“वंशु बेटा, कल ही रक्षाबंधन है, आपने पर्व और हर्ष के लिए राखी तो भेजी है न! हम सब बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं।” मेघा दूर के शहर में रह रहे अपने जेठ की बेटी वंशिका से फोन पर पूछ ही रही थी कि तभी डोरबेल बज उठी।
“अरे! वंशिका का भेजा पार्सल आ गया।” खुश होते हुए मेघा के पति अंकुर अंदर आए।
झटपट पैकेट खोलते ही दोनों बेटे, पर्व और हर्ष, खुशी से चिल्ला उठे, “वाह! दीदी ने इतनी सुंदर राखियाँ भेजी हैं!”
मेघा अभी फोन पर ही थी। उसने वंशिका को ढेरों दुआएँ दे डालीं।
हर्ष और पर्व ने बातों-बातों में कहा, “वंशिका दीदी कितनी अच्छी हैं जो हर बार हमारे लिए राखियां भेजती हैं। काश! वे यहीं हमारे साथ रहतीं या हमारी भी एक बहन होती तो हम उसी के हाथ से राखी बंधवाते।”
बच्चों की यह सहज इच्छा मेघा के दिल की कसक को फिर जगा गई, “सब कुछ है मेरे पास। काश! एक बेटी भी होती।” उसकी आँखों में यह कसक नमी बनकर छा गई। उसके दोनों बेटे तो अपनी भावनाएँ व्यक्त कर अपने कामों में लग गए, पर मेघा दिनभर अनमनी-सी रही।
अंकुर ने मेघा को बहलाने की कोशिश की, “भैया-भाभी के बच्चे भी अपने ही होते हैं। वंशिका हमारी भी बेटी है।”
मेघा बोली, “हाँ, इसमें कोई दो राय नहीं। पर मेरे पास बेटी होती तो उस पर हर समय ममता लुटा पाती…।” उसकी आवाज़ भर्रा गई। ऐसा कई बार हो जाता। फिर बात आई-गई हो जाती।
रक्षाबंधन, जन्माष्टमी के बाद दीपावली का त्योहार नज़दीक आ गया। अक्टूबर में भी इस बार बेमौसम की बरसात जारी थी। दीवाली के उपलक्ष्य में घर की सफाई के लिए मेघा कुछ सामान लेने बाज़ार आई थी। भीड़, रोशनी और भीगी सड़कों के बीच उसकी नज़र अचानक एक दृश्य पर ठहर गई। सड़क किनारे, पानी टपकाती छतरी के नीचे, लगभग आठ वर्ष की एक बच्ची पर्यटकों के जूते साफ़ कर रही थी। उसका चेहरा बारिश में भीगा हुआ था, पर मुस्कान ऐसी जैसे दुनिया की कठिनाइयाँ उसके हौसले को छू भी न पाती हों।
मेघा बिना कुछ सोचे उस बच्ची के पास पहुँच गई। “नमस्ते आंटी, मेरा नाम किरण है।” उसने उत्साह से कहा। मेघा जैसे सारी सुध-बुध खोकर उस बच्ची की चमकती आँखों और मोहक मुस्कान में खो गई।
“आंटी, चलिए न, मेरी दुकान दिखाती हूँ।” किरण का आग्रह सुनकर ही मेघा होश में आई। उस मासूम निमंत्रण में एक अजीब-सी ताक़त थी। मेघा बिना प्रतिरोध के उसके पीछे चल दी।
थोड़ा आगे, कुछ टूटे-से बेंच लगे हुए एक स्टॉल पर उसकी माँ दीपावली के लिए हस्तनिर्मित सामान बेच रही थी। रंग-बिरंगी झालरें, वंदनवार, लड़ियाँ, मोमबत्तियाँ, मिट्टी के दीये, मूर्तियाँ और खिलौने आदि। किरण की माँ ने बताया कि वे दोनों मिलकर इन्हें बनाती हैं और बारिश में भीग जाएँ, तो दिन की कमाई आधी रह जाती है। तब उन्हें जूते साफ़ कर किसी तरह काम चलाना पड़ता है। यह सब जानकर मेघा ने मन ही मन दीपावली का सामान यहीं से लेने का निश्चय कर लिया।
“ये झालर मैंने बनाई है,” किरण ने उठाकर दिखाई। जाने क्यों, वही मेघा को सबसे सुंदर लगी! मेघा ने बिना मोल-भाव के वे सारे सामान ले लिए, जो-जो किरण खुश होकर दिखाती जा रही थी। विदा लेते समय मेघा ने प्यार से किरण के सिर पर हाथ फेरा। तभी किरण की माँ धीमे से बोली, “दीदी, किरण पढ़ना चाहती है, पर दुकान से समय नहीं निकाल पाती। काश इसे भी कोई मौका मिल जाए।”
इतनी प्यारी बच्ची पढ़ाई से वंचित है, यह सुनकर मेघा की आँखें भर आईं। उधर किरण उसी तरह मुस्कुरा रही थी, “मम्मी, आप उदास मत हों। मैं तो खुश हूँ और एक दिन डॉक्टर बनूँगी, पक्का!”
