अधिकार कैसा? – सीमा गुप्ता

राघव और प्रीति की शादी को लगभग बाईस–तेईस साल हो चुके थे। दोनों ने जीवन की धूप–छाँव साथ देखी। छोटे-से सरकारी क्वार्टर में बिताए कई वर्ष, राघव की सीमित तनख़्वाह और फिर दो बच्चों की परवरिश। संघर्ष बहुत थे, पर दोनों ने कंधे से कंधा मिलाकर घर संभाला।

धीरे-धीरे हालात बदले। राघव की पदोन्नति हुई, अपना घर बना, बच्चे बड़े हुए। अब घर में सब कुछ था- सुविधाएँ, आर्थिक सुरक्षा और आराम। पर इन्हीं वर्षों में एक चीज़ धीरे-धीरे बदलती गई।वह था राघव का नज़रिया।

एक वक्त था जब राघव कुछ पैसे बचाने के उद्देश्य से सब्ज़ियाँ खरीदने आसपास की दुकानों को छोड़कर काफ़ी दूर पैदल चलकर सब्ज़ी मंडी जाया करता था। लेकिन अब वह बात-बात पर अपनी हैसियत का ज़िक्र करने लगा था। उसके शब्दों में गर्व से ज्यादा अपने उच्च पद और उच्च वेतन का दंभ झलकने लगा था।

रात के खाने पर भी अक्सर यही सुनाई देता…“यह घर मैंने बनाया है, ये सुख-सुविधाएँ मैंने दी हैं। तुम सब मेरी कमाई पर जीते हो!”

प्रीति चुपचाप सुन लेती। “उसका पति कमा कर ला रहा है, वह तो कुछ कमाती नहीं…”, इस ख़्याल भर से उसके जेहन में कभी प्रतिवाद का विचार आता ही नहीं था। भारतीय पितृसत्तात्मक परिवेश में बेटियों की जैसी परवरिश की जाती है, प्रीति उसी का प्रतिरूप थी। पति का प्रतिरोध करना उसके संस्कारों में नहीं था।

बच्चे भी चुपचाप सुन लेते, पलट कर कुछ कहते नहीं। वे आज के बच्चे हैं, पढ़-लिख रहे हैं, अन्याय का, गलत बातों का विरोध करना चाहिए, अच्छी तरह समझते हैं। पर वे सचमुच अपने पिता पर, उनकी कमाई पर निर्भर हैं, इसलिए विरोध करना उन्हें असम्मानजनक लगता था। लेकिन पिता की बातों से दोनों बच्चों पर एक अनकहा मानसिक दबाव हर दिन बढ़ता जा रहा था।

दूसरी ओर, सबके चुप रहने से राघव की मानसिकता को और बल मिलता गया। उसकी बातों में अब “मैं-मैं” अधिक और “हम” लगभग लुप्त हो गया था।

एक दिन राघव की बेटी अनन्या, जो बी.एससी. सेकंड ईयर की छात्रा थी, कॉलेज जाने के लिए तैयार थी। उसने राघव से कहा, “पापा, इस महीने मेरी सेकंड सेमेस्टर की फीस जाएगी। पंद्रह तारीख तक का समय…।”

उसका वाक्य पूरा होने से पहले ही राघव फट पड़ा, “ये बहुत बढ़िया है, बेटा! मेहनत मेरी, खर्च तुम लोगों का! कमाऊँ मैं, ऐश करो तुम! पैसे पेड़ों पर नहीं उगते! अपने सुखों का त्याग कर कमा रहा हूँ, और तुम सब घर बैठे मेरी कमाई पर पल रहे हो! जब खुद कमाने निकलोगे, तब तुम्हें दिन में तारे दिखेंगे!”

