“कंडक्टर साहब, यहीं उतार दीजिए… मोती विहार स्टॉप आ गया क्या?”
“हाँ हाँ, यहीं है, उतर जाओ अम्मा जी,” बस रुकते ही कंडक्टर ने आवाज़ लगाई।
शोभा ने एक हाथ में स्टील का डब्बा, दूसरे में बैग सँभाला और धीरे-धीरे बस से नीचे उतरीं। पीछे से महेन्द्र भी सैकड़ों कोशिशों के बाद बस की सीढ़ियाँ पार कर पाए।
“अरे धीरे, संभल कर!” शोभा ने झुंझलाते हुए कहा, “कितनी बार कहा, कम सामान लिया करो, खुद सीढ़ी नहीं उतरती तुमसे।”
“अकेला नहीं ला रहा, तुम्हारे लिए भी तो मिठाई, अचार, नमक–मिर्च सब रखा है इसमें,” महेन्द्र ने हाँफते हुए जवाब दिया, “वैसे भी बेटा–बहू के घर जा रहे हैं, खाली हाथ जाते क्या?”
दोनों ने इधर-उधर देखा। चौड़ा-सा रोड, दोनों तरफ ऊँची-ऊँची इमारतें, सिक्योरिटी गार्ड, गाड़ियों की लाइन…
“बिल्डिंग नंबर 7, कृष्णा रेजीडेंसी…” महेन्द्र ने कागज़ पर लिखा पता पढ़ा, “शायद उधर वाला गेट होगा।”
शोभा का चेहरा हल्का-सा कसैला हो उठा,
“और तुम्हारी बहू को तो हमारा आने का पता था। दो दिन पहले ही फोन पर बोल दिया था—‘पापा, अगली हफ्ते आ रहे हैं।’ कम से कम ऑटो तक तो आती लेने, या बस स्टैंड पर ही खड़ी रहती। आजकल की बहुएँ भी न…”
“अरे रहने दो, ऑफिस गई होगी,” महेन्द्र ने समझाने की कोशिश की, “वो स्कूल में है न, परीक्षा चल रही होगी बच्चों की। छुट्टी थोड़ी होगी उसे।”
“तो क्या हुआ?” शोभा ने बात काटते हुए कहा, “हमारा आना भी कोई छोटी बात है क्या? सब ससुराल वालों से पूछो, बहू तो ऐसे दुलर–दुलर कर ले आती हैं। यहाँ तो बस वाली से ही पूछते फिर रहे हैं कि अमुक बिल्डिंग कहाँ है।”
दोनों धीरे-धीरे गेट की तरफ बढ़े। सिक्योरिटी गार्ड ने नाम पूछा, फ्लैट नंबर चेक किया और फोन पर ऊपर कॉल लगाया,
“मैडम तो घर पर नहीं हैं, पर आपकी चाबी पड़ोस में छोड़कर गई हैं। चौथी मंज़िल, फ्लैट 402 के पास। आप वहाँ चले जाइए, वो चाबी दे देंगे।”
“मतलब घर पर ताला लगा है,” शोभा की आँखें और सिकुड़ गईं, “हमारी बहू को पता था कि हम आ रहे हैं, फिर भी घर बंद करके चली गई? वाह भई वाह!”
