मां जी मैं भी आपकी बेटी जैसी हूं। – मधु वशिष्ठ

कल सुबह अपनी माँ से मिलेंगे! मायके में माँ से मिलने का सुख क्या होता है, यह ससुराल में बैठी हर लड़की से पूछो। माँ के सीने से लगते हुए ढेरों बात करना, “कुर्सी से नीचे लटकाए हुए खुले बाल”  और “पैर ऊपर करके बैठना”, इसी खूबसूरत एहसास में खोई हुई

मीनल की तंद्रा तब टूटी, जब बिट्टू ने कहा “भाभी एक रोटी और”। तवे पर रोटी जल रही थी और चकले पर बेलना भूल गई थी, तभी सासु माँ की आवाज आई “अरे ये जली रोटी को खाएगा कौन? अपने लिए रख लेना, बिट्टू ना खा पाएगा।” आगे भी जाने क्या-क्या बोल रहीं थी, पर हर बात सुनना जरूरी तो नहीं था।

हर रक्षाबंधन की तरह इस रक्षाबंधन को भी कल मीनल को एक दिन पहले घर जाने की इजाजत मिल गई थी। पिंकी को भी उसका देवर बिट्टू ऐसे ही राखी से एक दिन पहले ससुराल से ले आता था।

नीता को ऑफिस जाते हुए विनय जी सवेरे छोड़ आते थे, क्योंकि दूसरे दिन पिंकी के विदा होने से पहले नीता का आना जरूरी था। विनय जी राखी बंधवाकर अपने ऑफिस जाते थे और दोपहर को जल्दी वापसी करते हुए नीता को घर लेते हुए आ जाते थे।

इतने दिन से घर में सासु माँ पिंकी के लिए मंगोड़ी तुड़वाना, आलू के चिप्स बनाना और अचार बनाना इन्हीं कामों में खुद भी व्यस्त थी और नीता को भी व्यस्त रखे हुए थीं। पिंकी के लिए बहुत सुंदर गुलाबी रंग की साड़ी लाईं थी। इतनी सुंदर साड़ी लेने को नीता का भी मन था

पर विनय जी के दिए हुए पैसे साड़ी में खर्च नहीं किए जा सकते थे। घर में इतने समय बाद भाइयों से मिलना था, क्या पता कहां पैसे खर्च करने पड़ जाएं? अपने पास में पैसे रखने में ही भलाई थी, साड़ी तो उसकी शादी वाली भी अच्छी ही थी।

सवेरे आंख खुलते ही जल्दी-जल्दी सबके लिए खाना बना कर तैयार हो गई थी मीनल। विनय जी बाइक का हॉर्न बजाए ही जा रहे थे जल्दी से ऊपर से बैग उठाया, सासु माँ के पैर छुए और बाहर निकलने को हुई। सासु माँ की नज़रें सिर्फ बैग का एक्स-रे करने पर लगी थी कि क्या सामान ससुराल से मायके ले जाया जा रहा है।

पर इन सब विचारों से अलग बैग को ले जाती हुई उन्मुक्त गगन में विचरण करने को तैयार चिरैया सी मीनल, विनय जी के पीछे बाइक पर बैठ गई। कब सर से घुंघट सरका पता ही नहीं चला। छोटा सा रास्ता कितना लंबा लग रहा था। घर में माँ और बाबूजी अकेले रहते थे,

पर रक्षाबंधन वाले दिन दोनों भाई और भाभी सवेरे ही सारा खाना बनाकर घर में ले आते थे। राखी बंधवा कर भाभियां भी अपने मायके चली जातीं थीं।

यह पूरा दिन एक पिकनिक के जैसे लगता था। जिसने भी यह त्यौहार बनाया उसको सौ-सौ दुआएं देने को मन करता है। घर पहुंचकर माँ के सीने से लगकर एक अलग ही सुकून मिला। विनय जी जल्दी में थे, दूसरे दिन आने का वादा करके मीनल को घर छोड़कर अपने ऑफिस चले गए।