अनन्या का चेहरा सुर्ख पड़ गया, उसकी आँखें भर आईं। उसे लगा जैसे वह बेटी नहीं, किसी अदालत में खड़ी अभियुक्त हो। कमरा एकदम शांत हो गया। बेटी की हालत ने हमेशा चुप रहने वाली प्रीति को झकझोरा। पहली बार मुँह खोलकर उसने परिस्थिति सँभालने की कोशिश की, “राघव बच्ची से ऐसे…”

पर उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि राघव और भड़क गया, “सारा बोझ मैं उठाऊँ, और फिर मुझे ही दोष! तुम सबको मेरा अहसान मानने की बजाय लगता है कि मैं बस ए.टी.एम. हूँ!” प्रीति की प्रथम प्रतिक्रिया राघव के अहम पर वार कर गई। उसने दरवाज़ा ज़ोर से पटका और बाहर निकल गया।

अनन्या दिनभर गुमसुम रही। अभी तक तो वह पापा के अहसान जताने को उनकी सामान्य आदत समझती थी, पर आज उनकी बातें रह-रहकर उसके स्वाभिमान को चोट पहुँचा रही थीं। उसका मन इतना व्यथित हुआ कि वह कॉलेज ही नहीं जा पाई। प्रीति भी भीतर-ही-भीतर टूटती रही। शाम तक माँ-बेटी लंबी बातचीत में डूबी रही। आपसी विचार-विमर्श के बाद अनन्या ने कुछ निर्णय लिए।

शाम को वह पड़ोस में सुजाता मैडम के घर गई, जिन्होंने दो अन्य शिक्षकों के साथ मिलकर घर में ही एक छोटा कोचिंग सेंटर खोल रखा था। अनन्या ने विनती की, “दीदी, मुझे भी छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए रख लो। मैं रोज़ शाम दो घंटे का समय दे सकती हूं। आप चाहें तो ट्रायल ले लें।” सुजाता मैडम ने उसे अन्य शिक्षकों से बात कर बताने का आश्वासन दिया।

उस शाम राघव घर देर से लौटा। थका हुआ, झुँझलाया हुआ। उसे घर कुछ अलग-सा लगा- ड्राइंग रूम शांत, किचन की बत्तियाँ बंद। कमरों में रोशनी थी, पर वातावरण सन्नाटे से भरा था। उसका खाना मेज़ पर ढका रखा था। और सेंट्रल टेबल पर पेपर-वेट के नीचे कुछ लिखा हुआ एक एक बड़ा-सा काग़ज़ रखा था। 

जैसे ही  राघव ने वह कागज उठाया, उसे अनन्या की जानी-पहचानी  लिखावट दिखाई दी। उसने पढ़ना शुरू किया….

“पापा, एक बात पूछूँ?”

राघव का दिल धड़क उठा।

“क्या घर सिर्फ़ कमाई से बनता है? क्या बोझ सिर्फ़ वही उठाता है, जो पैसे लाता है?”

हर पंक्ति उसके दिल पर चोट करने लगीं…

“मम्मी ने इस घर को बनाने में अपने सपनों का त्याग किया। तो उनका त्याग किस खाते में जाएगा?

साहिल छोटा है। अभी स्कूल में पढ़ रहा है। उसकी इच्छाएं है, पर वह पढ़ाई के ख़र्च के अलावा कुछ नहीं माँगता, ताकि आपकी टेंशन न बढ़े। तो उसकी चुपचाप की गई किफ़ायतें कौन गिनेगा?

और मेरी हर बार आपकी बातें सुनकर मन मसोसकर चुप रह जाने की कीमत कौन समझेगा?”

राघव की साँसें भारी हो गईं। उसने पन्ना पलटा…

“पापा, आपने बहुत कुछ दिया है, पर शायद आप भूल गए हैं कि घर सिर्फ़ चीज़ें जुटाकर नहीं बनता। घर एक-दूसरे की जगह समझने से बनता है। 

अगर हर सुविधा का श्रेय एक ही व्यक्ति ले ले, तो बाकी लोग सिर्फ़ उपभोक्ता बनकर रह जाते हैं। क्या वह घर, घर रह जाता है?”