“अरे पहले ऊपर तो चलो,” महेन्द्र ने थका हुआ-सा कहा, “सीढ़ी–लिफ्ट देख लें, फिर बहू पर केस चलाना।”
दोनों लिफ्ट से ऊपर पहुँचे। 402 के दरवाज़े पर नाम की प्लेट लगी थी—“निखिल – आराध्या शर्मा”। शोभा ने हल्का-सा भौं सिकोड़ लिया, “देखा? औरों के नाम की प्लेट बनवा रखी है हमारी बहू ने। खुद की तो…” फिर खुद ही बात अधूरी छोड़कर बेल दबा दीं।
दरवाज़ा खुला तो सामने एक हँसमुख-सी औरत थी, गले में मंगलसूत्र, आँखों पर मोटा-सा चश्मा।
“अरे नमस्ते! आप लोग अयुष के मम्मी–पापा होंगे न?” उसने तुरंत पहचान लिया, “मैं आराध्या हूँ, सामने वाले फ्लैट में रहती हूँ। आपकी बहू प्रिया सुबह जाते-जाते चाबी दे गई थी, कह रही थी—‘आंटी, मम्मी–पापा आ रहे हैं, मैं दोपहर तक नहीं आ पाऊँगी, कृपया उन्हें चाबी दे दीजिएगा।’ आइए, पहले अंदर आइए, रास्ते से आए हैं, थोड़ा पानी–चाय पी लीजिए, फिर चाबी ले कर आराम से घर जाइएगा।”
“नहीं–नहीं, हम यहीं ठीक हैं,” शोभा ने औपचारिकता निभाई, “आप चाबी दे दीजिए, हम खुद ही चाय बना लेंगे।”
“अरे, इतनी जल्दी क्या है? अभी तो आप लोग थके होंगे। दो घंटे से ज्यादा का सफर है गाँव से। आप बस बैठिए, मैं चाय बनाती हूँ, साथ में हल्का-फुल्का नाश्ता भी कर लेते हैं। फिर आराम से अपने घर जाइएगा।”
आराध्या की आवाज़ में इतना अपनापन था कि शोभा का “ना” हलक में ही अटक गया। उन्होंने महेन्द्र की तरफ देखा, महेन्द्र ने आँखों ही आँखों में इशारा किया—बैठ जाते हैं।
“ठीक है, बस पाँच मिनट,” शोभा ने हार मान ली, “वैसे भी अभी ऊपर जाकर चूल्हा चकाचक करने में समय लगेगा।”
कुछ ही देर में टेबल पर चाय, बिस्कुट, नमकीन आ गया। आराध्या बच्चों की तरह सवाल पूछने लगी,
“तो आप लोग पहली बार आ रहे हैं यहाँ? गाँव में सब कैसे हैं? अयुष तो बड़ा ही कमाल का लड़का है, कसम से! और आपकी बहू प्रिया… दिन रात भागती दौड़ती रहती है। कभी सोसाइटी मीटिंग, कभी स्कूल, कभी किसी गरीब बच्ची की फीस के लिए चंदा…”
“हाँ हाँ, कमाल की तो है ही,” शोभा के स्वर में छिपा व्यंग्य साफ था, “हमारे आने के दिन ही घर बंद करके चली गई है कमाल दिखाने। फोन भी नहीं किया, ना कोई संदेश। यही तो हमारा दर्द है बिटिया, आजकल की बहुएँ घर को घर नहीं समझतीं, हॉस्टल समझ लेती हैं।”
आराध्या मुस्कुरा दी,
“देखिए, मैं तो बस एक बात जानती हूँ—कोई रोज़–रोज़ इतना सब नहीं कर सकता जब तक अंदर से अच्छा न हो। प्रिया ने सुबह मेरे लिए चाय तक बनाई, अपनी सास–ससुर की आने की खुशी में। फिर बोली—‘आंटी, मैं आज निःशुल्क मेडिकल कैंप में जा रही हूँ झुग्गी बस्ती में, वहीं बच्चों की स्वास्थ्य जाँच करनी है। देर हो जाएगी, पर लौटते ही सबसे पहले मम्मी–पापा के पैर छुऊँगी।’ अच्छा छोड़िए, चाय ठंडी हो जाएगी।”
शोभा के होंठ थम गए। मेडिकल कैंप? प्रिया ने तो बस इतना कहा था कि “आज स्कूल में खास प्रोग्राम है, देर हो जाएगी।”
“आपकी बहू ने थोड़ा-थोड़ा हम सबको भी अपनी तरफ कर लिया है,” आराध्या हँसते हुए बोली, “कभी–कभी रात की सब्ज़ी बच जाए तो हमारे घर भी भेज देती है—‘आंटी, आप काम से थक जाती होंगी, आज खाना मत बनाइए’ कहकर। अब आप ही बताइए, कोई बुरी बहू ऐसा करेगी?”