माँ की खाने के लिए मनुहार, इधर-उधर के किस्से, पूरा दिन कब बीता पता ही नहीं चला। अपनी पसंद-नापसंद के बारे में सिर्फ माँ ही तो जानती है, वरना तो खुद ही सबका ध्यान रखते रहो, तुम्हारा कौन रखेगा? बातों-बातों में पता ही नहीं चला कब रात खत्म हो गई|

सवेरे दोनों भाई और भाभी घर पर आ चुके थे। माँ और बाबूजी को दोनों ही अपने साथ ले जाना चाहते हैं, पर वृक्ष अपनी जड़ों को छोड़ने को तैयार ना था। बहुत से सामान लाए थे दोनों भैया। अब के दोनों भाइयों ने मिलकर रक्षाबंधन पर मीनल को एक सोने की अंगूठी दी। दोनों भाभियाँ भी अपनी तरफ से बहुत अच्छे सूट लाइ थीं|

तभी विनय जी भी आ गए। पिंकी ने भी जाना था इसलिए विनय जी अभी जल्दी में ही थे। जल्दी-जल्दी खाना खाकर दोनों विदा हो चले। बाइक में बैठे-बैठे सिर पर घूंघट कब आया, पता नहीं। घर आ चुका था,

पिंकी की विदा की भी तैयारियां हो रही थी। मीनल ने सासु माँ को अपने घर से लाई हुई अंगूठी और दोनों सूट दिखाएं। घर से लाई हुई मिठाई आदि भी रसोई में रख दी गईं।

अंगूठी देखते ही सासु माँ भड़क पड़ी और बोली मुझे तो पहले से ही शक था कि तू यहां से पैसे ले जाकर के अपने पीहर देती है और यह अंगूठी उन्हीं पैसों से ही बनी है।

इससे पहले कि मीनल कुछ बोले या सोचे, सासु माँ ने वह अंगूठी मीनल से छीन ली। उधर नंदोई जी भी जाने की जल्दी मचाए हुए थे। सासु माँ ने झट से वो अंगूठी पिंकी को दे दी और कहा “इसकी शादी में भी तेरे लिए कुछ सोने का नहीं आया था” यह तो रख ले और हिसाब तो इस बहुरिया से मैं बाद में लूंगी।

मीनल को रुलाई ही नहीं फूटी बल्कि बेहोशी आई थी। अंगूठी में मानो उसकी जान ही बस गई थी। इस अंगूठी का जाना, उसके लिए एक हादसे के समान था।

मां जी मैं भी आपकी बेटी जैसी ही हूं वह बेहोशी में भी बड़बड़ा रही थी। वह कुछ संभलती कि तभी उसे अपने ऊपर कुछ ठंडक का एहसास हुआ। पिंकी मीनल से गले लगकर रो रही थी। उसने मीनल को अंगूठी वापस देते हुए, सासु माँ की और देखकर कहा “माँ तुम क्या सोचती हो कि मेरी सास कुछ अलग सोचती होगी!

यह अंगूठी तो मेरे पास भी नहीं रहेगी, नंदरानी तो मेरी भी आई हुई है। जो हिसाब भाभी से आप लोगी ना, उससे ज्यादा हिसाब तो मुझे देना पड़ेगा। आलिंगनबद्ध ननद और भाभी के आंसू ही आपस में बात कर रहे थे। थोड़ा संभलकर, पिंकी ने मीनल से कहा भाभी आप देना चाहती हो

तो यह साड़ी जो माँ मुझे दे रही है, वह आप ही रख लो और मुझे इसके बदले में अपना सूट दे दो जो कि मैं पहनकर चली जाऊंगी वरना यह साड़ी भी मेरी नंदरानी ही ले लगी। मेरे हाथ तो तब भी कुछ नहीं आएगा। मीनल ने दोनों सूट पिंकी को दे दिए। सासू माँ ने दोनों को गले लगा लिया।

पिंकी अपने ससुराल के लिए विदा हो गई थी। पर मीनल के ससुराल को मायके में बदल गई थी। बदलाव की बयार तो बही थी, शायद मीनल की दुआओं से उसकी नंदरानी के घर में भी ऐसी ही बयार बहे।

पाठकगण आप भी हर लड़की की खुशहाली के लिए दुआँ करें। 

मधु वशिष्ठ फरीदाबाद हरियाणा 

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