रिश्तों की नई शुरुआत – निभा राजीव

सुबह के नौ बज चुके थे, पर मीरा अभी तक अपने कमरे से बाहर नहीं निकली थी। खिड़की के परदे आधे खिंचे हुए थे, कमरे में हल्की-सी धुंधलाहट थी। बिस्तर पर बैठी वह खाली नज़र से दीवार को देख रही थी। पिछले पंद्रह दिनों से वह मायके में ही थी और उसके चेहरे से जैसे मुस्कान ने किनारा कर लिया था।

रसोई में चाय बनाती मालती की नज़र बार-बार कमरे की तरफ उठ जाती।

“आज भी बाहर नहीं आई अभी तक…” उसने धीमे से कहा।

बगल में बैठे रामकिशोर जी ने चिंतित आवाज़ में पूछा, “कल रात रो रही थी क्या? आँखें सूजी हुई लग रही थीं उसकी।”

“कहती तो कुछ नहीं… पूछो तो बस यही बोल देती है, ‘थोड़ा थक गई हूँ, आराम कर रही हूँ।’ मैं माँ हूँ, उसके दिल का बोझ देख रही हूँ, पर ज़बान से कुछ निकलता ही नहीं।” मालती ने आह भरते हुए कप में चाय डाली।

“कब तक यूँ ही देखते रहेंगे? दामाद का भी एक फोन नहीं पिछले इतने दिनों से। शादी को अभी कितने ही महीने हुए हैं, और ये हाल?” रामकिशोर जी परेशान होकर बोले।

“पहले मीरा से ही तो बात साफ़-साफ़ सुन लें,” मालती बोली, “तुम अभी समर से बात करोगे, बिना पूरी बात जाने, तो हो सकता है बात और उलझ जाए। पहले उसकी बहन आ जाए, फिर दोनों बहनें बैठ कर बात करें, शायद कुछ खुल कर बता दे।”

आज ही उसकी बड़ी बहन वंदना बच्चों के साथ छुट्टियाँ बिताने मायके आ रही थी।

दोपहर तक घर में बच्चों की खिलखिलाहट गूँजने लगी। वंदना ने आकर माँ के गले लगते हुए कहा, “अरे, कितना बदल गई हो मम्मी, बालों में सफ़ेद कितने बढ़ गए।”

“बुढ़ापा आया है बेटी, तेरी चिंता में,” मालती हँसने की कोशिश करती बोली।

सब्ज़ियों की थैलियाँ, बच्चों के बैग कमरे में रखे गए। कुछ देर में खाना लगा, बच्चे कार्टून में व्यस्त हो गए।

वंदना प्लेट समेटकर मीरा के कमरे की तरफ बढ़ी। दरवाज़े पर दस्तक दी, “मैडम, अंदर आने की इजाज़त है?”

अंदर से हल्की सी आवाज़ आई, “आओ दीदी…”

वंदना ने कमरे में कदम रखते ही महसूस कर लिया कि हवा में कोई भारीपन चिपका हुआ है। मीरा के चेहरे पर फीकी मुस्कान आई, पर आँखें खाली लग रही थीं।

“क्या बात है मैडम, छुट्टियाँ तो मानो तुम्हीं ने दी हों खुद को। ससुराल वालों को भी याद नहीं आती?” वंदना ने मज़ाक किया, पर आँखें उसकी प्रतिक्रियाएँ परख रही थीं।

“बस… थोड़ी माँ के पास रहना था।” मीरा ने तकिये की सिलाई से धागा खींचते हुए कहा।

“और जीजाजी? उनसे बात होती है कि नहीं?”

“कभी–कभार…” मीरा ने अनमने अंदाज़ में कहा, फिर बात को बदलते हुए बोली, “दीदी, बच्चों के लिए चॉकलेट लाई हो?”

“मीरा,” वंदना ने धीरे से उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया, “मुझसे नाटक मत कर। जितना खुश दिखने की कोशिश कर रही हो न, उतना ही साफ़ दिख रहा है कि भीतर से टूट रही हो। बता, क्या बात है?”

अचानक मीरा की आँखें भर आईं। वह कुछ देर खुद को रोकती रही, फिर फफक कर रो पड़ी। वंदना ने उसे सीने से लगा लिया।

“बोल, कितनी देर तक सीने में पत्थर रखे घूमेगी?”

