चाभियाँ… और एक और मौका – पूजा अरोड़ा

शरद की हल्की-ठंडी सुबह थी। बरामदे में नीम की पत्तियाँ गिर रही थीं।

बड़े ठाकुर घर में हलचल हमेशा की तरह थी…संयुक्त परिवारों में ऐसी हलचल तो सामान्य बात है..!

रसोई में चूल्हे की आवाज़, अंदर से बच्चों के उठने का शोर और ऊपर से आती जेठानी चाँदनी भाभी की तेज़, 

लेकिन व्यवस्थित आवाज़

“सिया, दाल रख दी क्या?”

“हाँ भाभी, बस चढ़ाने ही जा रही हूँ,” देवरानी सिया ने धीमे स्वर में कहा।

दोनों बहुओं की उम्र में ज़्यादा फर्क नहीं था, पर दूरी दिलों में बहुत थी।

चाँदनी पुरानी परम्पराओं की प्रतिनिधि थी..घर संभालना, तीज-त्योहार, पारी-बारी, मोल-भाव… सब वह जानती थी 

और इसी परम्परा के नाम पर घर की चाभियाँ हमेशा उसी के पास रहती थीं आखिर घर की बड़ी बहू जो थी..!

सिया को यह बात सालती जरूर थी, पर वह कहना नहीं चाहती थी कि आखिर क्यों जिम्मेदारी के समय 

छोटा बड़ा नहीं देखा जाता था परंतु 

चाभियों की जिम्मेदारी हमेशा बड़ी भाभी को ही क्यों.?

एक दिन, जब वह अलमारी से कुछ पैसे निकालने गयी और चाभियाँ न मिलने पर चाँदनी से पूछने गई,

“भाभी, वो रसोई की दवाईवाले ताले की चाभी… चाहिए थी।”

चाँदनी ने बिना उसकी ओर देखे कहा,

“मेरे पास है, बताओ क्या चाहिए? तुम खोलोगी तो चीज़ें गड़बड़ा जाएँगी।”

सिया चुप रह गयी।

बस “पाँच शब्द” लेकिन उन पाँच शब्दों ने उसे फिर याद दिला दिया कि वह अभी भी घर में “नयी बहू” ही है।

न ज़िम्मेदारी देने लायक, न विश्वास करने लायक..❗

सासु मां से शिकायत करती भी तो कैसे क्या सासु मां समझती..! नहीं वे भी तो अपने घर में बड़ी बहू थी..! एक दो बार कहने की कोशिश भी की पर सब बेकार..!

पति मनोज भी तो चुप्पी साधने को कहते थे इस विषय पर..!

“क्यों दरार डालने की सोचती हो?” 

संयुक्त परिवार में रहना छोटी बहुओं के लिए आसान नहीं होता बस यही कहकर तो समझा लेती थी अपने हृदय को..!

दोपहर को खाना खाकर घर शांत हो गया, सब आराम कर रहे थे और मर्द लोग काम पर।

अचानक ऊपर वाले कमरे से हड़बड़ाहट में आवाज आई..

“कोई जल्दी आइए!!”

ये पुकार चाँदनी की छोटी बेटी परी की थी।

सिया घबराकर ऊपर भागी।

कमरे में पहुँचकर देखा..परी का चेहरा लाल, आँखें पनीली, सांस फूलती हुई…

दमा का अटैक।

पास बैठी चाँदनी का चेहरा सफ़ेद पड़ गया।

“हे भगवान… इनहेलर कहाँ है?”

सिया दौड़ी..

“भाभी, आपका बैग? इनहेलर उसमें ही रहता है न?”

“हाँ… हाँ… पर चाभी कहाँ..? चाभी… अलमारी बंद है…”

चाँदनी काँप रही थी, हाथ काँप रहे थे अपनी बच्ची की ऐसी हालत देखकर..!

सिया ने बिना एक पल गँवाए चाबियों का गुच्छा चाँदनी की मेज की दराज से लिया, अलमारी खोली, बैग से इनहेलर निकालकर जल्दी से परी को दिया।

परी की साँसें धीरे-धीरे सामान्य होने लगीं।

“भाभी… घबराइए मत। अब ठीक है। मैं गाड़ी निकालती हूँ, डॉक्टर के पास चलते हैं,”

सिया ने शांत लेकिन मजबूत आवाज़ में कहा।

रास्ते भर भी सिया चांदनी का ढाढस बंधाती रही..!

डॉक्टर ने कहा, “देर होती तो हालत बिगड़ सकती थी। आपको बच्ची पर ज़रा और ध्यान देना होगा।”

चाँदनी का चेहरा अब भी भय से भरा था।

हॉस्पिटल की बेंच पर बैठी वह सिर पकड़कर रो रही थी।

“मैं… मैं हमेशा सब सम्भालती हूँ… पर आज… आज मैं खुद टूट गयी सिया…पता ही नहीं चला कैसे एक दम शिथिल पड़ गई..! शायद जिम्मेदारियों के बोझ के कारण..!”

सिया उसके कंधे पर हाथ रखकर बोली

“भाभी, आप अकेली क्यों समझती हैं खुद को?