शोभा कुछ कहती इससे पहले ही महेन्द्र ने बात बदल दी,
“अच्छा बेटा, अब चाबी दे दो, बहुत एहसान हुआ। नहीं तो हमें तो यह भी पता नहीं था कि चौथी मंज़िल पर लिफ्ट भी है या नहीं।”
चाय पीकर, थोड़ा सुस्ता कर वे अपने फ्लैट की तरफ चले। दरवाज़ा खोलते ही ताज़ा फर्श की ख़ुशबू आई। हॉल की मेज़ पर ताज़े फूलों का गुलदस्ता रखा था, और उसके साथ छोटी-सी पर्ची—
“वेलकम होम माँ–पापा।
फ्रिज में नाश्ता और सब्ज़ी रख दी है। गैस पर चाय का दूध उबला है, चाहें तो गरम कर लीजिए। मैं शाम तक आते ही आपकी सब पसन्द की चीज़ें बनाऊँगी।
– प्रिया”
शोभा ने पर्ची हाथ में पकड़े-पकड़े ही पूरे घर पर नज़र दौड़ाई—परदे धुले हुए, सोफ़े पर साफ सफेद कवर, किचन में बर्तनों की चमक। गैस के पास ही स्टील के डब्बों पर चिटें लगी थीं–
“मटर–पनीर, बस गरम करना है”,
“सूजी का हलवा – शक्कर कम, पापा की पसन्द”,
“उपमा – माँ के लिए हल्का नाश्ता।”
“देखा?” महेन्द्र ने धीमे से कहा, “हर झाड़ू का एक कोना छूट ही जाता है, लेकिन यहाँ तो कोना–कोना चमक रहा है। बहू ने खाली घर छोड़कर नहीं रखा, हमारा इंतज़ाम करके गई है।”
शोभा ने कुछ नहीं कहा। दिल के किसी कोने में उठी कोमल-सी लहर को उन्होंने अब भी ज़िद की दीवार से ढँक रखा था।
“तैयार होकर जाती तो क्या बिगड़ जाता? बैग उठाकर स्टेशन तक आती, हमारे साथ ऑटो में बैठती तो क्या हो जाता?” उनके भीतर का पुराना संस्कार प्रश्न पूछ रहा था।
थकान ज़्यादा थी, दोनों ने तय किया कि थोड़ी देर लेट जाएँ। शाम के पाँच बजने को थे कि दरवाज़े की घंटी बजी।
“शायद प्रिया हो,” महेन्द्र उठने लगे।
“रुको, मैं देखती हूँ,” शोभा ने पल्ला संभालते हुए दरवाज़ा खोला।
बाहर प्रिया खड़ी थी—चेहरा पसीने से तर, आँखों के नीचे हल्की-सी सूजन, कंधे पर झोला लटकाए, हाथ में कुछ पैकेट। उसने दरवाज़े पर खड़े-खड़े झट से बैग नीचे रखा और झुककर शोभा के पैर छू लिए,
“माँ… देर हो गई। फोन की बैटरी सुबह ही बैठ गई थी, फिर कैंप में नेटवर्क भी नहीं मिल रहा था। आप बहुत थक गई होंगी न? मुझे माफ़ कर दीजिए, आपके आने के दिन ही…”
शोभा का हाथ अनायास ही उसकी पीठ पर चला गया। इतने अपनेपन से बोला हुआ “माँ” शब्द उनके भीतर कहीं बहुत गहरे तक उतर गया था।
“अंदर आ जाओ पहले,” उन्होंने हल्का-सा मुस्कुराते हुए कहा, “कितना पसीना–वसीना हो रहा है, पहले हाथ–मुँह धो लो।”
प्रिया ने एक नज़र महेन्द्र पर डाली,
“पापा, आप भी आए… कितना अच्छा लग रहा है आपको यहाँ देखकर।”
“हम तो सोच रहे थे कि बहू हमसे नाराज़ है,” महेन्द्र ने छेड़ा, “ऊपर आने तक तो हम पड़ोसियों की मेहरबानी पर जी रहे थे।”
प्रिया ने साँस भरते हुए देखा,