मीरा सुबकते हुए बोली, “दीदी… मैं और आयुष… हम दोनों… कुछ भी एक जैसा नहीं सोचते। पहले तो लगा, वक्त के साथ समझ बढ़ जाएगी, पर रोज़-रोज़ नई बात, नया झगड़ा…”

“ससुराल वाले तंग करते हैं?”

“नहीं, ऐसा कुछ नहीं है,” मीरा ने सिर हिलाया, “सब लोग अपने में व्यस्त रहते हैं। सासू माँ कभी-कभार टोक देती हैं, पर वो तो हर घर में होता होगा। असली समस्या तो आयुष है…”

वंदना चुपचाप सुनती रही।

मीरा बोलती गई, “उसे लगता है, घर वही चलाता है, फैसले वही करेगा। ऑफिस में उसकी अपनी दबंग इमेज है ना, वही घर में लेकर आ जाता है। मैं कुछ सजावट बदल दूँ, तो कहता है—‘यहाँ मत छेड़ा कर, सब गड़बड़ हो जाता है।’ मैं नए तरह की सब्ज़ी बना दूँ, तो ताना—‘मम्मी की तरह सादा बना ले, ये एक्सपेरीमेंट हमारे लिए छोड़ दिया कर।’

एक दिन तो हद ही हो गई, मैंने कहा—‘रविवार को मम्मी-पापा से मिलने चलेंगे।’ साफ़ कह दिया—‘मेरे पास टाइम नहीं है, तू चाहे तो अकेली चली जा, पर हर हफ़्ते-हफ़्ते तेरे मायके का चक्कर मुझे मंज़ूर नहीं।’ दीदी, इतना बुरा लगा मुझे…”

“तो तूने क्या कहा?” वंदना ने पूछा।

“मैं भी चुप कैसे रहती,” मीरा के स्वर में कड़वाहट आ गई, “मैंने भी कह दिया—‘ठीक है, फिर तुम भी हर रविवार अपने घर जंगल नहीं जाया करो, जहाँ फ़ुर्सत मिले तब जाना।’ बस, झगड़ा शुरू हो गया। उसने कहा—‘तू मेरे घरवालों की इज़्ज़त नहीं करती।’ मैंने कहा—‘तुम तो मेरी भावनाओं की कोई क़द्र नहीं करते।’ बात-बात पर ताना, कटाक्ष, रूठना-मनाना… थक गई हूँ दीदी। मुझे लगता है, हम दोनों इतना अलग सोचते हैं कि इस रिश्ते में दम ही नहीं बचा।”

“तो तू क्या चाहती है?” वंदना ने सीधा सवाल किया।

मीरा ने हिचकते हुए कहा, “मुझे लगता है… अलग हो जाना ही ठीक रहेगा। अभी साल भी पूरा नहीं हुआ, पर दम घुटने लगा है। रोज़-रोज़ की ये खींचतान… मैं नहीं झेलना चाहती।”

कुछ क्षण कमरे में सन्नाटा रहा। बाहर से बच्चों के हँसने की आवाज़ें आ रहीं थीं, जो इस कमरे में किसी और ही दुनिया की लग रही थीं।

“मीरा,” वंदना ने बेहद शांत स्वर में कहा, “एक बात पूछूँ, बुरा मत मानना… क्या सिर्फ़ आयुष ही ज़िद्दी है?”

मीरा ने चौंककर उसकी तरफ देखा, “मतलब?”

“मतलब ये कि… तू खुद कैसा स्वभाव रखती है, ये भूल तो नहीं गई? बचपन से याद है, अगर तुझे लाल फ्रॉक चाहिए होती थी, तो नीली पहनने पर भी पूरा घर सिर पर उठा लेती थी। कॉलेज में सब कहते थे—‘मीरा अपनी बात मनवाकर ही दम लेती है।’ ये ज़िद तेरी है, और शायद संयोग से उसी तरह का साथी मिल गया है तुझे। अब तुम दोनों की टक्कर अहं की ज़्यादा हो गई है, समस्या वहीं से शुरू है।”

मीरा को उसकी बात चुभी, “तो क्या तुम कहना चाहती हो कि गलती मेरी है?”