हम दोनों हैं इस घर में…मिलकर सब संभालेंगे फिलहाल आप आज परी का ख्याल रखिए..!

 चाँदनी ने पहली बार उसके हाथ को हटाया नहीं।

उस दिन घर लौटकर भी चाँदनी चुप थी।

जबकि सिया उतनी ही सामान्य, उतनी ही शालीन और उतनी ही शांत।

उसने बच्चों का खाना बनाया, दादी सास को दवा दी, मेहमान को चाय दी, और सब उसी संयम से किया जैसे हमेशा करती थी..घर के मृदंग तो परी की तबियत का सुनते ही तुरंत आ गए थे..!

पर आज सबने नोटिस किया,

चांदनी की अनुपस्थिति में कितनी कुशलता से सिया ने सब संभाला जबकि सिया तो चांदनी के सामने भी सब संभालने की कोशिश करती थी ये और बात चांदनी उसे आगे होने का मौका ही नहीं देती थी..!

रात होते-होते सारा घर सिया की तारीफ कर रहा था।

“सिया ने सब अकेले संभाल लिया आज,”

“बहुत समझदार है बहू,”

“सिया ने वक़्त पर इनहेलर दे दिया, भगवान भला करे।”

चाँदनी रात को सबके लिए दूध ग्राम करते हुए ये सब चुपचाप सुन रही थी।

पहली बार उसके मन में ईर्ष्या की जगह सम्मान आया सिया के प्रति ।

जब सारे लोग सो गए, चाँदनी छत पर आई।

सिया पानी भरकर नीचे उतरने ही वाली थी कि चाँदनी ने उसे रोक लिया..

“सिया… दो मिनट बैठ सकती है?”

सिया थोड़ा चौंकी, पर बैठ गयी।

हवा में हल्की ठंडक थी।

चाँदनी ने जेब से चाभियों का गुच्छा निकाला।

वे चाभियाँ जिनके साथ उसके अहंकार, अधिकार और परम्परा सब बँधे थे।

चाँदनी ने चाभियाँ आगे बढ़ाईं।

“ये ले… आज तूने जो किया…

उसके बाद मुझे नहीं लगता कि ये सिर्फ मेरे पास रहने चाहिए।

रिश्ते चाभियों की वजह से नहीं चलते…

विश्वास की वजह से चलते हैं।”

सिया ने चौंककर पूछा,

“भाभी… आप मुझे चाभियाँ दे रही हैं?”

चाँदनी की आँखें भीग गईं।

“हाँ। पर इसीलिए नहीं… कि मुझे अब ज़रूरत नहीं।

इसलिए… कि मुझे अब समझ आया है…

कि जिम्मेदारी बाँटने से मैं छोटी नहीं हो जाती।

और तू… तू किसी से कम नहीं है।”

सिया ने चाभियाँ नहीं लीं।

उन्होंने भाभी का हाथ पकड़ लिया।

“मुझे चाभियाँ नहीं चाहिए, भाभी…”

“तो?”, चाँदनी ने पूछा।

“मुझे बस… आपका विश्वास चाहिए। बाकी सब तो साथ चलने पर मिल ही जाता है।”

चाँदनी के होंठ काँप गए।

“तू मुझे एक और मौका देगी?”

सिया हल्के से मुस्कुराई..

“रिश्ते में पहला मौका भगवान देता है…

दूसरा इंसान देता है…

और तीसरा..दिल।

हम दोनों के दिल मान जाएँ… तो हर दिन नया मौका बन सकता है, भाभी।”

अगली सुबह घर में कुछ अलग था।

चाँदनी ने पहली बार दोनों के नाम पर जिम्मेदारियों की लिस्ट बनाई..

रसोई: दोनों

दादी की दवा: सिया

बाजार: चाँदनी

बच्चों का होमवर्क: दोनों

त्योहारों की तैयारी: साझा

और चाभियाँ… दोनों के बीच।

दादी ने मुस्कुराकर कहा..

“अब लगता है घर सच में घर बन गया है।”

बच्चे कूदते हुए बोले

“अब चाची और मम्मी सहेली बन गई ! वाह!”

चाँदनी ने सिया की ओर देखा।

“अब मैं अकेली जेठानी नहीं… हम दोनों घर की बड़ी बहुएँ हैं।”

सिया ने आँखों में मुस्कान भरते हुए कहा..

“और चाभियाँ… जिम्मेदारी की साझेदारी हैं, भाभी।

अब मिलकर चलेंगे।”

तुलना, परम्परा और अहंकार की जगह विश्वास, साझेदारी और सम्मान ने ले ली।

रिश्ता कभी टूटा नहीं था..

बस समझने का मौका नहीं मिला था।

और आज…

चाभियों ने नहीं,

दिल खोलकर “एक और मौका” दिया था।

“घर चाभियों के अधिकार से नहीं, संबंधों की साझेदारी से चलता

अप्रकाशित मौलिक सर्वाधिकार सुरक्षित 

✍️ पूजा अरोड़ा दिल से दिल तक 

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