“आप लोगों को क्या बताऊँ… कल रात भर नींद नहीं आई। आज झुग्गी में जो मेडिकल कैंप था, वो महीनों से प्लान हो रहा था। ऐसे बच्चों के लिए था जो साल भर में डॉक्टर के पास जाने की भी हिम्मत नहीं कर पाते। स्कूल से भी हुक्म था कि मैं वहाँ रहूँ। लेकिन मन यहाँ, घर पर आप दोनों के साथ था। मैंने सोचा था, कैंप से सीधा भागकर स्टेशन पर आ जाऊँगी पर आपका बस वाला टाइम मुझे पता नहीं था। इसीलिए पड़ोस में चाबी छोड़ दी, घर साफ कर दिया, खाना–नाश्ता रख दिया। सोचा, आप आते ही घर को अपना-सा महसूस करेंगे।”
शोभा का गला भर आया। वे चुपचाप कुर्सी पर बैठ गईं। हाथ अब भी प्रिया के सिर पर था, जिसे वे धीरे-धीरे सहला रही थीं।
“कैंप में कैसा रहा?” महेन्द्र ने बात बदली।
प्रिया की आँखें चमक उठीं,
“पापा, आप रहते तो यकीन नहीं करते… इतने से बच्चे, फटे कपड़ों में, बड़ी-बड़ी आँखों से सूई देखते ही घबरा जाते थे। एक छोटी सी बच्ची थी, रीनू। उसका बुखार उतर ही नहीं रहा था, और माँ के पास पैसे नहीं थे। जब हमने फ्री दवा दी, तो वो मेरी उंगली पकड़ कर बोली—‘दीदी, आप रोज़ आओगे?’… बस, दिल वहीं छूट गया मेरा।”
शोभा ने ध्यान से उसे देखा। ये वही लड़की है? जिसे मैंने फोटो देखकर कहा था कि नाक पर तो कुछ नहीं है, न पीपल की डाली, न उड़ते हुए आँचल… आजकल के बच्चों को परिवार से ज़्यादा अपने करियर की पड़ी रहती है… उन्हें अपना ही पुराना वाक्य याद आया और वे भीतर ही भीतर सिमट गईं।
प्रिया ने झट से बैग खोला,
“और ये आपके लिए कुछ छोटा-सा… देखिए।”
उसने एक हल्का, लेकिन बहुत सुंदर क्रीम रंग का स्वेटर निकाला। गर्दन और बाँहों पर हाथ से बुनी जैसी डिज़ाइन थी।
“ये… मेरे लिए?” शोभा ने आश्चर्य से पूछा।
“हाँ माँ,” प्रिया ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैंने खुद नहीं बुना,” और शरारत से हँस पड़ी, “पर हॉस्पिटल के पास एक बूढ़ी अम्मा बैठती हैं, पुराने ऊन से नयी चीज़ें बनाती हैं। मैंने उनको आपकी फोटो दिखाकर कहा—‘ऐसा स्वेटर बना दीजिए जिसकी गरमी मेरे गले लगने से ज्यादा हो।’ उन्होंने दो महीनों में ये तैयार किया। सोचा, जब आप आएँगी तो पहली बार आपको अपने हाथों से कुछ पहनाऊँगी।”
शोभा से अब रहा नहीं गया। उन्होंने स्वेटर को अपनी गोद में रखा और एकदम से प्रिया को गले लगा लिया।
“मैंने… तुझसे कितनी नाइंसाफी की है न बेटा,” उनके मुँह से खुद-ब-खुद निकल गया, “तू हर बात में हमारा सोचती है, और मैं… बस एक ही बात पकड़ कर बैठी रही—कि मेरी पसन्द की बहू नहीं आई। मुझे माफ़ कर दे।”
प्रिया थोड़ा हड़बड़ा गई,