“मैं ये नहीं कह रही कि सब गलती तेरी ही है,” वंदना ने उसका हाथ दबाया, “पर ये ज़रूर कह रही हूँ कि पूरा दोष केवल एक पर डाल देना आसान होता है, और वहीं रिश्ते टूटते हैं।

जब शादी होती है न मीरा, तो सिर्फ़ दो लोग साथ नहीं आते, दो परवरिश, दो नजरिए, दो घरों के संस्कार भी साथ आते हैं। कोई भी रिश्ता सिर्फ प्यार के दम पर नहीं चलता, उसमें समझौते भी करने पड़ते हैं, और सबसे ज़्यादा—अपने अहम को थोड़ा-थोड़ा रोज़ मरना पड़ता है।”

मीरा की आँखें झुक गईं।

“देख, मैं ये नहीं कह रही कि तू सब सहती रहे, चाहे वो कितना भी अपमानजनक हो। पर कम से कम तू ये तो कर सकती है न कि एक बार पूरे होश से, बिना गुस्से के, इस रिश्ते को निभाने की कोशिश कर ले।

ऐसा करते हैं…” वंदना ने थोड़ा सोचकर कहा, “तू यहाँ दो दिन और रह जा, हम दोनों खुल कर बातें करेंगे, तू अपने मन का सारा ज़हर निकाल दे। फिर जब घर वापस जाए न, तो खुद को एक एक्सपेरिमेंट की तरह देख—कोई भी विवाद होने लगे, तू पहले शांत रह।

मुझे पता है, आसान नहीं है, पर हर बार पहले रिएक्ट करने की बजाय, पहले रुक कर सोचना। जवाब मीठा देना, या थोड़ी मज़ाकिया बना देना। मन चाहे तिलमिला उठे, पर ज़ुबान से बर्फ छोड़, आग नहीं।

देखना, धीरे–धीरे वो भी अपने बोलने के तरीके पर सोचने लगेगा। अगर इसके बाद भी कुछ नहीं बदला, तो फिर हम बैठकर दूसरा फैसला भी कर सकते हैं। पर एक कोशिश तो बनती है न?”

मीरा ने गहरी साँस ली। उसे अंदर कहीं आयुष का वो चेहरा याद आया, जब पिछले महीने बुखार में वो बेसुध पड़ी थी, तो आयुष ने रात भर उसके सिर पर पट्टी रखी थी।

“वो बिल्कुल बुरा इंसान नहीं है दीदी,” मीरा धीरे से बोली, “बस… बात करने का तरीका बहुत कड़वा है कई बार। और मैं भी जवाब में पीछे नहीं रहती…”

“यही तो कह रही हूँ मैं,” वंदना मुस्कुरा दी, “दो तलवारें एक म्यान में रखी हैं, दोनों को थोड़ा थोड़ा कुंद करना पड़ेगा, नहीं तो रोज़ खनकती रहेंगी। चल, मान गई तू?”

कुछ देर खामोशी रही, फिर मीरा ने सिर हिलाया, “ठीक है दीदी, एक मौका और दूँगी इस रिश्ते को… सही में, अगर मैं ज़रा-सा नरम बोलूँ तो शायद वो भी बदल जाए।”

वंदना ने उसके माथे पर प्यार से चूमा, “बस इतना समझ ले, कोई भी घर पहले दिन से स्वर्ग नहीं होता, उसमें रहने वाले ही उसे स्वर्ग बनाते हैं… या नर्क।”

दो दिन मज़ाक, हँसी और पुरानी यादों में गुज़रे। तीसरे दिन सुबह मीरा ने अपना बैग पैक किया।

माँ ने आँखें पोंछते हुए कहा, “बिटिया, जो भी कर, खुद को कमजोर मत समझना। थक जाए तो वापस आ जाना, ये घर तेरे लिए हमेशा खुला है।”

मीरा ने माँ के गले लगकर कहा, “मम्मी, इस बार कोशिश मैं पूरी करूँगी… आप बस मेरे लिए दुआ करना।”


घर की घंटी बजते ही अंदर से चाबी की आवाज़ आई। दरवाज़ा खोलते ही आयुष सामने खड़ा था। उसकी आँखों में एक क्षण के लिए राहत-सी आई, पर अगले ही पल होंठ व्यंग्य से मुड़ गए।

“अरे वाह,” उसने हल्की हँसी में कहा, “महारानी को अपने छोटे-से साम्राज्य की याद आ ही गई। मायका भ्रमण खत्म हुआ?”

