खड़ी थी—हाथ में सूप, दवा और एक छोटा-सा फूल।
“तुम्हारा फोन नहीं उठा, तो डर लगी,” उसने कहा।
उस पल साक्षी रो पड़ी।
“तुम तो मेरी कोई नहीं हो,” वह बोली।
रिया ने उसका हाथ पकड़ लिया, “यही तो बात है… कभी-कभी गैर ही ज़्यादा अपने निकल जाते हैं।”
उस रात साक्षी ने पहली बार चैन की नींद ली।
अगले दिनों में साक्षी बदली-सी लगने लगी। उसने पति से खुलकर बात की। माँ से भी कहा—“हर चुप्पी समझदारी नहीं होती।”
सब तुरंत नहीं बदला, लेकिन साक्षी ने खुद को बदलना शुरू कर दिया था।
एक दिन ऑफिस की सीढ़ियों पर बैठी वह रिया से बोली,
“जानती हो, अगर तुम न होतीं, तो शायद मैं अब भी खुद को गलत मान रही होती।”
रिया मुस्कुराई,
“लड़कियाँ जब एक-दूसरे का सहारा बनती हैं, तब दुनिया थोड़ी कम बेरहम लगती है।”
घर लौटते वक्त साक्षी ने सोचा—
रिश्ते खून से नहीं, एहसास से बनते हैं।
और आज के समय में कई बार
अपनों की बेरुख़ी से ज़्यादा सुकून किसी गैर की समझ में होता है।
सच ही तो है—
अपनों से गैर भले।
सुदर्शन सचदेवा