“अरे माँ, आप कैसी बातें कर रही हैं… मुझे आपका गुस्सा भी प्यार ही लगता है। मैंने तो हमेशा यही सोचा कि एक दिन आप सच में मुझे बेटी की तरह अपनाएँगी… बस उस दिन का इंतज़ार था।”
“और आज वो दिन आ गया,” महेन्द्र ने मजाक में कहा, “अब तुम्हें कोई बचा नहीं सकता। ये औरत जब किसी को अपने दिल से लगा ले, तो फिर उसकी टाँग खिंचाई, डाँट, आदेश सब प्यार के ही अलग-अलग स्वाद में आएँगे।”
तीनों हँस पड़े।
रात को खाना खाते समय शोभा ने देखा—प्रिया ने उनकी थाली में ठीक वैसे ही दो रोटियाँ रखी थीं, जैसी वो खुद अपने लिए गाँव में रखती थीं—थोड़ी मोटी, किनारों से गुप्पे-गुप्पे, और ऊपर से हल्का घी।
“तुझे कैसे पता मैं पतली रोटी नहीं खाती?” उन्होंने पूछा।
प्रिया ने सहजता से कहा,
“आप गाँव में थीं तो अक्सर फोन पर आपकी बातें सुनती थी—कभी चाची से, कभी मौसी से। ‘मुझे तो मेरी मोटी रोटियाँ ही भाती हैं’… ये लाइन आप शायद हर तीसरा दिन बोलती थीं। बस, वहीं से याद रह गया।”
शोभा सोचने लगीं—उन्होंने खुद अपने बेटे से मोबाइल पर तो कितनी बार कहा होगा, “तुम्हारी बहू तो सारा दिन बस बाहर के खाने की फोटो डालती रहती है, घर में कुछ बनाती भी है या नहीं?”… जबकि सच ये था कि उन्होंने कभी सीधे प्रिया से पूछा ही नहीं कि वो क्या करती है, कैसी है, क्या सोचती है।
उनका सारा निर्णय बस शादी की एक फोटो, दो मुलाक़ातों और अपनी पसन्द न मान पाने की ज़िद पर टिका था।
दूसरे दिन सुबह जब शोभा की नींद खुली, तो किचन में हल्की-सी खटर-पटर की आवाज़ आ रही थी। वे उठकर गईं तो देखा—प्रिया और महेन्द्र दोनों साथ में आलू छील रहे हैं।
“अरे-अरे, पापा जी, आप क्यों आलू छील रहे हैं?” उन्होंने पूछा।
“बहू ने पकड़ा दिया है छुरा,” महेन्द्र हँसते हुए बोले, “कह रही है—अगर आज की आलू–पूरी सच में त्यौहार वाली बनानी है, तो ससुर जी भी योगदान देंगे। मैंने सोचा, क्यों नहीं? घर तो हम सबका है।”
“और माँ,” प्रिया ने आगे कहा, “आज आपका कोई काम नहीं है। आप बस अपनी पुरानी डायरी निकालिए, जिसमें आपने अचार–पापड़ की रेसिपी लिखी थी। मैं और पापा किचन सम्भाल लेंगे, आप हमें शब्दों से मार्गदर्शन देती रहिएगा।”
शोभा ने पहली बार खुद को “कमरे के कोने में रखी उपयोगी चीज़” नहीं, बल्कि “ज़रूरी और सम्मानित” महसूस किया। वे कुर्सी पर बैठकर, अपने चश्मे के पीछे से, डायरी की पीली पन्नों पर लिखी इबारत पढ़तीं, और प्रिया–महेंद्र को बतातीं—“नहीं, मेथी अभी मत डालना, पहले आँच कम कर लो… हाँ, बस अब गैस बंद कर दो, वरना जले की गंध आ जाएगी।”
धीरे-धीरे किचन उनकी हँसी और मसालों की महक से भर गया।
शाम को पड़ोस की आराध्या आ गई,
“अरे वाह! आज तो पूरे फ्लोर में महक फैल रही है। आंटी, लगता है गाँव वाली रसोई शहर आ गई।”
