मोहनलाल जी का पुराना सा मकान शहर के बीचों-बीच था, पर उसमें जितना प्यार था, उतनी ही रौनक भी। नीचे की मंज़िल पर वो अपनी पत्नी शारदा के साथ रहते थे, और ऊपर की मंज़िल दो हिस्सों में बँटी थी – एक तरफ़ बड़े बेटे प्रदीप का कमरा, दूसरी तरफ़ छोटे बेटे सागर का।
प्रदीप की पत्नी मीना गृहिणी थी। ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, पर हाथों की निपुण, दिल की साफ़ और पूजा-पाठ में लगी रहने वाली। सुबह चार बजे उठकर वो पूरे घर की चाय बना देती, बच्चों के टिफ़िन तैयार कर देती, सास-ससुर के लिए हल्का नाश्ता और दवाइयाँ रख देती, फिर अपनी साढ़ी का पल्लू संभालते हुए मंदिर में दिया जला देती।
छोटे बेटे सागर की पत्नी कविता उससे बिल्कुल अलग थी। बी.एससी. नर्सिंग करके सरकारी अस्पताल में स्टाफ नर्स थी। समय की पाबंद, जल्दी-जल्दी चलने वाली, पर स्वभाव से बेहद नरम और समझदार। सुबह पाँच बजे उठती, झटपट सब्ज़ी काट लेती, गैस पर चावल रख देती, तब तक मीना रोटियाँ बेलने लगती। दोनों बातें करते-करते काम बाँट लेतीं और आठ बजे तक सबकी थाली लग चुकी होती।
शारदा अक्सर चैन की साँस लेकर कहतीं, “भगवान ने मुझे दो बहुएँ दी हैं, पर लगता है जैसे दो बेटियाँ दे दीं।”
इसी गली में कुछ घर छोड़कर सरिता दी रहती थी। उम्र में शारदा की हमउम्र, पर बात-बात में तंज कसना, दूसरों के घर की बातें निकालना और अपनी बहू की बुराई करना जैसे उसकी आदत थी। उसकी बहू उसके साथ नहीं रहती थी, अक्सर मायके में ही पड़ी रहती, घर में आए दिन कलह मची रहती थी। इसी कारण शायद उसे किसी दूसरे के सुखी घर में टीस महसूस होती।
अक्सर सरिता दी शारदा से कहती, “भाभी, आप तो खुशकिस्मत हैं, आपकी दोनों बहुएँ एकदम लक्ष्मी हैं। मेरी बहू तो बस फोन पर ही बहू बनी रहती है।”
शारदा हँसकर बात टाल देतीं, पर सरिता की नज़रें हमेशा इस घर के भीतर झाँकती रहतीं।
मोहनलाल जी का एक उसूल था। सागर की नौकरी लगी, फिर कविता की भी नौकरी लग गई तो उन्होंने साफ़ कह दिया,
“कविता बहू, तुम्हारी कमाई तुम्हारी है। तुम उसे अपने भविष्य, अपने बच्चों, अपने शौक के लिए संभालकर रखना। घर चलाने की ज़िम्मेदारी मेरे और मेरे बेटों की है। हाँ, समय और काम में तुम बहू बनकर बराबरी से साथ देना, पर पैसे की बात पर कभी चिंता मत करना।”
कविता ने पहले तो बहुत मना किया, “बाबूजी, मैं भी तो इस घर की हूँ, मेरी तनख़्वाह भी इसी घर की है।”
मोहनलाल मुस्कुरा दिए, “बेटा, जब तूने अपना मायका छोड़ा था, तब तो तूने कुछ नहीं मांगा न उस घर से। अब ये घर भी तेरा है, इसलिए हम चाहते हैं कि तेरे पास भी कुछ रहे। समय का क्या भरोसा।”
शारदा ने भी हामी भर दी, “और देख बेटी, अपने हाथ में कुछ हो तो ससुराल वाली और मायके वाली दोनों तरफ़ इज़्ज़त रहती है। बचा कर रख, फिजूल मत उड़ाना, बस इतना ध्यान रखना।”
कविता ने मन से बात मान ली। हर महीने थोड़ा-थोड़ा हिस्सा अलग रखकर वह बैंक में जमा कर देती। उसे शौक था कि कभी बच्चों की पढ़ाई, कभी उनकी ज़रूरतों के लिए किसी पर निर्भर न रहना पड़े।
समय यूँ ही बीतता रहा। मीना और कविता दोनों मिलकर हर तीज-त्योहार मनातीं। करवा चौथ की थाली हो, तीज का झूला हो या होली की गुजिया – दोनों की हँसी से आँगन गूंज उठता।
एक दिन सावन के महीने में घर में हरेली की पूजा रखी गई। पड़ोस की औरतें आईं, सबने मिलकर गीत गाए, सिर पर दूब रखी, पेड़ पर झूला डालकर सुहागिनें झूलती रहीं। पूजा के बाद सब बैठी तो शारदा ने अनजाने में कह दिया,
“कविता तो कमाल की लड़की है, सुबह घर, फिर नौकरी, शाम को फिर सबके लिए समय निकालती है। आज की लड़कियाँ ऐसा कहाँ करती हैं, ऊपर से कभी मुँह से एक शिकायत नहीं।”