मासूम, आत्मविश्वासी मुस्कान जानती ही नहीं थी कि डॉक्टर बनने की राह शिक्षा से होकर गुजरती है। मेघा ने उसे चॉकलेट-बिस्किट दिए तो किरण की मुस्कान और फैल गई, जैसे उसे अचानक दुनिया का अनमोल ख़ज़ाना मिल गया हो। बस इन्हीं पलों से मेघा और किरण के बीच एक अनकहा-सा, कोमल रिश्ता पनपने लगा।
दीपावली नज़दीक थी, तो मेघा लगभग रोज़ बाज़ार आती। पर, पता नहीं क्यों, वह किरण से मिले बिना न रह पाती! उनके स्टॉल से कुछ न कुछ हर बार खरीद लेती। किरण का हौसला हर दिन जैसे मेघा को भीतर तक बदल रहा था। उसका किरण के प्रति खिंचाव बढ़ रहा था। धीरे-धीरे मेघा को महसूस होने लगा, “शायद भगवान ने मुझे एक बेटी दे दी है, अपनी ममता लुटाने के लिए और उसका वर्तमान और भविष्य सँवारने के लिए।”
ये सब ख़याल दृढ़ होते ही मेघा ने अपने पति अंकुर से विचार-विमर्श किया और दोनों ने किरण को पढ़ाने-लिखाने का, उसकी संपूर्ण शिक्षा का खर्च वहन करने का सहर्ष निर्णय ले लिया।
पर अक्टूबर में एडमिशन हो पाएगा क्या? यह विचार आते ही मेघा ने वंशिका को फोन किया। वंशिका ने बताया, “चाची, आजकल बी.एड. में हम आर.टी.ई. एक्ट के बारे में ही पढ़ रहे हैं। छह से चौदह साल तक का हर बच्चा कभी भी स्कूल जॉइन कर सकता है, साल के किसी भी समय। सरकारी स्कूल किसी भी महीने में ऐसे बच्चे को बिना रोक-टोक एडमिट करते हैं। निजी स्कूल भी अगर सीट खाली हो, तो बीच में एडमिशन दे देते हैं।”
अगले ही दिन पति-पत्नी दोनों पास के स्कूल गए और प्रधानाचार्या से पूरी बात की। एक- दो दिन में किरण का एडमिशन हो गया।
पर नियति को कुछ और ही मंज़ूर था। दीपावली की छुट्टियों के अंतिम दिन मेघा फिर बाज़ार गई तो किरण की दुकान उजड़ी पड़ी थी। वहां न किरण थी, और न ही उसकी माँ।
“वे तो यह दुनिया छोड़कर चले गए। अचानक हुई एक भयंकर सड़क दुर्घटना ने दोनों को मौके पर ही निगल लिया,” पास के दुकानदार ने बताया। मेघा वहीं जड़ हो गई। नियति ने किरण को उससे मिलाया भी… और यूँ ही छीन भी लिया। यह घटना मेघा को बुरी तरह तोड़ गई।
घर में पति अंकुर और बेटे मेघा को बहलाने की कोशिश करते, पर सब व्यर्थ। ऐसे में वंशिका एक सप्ताह की छुट्टी लेकर आई। उसने अपनी मेघा चाची को हौसला दिया। उसे नए नज़रिए से देखना सिखाया, “चाची, किरण जैसी बहुत-सी बच्चियाँ हैं जो काम या गरीबी की वजह से स्कूल नहीं जा पातीं। किरण का पढ़ने का सपना अधूरा रह गया। लेकिन अगर आप किरण जैसी और बच्चियों के सपनों को पंख देंगी, तो यही किरण के प्रति आपकी सच्ची ममता, सच्ची श्रद्धांजलि होगी। अपने आप को एक और मौका दीजिए…”
भीगी आँखों के साथ मेघा के मुख से अस्फुट स्वर निकले, “एक और मौका…..”
वंशिका ने मेघा के आँसू पोंछते हुए कहा, “हाँ चाची, एक और मौका…किरण के लिए, मेरे लिए, हम सब के लिए, और किरण जैसी और बच्चियों के लिए…..”
मेघा ने हामी भरते हुए वंशिका को गले लगा लिया। वंशिका की बातों ने धीरे-धीरे मेघा के भीतर बुझी हुई रोशनी को फिर जगा दिया। उसने वंशिका के लिए गहरा आभार महसूस किया। किरण के जाने के दुख में वही उसकी सबसे बड़ी ताक़त बनकर खड़ी थी।
कुछ समय लेते हुए मेघा ने स्वयं को सामान्य किया। वह एक सामाजिक संस्था से जुड़ गई, जो गरीब बस्तियों में बेटियों की पढ़ाई के लिए काम करती थी। उसने संस्था के सभी कामों में हाथ बँटाना शुरू कर दिया, जैसे कि घर-घर जाकर बच्चियों की जानकारी जुटाना, पढ़ाई का सामान दिलवाना, किसी के लिए टिफ़िन की व्यवस्था करना, किसी का स्कूल में दाख़िला करवाना।
हर नई बच्ची की मुस्कान में मेघा को किरण की वही बारिश वाली मुस्कान दिखाई देती। अंकुर भी ऑफिस के बाद उसके कार्य में सहयोग देते। वंशिका फोन के माध्यम से अपनी चाची का उत्साहवर्धन करती रहती। हर्ष और पर्व भी अपनी मम्मी को पूरा सहयोग देते। मेघा को अपने जीवन का ध्येय मिल चुका था।
मेघा की किरण से मुलाक़ात एक संयोग थी…
उसका बिछड़ना एक अधूरापन….
लेकिन कुछ ही दिनों में उसके साथ बना ममतामयी बंधन मेघा के जीवन को एक नई दिशा दे गया। मेघा ने अपना शेष जीवन गरीब बच्चियों के उत्थान में समर्पित कर दिया।
-सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)
साप्ताहिक विषय: #एक और मौका