शोभा ने गर्व से कहा,
“हाँ बेटा, आज मेरी बहू ने मेरी रेसिपी से अचार डाला है। कल तुम भी आकर खा कर जाना, और… सुन, तेरी बहू को कहना, उसके बिना ताला–चाबी काम नहीं चलता, पर उसके बिना दिल–दिमाग़ भी नहीं चलता।”
सभी हँस पड़े।
एक हफ्ता पलक झपकते ही बीत गया। शोभा अब हर छोटी–छोटी बात पर प्रिया के पक्ष में खड़ी हो जातीं—
“हाँ, स्कूल का काम है तो देर से आएगी, हम क्या बैठे हैं यहाँ, दाल लगाकर रख देंगे।”
“अरे तुम क्यों बार–बार कह रहे हो, ‘बहू ने चाय नहीं बनाई।’ तुम भी तो बना सकते हो, बहू कोई चाय–मशीन तो नहीं है।”
“बहू के पास दिमाग भी है, दिल भी… उसे अपने तरीके से दोनों चलाने दो।”
महेन्द्र कभी-कभी छेड़ते,
“लगता है गाँव वाली शोभा को किसी ने बदल दिया।”
शोभा मुस्कुरा देतीं,
“बहू के प्यार ने बदला है। पहले मैं बहू को ‘निखिल की चुनी हुई लड़की’ मानती थी। अब ‘हमारी प्रिया’ लगती है। फर्क तो पड़ेगा ही।”
जाने के दिन सुबह–सुबह प्रिया ने उनके बैग के ऊपर कुछ पैकेट रख दिए,
“ये पापड़ अपने हाथ से सुखाए हैं, माँ। जब भी तलोगी, मेरी याद आएगी। यह बाबा जी के लिए शुगर–फ्री लड्डू हैं, गाँव में उनके दाँत का भी ध्यान रखना पड़ेगा न। और… ये आपका स्वेटर तो आप पहन ही जाएँगी, ठंडी हवा चल रही है बाहर।”
बस स्टैंड पर गाड़ी आने तक तीनों चुपचाप साथ खड़े रहे। बस की सीटी बजी, ड्राइवर ने आवाज़ लगाई, “बिठूर, शिव नगर, गंगापुर…”
शोभा ने प्रिया का चेहरा दोनों हथेलियों में पकड़ लिया,
“बेटा, मैंने शुरुआत से ही तुझ पर कई गलत फैसले थोपे, तुझे कभी समझने की कोशिश ही नहीं की। बस इतना वादा कर, अगर कभी मैं फिर से पुराने ढर्रे पर चले जाऊँ, तो मुझे बेझिझक डाँटना। कह देना—माँ, आप फिर से बहू–बहू खेल रही हैं, बेटी की तरह सोचिए।”
प्रिया की आँखों में भी नमी थी,
“आप बस इतना वादा करिए माँ, कि आप जब भी शहर आएँगी, पहले मुझे फोन नहीं, आदेश करेंगी—‘बहू, फलाँ दिन तक की छुट्टी ले ले, तेरी माँ आ रही है।’ बाक़ी हम संभाल लेंगे।”
बस में बैठते समय महेन्द्र ने हँसकर कहा,
“चलो शोभा, अब तो तुम्हारा वो डायलॉग बदल जाना चाहिए—‘मेरी बहू नहीं, मेरी बेटी है।’ गाँव पहुँचते ही सब को सुनाना इस बार।”बस चल पड़ी। खिड़की से बाहर देखते हुए शोभा ने सोचा—
कितना आसान होता है किसी के बारे में राय बना लेना, बिना उसके मन की गलियों में कभी झाँके। और कितना मुश्किल होता है वो गलियाँ पार करके उसके दिल के आँगन तक पहुँचना… पर जिस दिन पहुँच जाओ, उस दिन ‘अनचाही’ भी उतनी ही ‘मनचाही’ लगने लगती है। बस, ज़रा-सी जगह देनी होती है… अपने अहं में भी, और अपने घर में भी।