मीरा के भीतर की पुरानी मीरा तिलमिला उठी—‘सुना तुमने, कैसे बोल रहा है?’

पर उसे रीतिका—नहीं, वंदना दीदी की बातें याद आईं। उसने अपने गुस्से को जैसे गहरे कुएँ में धकेल दिया और होंठों पर हल्की मुस्कान लाकर बोली, “हाँ, सोचा, जिस राजा ने इतना अच्छा छोटा-सा साम्राज्य दिया है, उसकी भी थोड़ी सेवा कर लूँ… नहीं तो कहीं कोई और खूबसूरत रानी इसे हथिया न ले।”

आयुष एकदम ठिठक गया। उसे उम्मीद थी कि दोनों तरफ़ से तीर चलेंगे, पर सामने से ये…!

“अच्छा…!” उसके मुँह से बस इतना ही निकला।

मीरा ने अंदर आकर बैग रखा, हल्का-सा घर को देखा—सोफ़े पर कुशन तिरछे पड़े थे, सेंटर टेबल पर आधा खाली चाय का कप, और खाने की खाली पैकेट।

“दो हफ्तों से बाहर का ही खा रहे थे क्या?” मीरा ने हल्के-फुल्के अंदाज़ में पूछा।

“तो क्या करूँ, मिस कुकिंग एक्सपर्ट? तुम्हीं भागी चली गईं थीं…” फिर अचानक उसे एहसास हुआ कि बात फिर पुरानी तरफ़ जा रही है। उसने बात बदलते हुए कहा, “ख़ैर, सामान रख लो… मैं ऑफिस के लिए निकल रहा हूँ, देर हो जाएगी।”

मीरा ने मुस्कुराकर उसका बैग थामा, “ठीक है, तुम जाओ। शाम को जल्दी आना, मैं आज तुम्हारी वही दाल और आलू की सब्ज़ी बनाऊँगी, जिसमें तुम हमेशा कहते हो ‘मम्मी जैसी खुशबू आती है।’ देखते हैं, दो हफ्ते बाहर का खाकर तुम घर के खाने को कितना मिस करते हो।”

आयुष ने चोरी-चोरी उसकी तरफ देखा। उसे लगा था, मीरा ताने देगी, सवाल पूछेगी कि “कॉल क्यों नहीं किया?” पर यहाँ तो उल्टा ही हो रहा था।

ऑफिस जाते हुए उसकी जेब में मोबाइल कंपन हुआ—मीरा का मैसेज था, “टिफ़िन कार में रख दिया है। गाड़ी बैक करते वक्त देख लेना, नहीं तो बिना खाए रहने का बहाना मत बनाना।”

आयुष के होठों पर अनायास मुस्कान आ गई।


शाम को जैसे ही बेल बजी, मीरा ने गैस स्लो कर दी और दरवाज़ा खोला। आयुष फाइलों का बैग संभालते अंदर आया।

“हाथ-मुँह धो लो, जब तक मैं रोटी सेकती हूँ,” मीरा ने सहजता से कहा।

“थोड़ी देर बाद खा लेंगे न, पहले एक बात कर लें,” आयुष ने गंभीर स्वर में कहा।

मीरा के दिल की धड़कन तेज़ हो गई, पर चेहरे पर धैर्य रखती हुई बोली, “पहले हाथ धो लो, वरना तुम्हारी ‘स्वच्छता मिशन’ वाली आत्मा नाराज़ हो जाएगी।”

आयुष ने अनायास हँस दिया। बाथरूम से लौटकर उसने देखा—डाइनिंग टेबल पर उसकी पसंद की सादी, हल्की मसाले वाली दाल, आलू-गोभी की सब्ज़ी और गरमा-गरम फूली हुई रोटियाँ रखी थीं।

दोनों चुपचाप खाने लगे। बीच-बीच में मीरा ही बातें करती रही—माँ-पापा की तबीयत के बारे में, भांजे के नए शरारतों के बारे में।

आयुष ने थाली में आख़िरी कौर रखते हुए कहा, “मीरा… एक बात पूछूँ?”