राघव का दिल जैसे किसी ने मुठ्ठी में कस लिया हो।

“जब रिश्ते आवाज़ न करें,

अंदर ही अंदर घुटते जाएं,

तब घर बाहर से चमकता है,

पर अंदर से खाली हो जाता है।”

आखिरी पंक्ति थी—

“पापा, जहाँ प्यार होता है, वहाँ कोई चिल्लाता नहीं। आपकी ऊँची आवाज़ ने धीरे-धीरे हमारा लगाव दबा दिया।”

राघव की आँखें नम हो गईं। उसे लगा जैसे अनन्या ने आईना उसके सामने रख दिया हो,जिसमें वह खुद को पहचान नहीं पा रहा था। 

उसे एहसास हुआ कि घर का मालिक कभी एक व्यक्ति नहीं होता। घर कई अनकहे योगदानों की साझेदारी से बनता है।

यह वही घर था, जिसकी नींव उसने मेहनत से रखी थी। पर शायद वह भूल गया था कि दीवारें प्रीति की कोमलता से, उसके साथ से, उसके कुशल गृह प्रबंधन से खड़ी हुई थीं और छत अनन्या व साहिल की हँसी से टिकती थी। बच्चे ही तो घर की रौनक हैं।

उसने पहली बार महसूस किया कि इस घर पर अधिकार केवल उसका नहीं है। यह घर सबकी साझा साँसों से, साझा संवेदनाओं, से ही घर का असली अर्थ पाता है। 

अगली सुबह राघव ने अनन्या के कमरे के बाहर धीरे से दस्तक दी, “अनु बेटा, उठोगी? अपने पापा को माफ़ कर दो, बेटा।”

अनन्या बाहर आई तो उसकी आँखें रात भर रोने से सूजी हुई थीं। राघव ने उसके सामने सिर झुका दिया, “बेटा, मैं गलत था। अहंकार ने मुझे जकड़ लिया था। मुझे लगा जैसे सब मुझ पर निर्भर हैं। पर मुझे अब अहसास हुआ कि मैं तुम सब पर निर्भर हूँ। तुम्हारी डायरी ने मुझे सच का आईना दिखाया है।”

“मेरी कमाई अगर सब कुछ होती, तो घर में इतना सन्नाटा न पसरा होता।” उसकी आवाज़ भर्रा गई।

उसने अनन्या के हाथ पकड़ लिए, “तुम सबके बिना मैं कुछ भी नहीं हूँ। कमाई साधन है, पर घर की असली नींव तुम लोग हो। तुम्हारा साथ, भरोसा और प्यार ही घर को जीवंत रखते हैं।”

अनन्या की आँखें भर आईं। प्रीति भी पास आ गई। राघव ने दोनों का हाथ थाम कर कहा, “वह #अधिकार कैसा जो रिश्तों में दूरी ला दे, तुम बच्चों  के निश्छल प्यार का मोल घटा दे, और प्रीति के मौन योगदान को छोटा कर दे! वह अधिकार नहीं, मेरा अहंकार है। इस अहंकार को मैं  इसी पल से त्यागता हूं।”

प्रीति की आँखों में वर्षों का धैर्य और उस धैर्य की जीत थी। वह मुस्कुराई, “रोज़-रोज़ हक़ जताने से रिश्ते टूटते हैं और फ़र्ज़ निभाने से दिल जुड़ते हैं। घर तब सुंदर लगता है जब कोई अधिकार न झलके, बस अपनापन चमके। सभी दिल से अपना-अपना दायित्व निभाएँ, तो हर किसी के अधिकार स्वतः सुरक्षित रहेंगे। उन्हें जताने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।”

राघव की आँखों से आँसू गिर पड़े। उसने पत्नी और बेटी दोनों को सीने से लगा लिया।

उस क्षण,घर पहली बार घर लगा क्योंकि आज उसमें अधिकार नहीं, बल्कि सहयोग और संवेदना का प्रकाश था। 

-सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)

साप्ताहिक विषय: #अधिकार कैसा

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