“हूँ?”

“तुम… नाराज़ नहीं हो?”

“किस बात पर?” मीरा ने सहज स्वर में पूछा।

“पिछली बार जो… मैंने इतने कड़े शब्द कह दिए थे। तू दो हफ्ते मायके रही, मैंने भी ढंग से फ़ोन नहीं किया…” वह शब्द तलाश रहा था, “माने… तुम्हें बुरा तो लगा होगा न?”

पुरानी मीरा के भीतर से आवाज़ उठी— ‘बहुत!’
पर नई मीरा ने गहरी साँस ली, और धीमे से कहा, “देखो आयुष, सच बोलूँ तो लगा था। पर ये भी सोचा, तुम्हें भी तो गुस्सा आया होगा। मैं भी तो कम नहीं हूँ जवाब देने में। दो जिद्दी लोग एक घर में हों, तो कभी-कभी दीवारें भी सर पकड़ लेती हैं।”

आयुष खुद को मुस्कुराने से रोक नहीं पाया, “तो अब कायापलट कैसे हो गई आपकी, श्रीमती जी?”

“कायापलट नहीं, बस… रीसेट,” मीरा ने मज़ाक में कहा, “दो दिन दीदी के साथ रही, लगा… अगर मैं ही अपनी तरफ से थोड़ा नरम हो जाऊँ, तो शायद बात वहीं वहीं खत्म हो जाए, जहाँ झगड़ा शुरू होना चाहता है। कोशिश कर रही हूँ, अपने गुस्से को टाइम पर पकड़ लूँ।”

“और अगर मैं नहीं बदलूँ तो?” आयुष ने आधा सपाट, आधा डरे हुए स्वर में पूछा।

“तो एक दिन तुम घर आओगे और देखोगे, गैस पर दूध उबल चुका है, सब्ज़ी जल चुकी है, और मैं बाल झटक कर मम्मी के घर चली गई हूँ,” मीरा ने आँखें गोल कर के कहा, “पर उससे पहले… मैं खुद से इतना तो कह सकूँ कि, ‘मीरा, तुमने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की थी।’ बस इसी जुगत में हूँ।”

आयुष कुछ देर चुप रहा। फिर धीरे से बोला, “मीरा, क्या ये संभव है कि… हम दोनों थोड़ा-थोड़ा बदलें? मतलब… केवल तुम ही नहीं?”

मीरा ने हल्की आश्चर्य भरी निगाह उससे मिलाई, “क्या मतलब?”

“मतलब ये कि—मैं कोशिश करूँ कि बेवजह हर बात पर आदेशात्मक भाषा न इस्तेमाल करूँ, और तू कोशिश कर कि किसी बात पर तुरंत तीखा जवाब न दे। अगर मैं कहूँ—‘आज मेरे घर न चलें’, तो तू पूछ सकती है—‘क्यों नहीं चलें?’ लड़ने की ज़रूरत नहीं। और अगर तू कहे—‘आज मैं मायके जाना चाहती हूँ’, तो मैं ‘हर हफ्ते-हफ्ते’ का राग न अलापूँ… बस पूछूँ—‘कितने बजे चलें?’

…मुझे भी दो हफ्ते अकेले घर आकर अच्छी तरह समझ आ गया कि… तू सिर्फ भोजन ही नहीं बनाती, इस घर को घर बनाती है। जब तू नहीं थी, ये सिर्फ चार दीवारें थे।”

मीरा की आँखें भर आईं, पर उसने मुस्कान से उन्हें ढँक लिया, “इतने बड़े-बड़े डायलॉग कहाँ से सीख आए हो? कोई सीरियल देख रहे थे छुप-छुपाकर क्या?”

“नहीं, बस…” आयुष ने थाली एक तरफ रख दी और उसकी तरफ बढ़कर बोला, “खाली घर, ठंडी रोटी और बिना मतलब की ख़ामोशी बहुत अच्छे टीचर होते हैं।”

उसने मीरा का हाथ पकड़कर हल्के से दबाया, “मीरा, अगर तू एक मौका दे रही है न इस रिश्ते को, तो मुझे भी हक़ है कि मैं भी एक मौका दूँ खुद को।

अब जब भी मैं तुझे चोट पहुँचाने वाले शब्द बोलूँ न, तू एक बार मुझे आँखों-ही-आँखों में इशारा कर देना—‘स्टॉप।’
मैं मान जाऊँगा।
पर तू वादा कर, तू भागोगी नहीं इस बार… झगड़े से भी नहीं, मुझसे भी नहीं।”

मीरा ने हल्की हँसी के साथ कहा, “भागूँगी नहीं, पर ज़रूर कोसूँगी मन ही मन,” फिर उसका चेहरा गंभीर हो गया, “पर हाँ, मैं भी कोशिश करूँगी कि पहले सुनूँ, बाद में कहूँ। दोनों ओर से थोड़ा-थोड़ा कम करेंगे तो ही मिठास बढ़ेगी न।”

आयुष ने अचानक उसे अपनी बाँहों में खींच लिया, “बस, इतने दिनों से यही इंतज़ार था कि तू वापस आए और मैं ये सब कह सकूँ… लेकिन अहं बड़ा अजीब है मीरा, गले से निकले ‘सॉरी’ को होंठों तक आने ही नहीं देता।”

मीरा ने उसके कंधे पर ठुड्डी टिकाते हुए कहा, “मुझे बहुत गुस्सा आता है तुम पर, और उतना ही… शायद प्यार भी।”

“शायद?” आयुष ने नज़र मिलाते हुए पूछा।

“ज़्यादा भाव मत खाओ, ‘शायद’ ही ठीक है फिलहाल,” मीरा ने मुस्कुराते हुए कहा।


दिन धीरे-धीरे रुटीन की पटरी पर आने लगे।

कभी-कभी पुरानी मीरा सिर उठाती, ज़िद करती—“जवाब दो, जोर से दो।”
पर वंदना की आवाज़ याद आ जाती—“हर तकरार में जीतना ज़रूरी नहीं, कभी-कभी चुप रह जाना रिश्तों को जीतने देता है।”

एक दिन रविवार की सुबह, आयुष ने खुद ही कहा, “आज तेरे मम्मी-पापा के घर चलते हैं। पिछले हफ्ते मेरे घर गए थे, आज तेरे।”

मीरा ने आँखें चमकाते हुए कहा, “तुम्हारे लिए पराठे बना दूँ?”

“नहीं, आज प्रयोग मैं करूँगा,” आयुष ने एप्रन बाँधते हुए कहा, “तोस्ट मैं बनाऊँगा, चाय तू बना देना। दोनों का नाम लिखा रहना चाहिए मेनू कार्ड पर।”

मीरा ने हँसकर कहा, “ठीक है, शेफ़ साहब।”

रास्ते में मीरा ने मोबाइल में वंदना को मैसेज भेजा—

*“दीदी, तू सही कहती थी।
थोड़ा अपनेपन से बात बदल जाती है।
बदलना किसी एक को नहीं होता, शुरुआत किसी एक को करनी होती है।

आज हम दोनों मम्मी के घर जा रहे हैं, बिना किसी बहस के।
रास्ते में ‘फेवरेट सॉन्ग’ चल रहा है, और मेरा ‘फेवरेट इन्सान’ ड्राइव कर रहा है।

बाकी तो, तू समझ ही गई होगी…”*

मेसेज पढ़कर वंदना ने मुस्कुराते हुए आसमान की तरफ देखा—

“शुक्र है, इससे पहले कि कड़वाहट गांठ बन जाती, इन्हें मिठास का स्वाद याद आ गया।”

मीरा कार की खिड़की से निकलती ठंडी हवा को चेहरे पर महसूस कर रही थी। वो जानती थी कि आगे भी झगड़े होंगे, मतभेद होंगे, पर अब उसके पास एक नया हथियार था—
खुद को पहले बदलने की हिम्मत।

और शायद…
यही हिम्मत किसी भी रिश्ते को टूटने से बचा लेती है।

मूल लेखिका 

निभा राजीव 

error: Content is protected !!