यह बात मीना के सामने ही कही गई, पर शारदा की मंशा तुलना करने की नहीं, बल्कि बस कविता की मेहनत का जिक्र करने की थी। मीना तो वैसे भी संवेदनशील थी, उसने हल्की सी मुस्कान तो दी, पर मन में कहीं टीस लग गई।
सरिता दी, जो वहीं बैठी थीं, उनकी आँख में वही पुरानी चमक आ गई। पूजा समाप्त हुई, औरतें अपने-अपने घर लौटने लगीं। सरिता ने बाहर गली में मीना को अकेले जाते देखा, तो आवाज दी,
“अरी मीना, ज़रा रुक तो… बात करनी थी।”
मीना पलटकर खड़ी हो गई। सरिता ने थोड़ा पास आकर फुसफुसाते हुए कहा,
“बहू, बुरा मत मानना, पर आज सबके सामने तुम्हारी सास ने जिस तरह से छोटी बहू की तारीफ की न, मुझे अच्छा नहीं लगा। तुम भी कौन सा कम काम करती हो? सुबह से शाम तक जुटी रहती हो, दो-दो बच्चों को संभालती हो, और सबका ध्यान रखती हो। पर देखो, नाम किसका लिया? कविता का।”
मीना ने कमजोर-सी आवाज़ में कहा, “नहीं दी, ऐसा नहीं है, माँजी मुझे भी बहुत प्यार करती हैं।”
“प्यार तो करेगी ही, पर दिल में क्या है, ये मैं बता रही हूँ।” सरिता ने भौंहें चढ़ाकर कहा, “कल को यही पढ़ी-लिखी, कमाने वाली बहू सारे घर की मालकिन बन जाएगी। तुम सोच लेना। इसी के भरोसे घर की जमीन, मकान सब लिख दें तो? फिर तुम क्या करोगी?”
मीना हड़बड़ा गई, “नहीं नहीं दी, बाबूजी ऐसे आदमी नहीं हैं।”
“अरे, आदमी तो बहुत सीधे हैं, वो किसी के कहने पर भी आ सकते हैं,” सरिता ने आह भरते हुए कहा, “मैंने कितने घर टूटते देखे हैं। आजकल नौकरी करने वालों का सिक्का चलता है। तू तो दिन भर खटती है, पर तनख़्वाह किसके पास है? कविता के पास। संभल जा बहू, कल को पछताएगी।”
मीना ने जैसे-जैसे ये बातें सुनीं, उसके दिल में हल्की-हल्की दरारें पड़ती गईं। वो वापस घर तो आई, पर आज उसकी मुस्कान में लकीरें थीं। कविता ने पूछा, “भाभी, आप ठीक हैं? थक गई हो क्या?”
मीना ने बस इतना कहा, “हाँ, बस थोड़ा सिर भारी है,” और किचन में जा घुसी।
उस दिन के बाद सरिता दी की आदत हो गई रोजाना या दिन छोड़कर मीना के कान में कुछ न कुछ घोल जाने की —
“कल देखा, तुम्हारी सास फिर कविता को नए कंगन दिखा रही थी।”
“सुना, सागर और कविता बैंक गए थे, पता नहीं क्या काम था।”
“सुन मीना, अभी से संभल जा, वरना बाद में कुछ हाथ नहीं आएगा।”
मीना, जो पहले कविता पर आँख मूँदकर भरोसा करती थी, अब हर बात पर शक करने लगी।
कविता देर से अस्पताल से लौटती, तो मन में उठता, “कहीं माँजी और बाबूजी से अकेले में बात तो नहीं करती होगी मेरे बारे में?”
सागर माँ से हँसकर कुछ कहता, तो लगता, “कहीं संपत्ति की बात तो नहीं चल रही?”
धीर-धीरे ये शक ग़ुस्से में बदलने लगा। मीना छोटी-छोटी बात पर कविता पर भड़क जाती –
“तुम्हें क्या, तुम तो नौकरी करके आती हो, तुम्हें क्या पता घर कैसे चलता है।”
कभी सागर, कभी शारदा की कहीं किसी बात को भी वह कविता से जोड़कर देखने लगी।
कविता पहले तो समझाने की कोशिश करती,
“भाभी, मैंने क्या किया? मैं तो आपकी ही तरह इस घर की बहू हूँ।”
लेकिन मीना का मन अब किसी बात को स्वीकार ही नहीं कर रहा था।
एक दिन बात इतनी बढ़ गई कि खाने की टेबल पर मीना फट पड़ी,
“अब बहुत हो गया। हमें अलग रहना है। बाबूजी, आप ज़मीन-मकान का हिसाब कर दीजिए। हम अपना हिस्सा लेकर अपना घर बना लेंगे। मुझे नहीं रहना किसी की छाया में।”
शारदा को जैसे किसी ने थप्पड़ मार दिया हो।
“मीना बहू, ये तू क्या कह रही है? मैंने कब तुझे पराया समझा?”
मीना रोते हुए बोली,
“जब से छोटी आई है, आप उसकी ही तारीफ में लगी रहती हो। आप सब उसे ही आगे बढ़ा रहे हो। कल को पता चला कि मकान भी उसी के नाम दर्ज हो गया है। मेरे बच्चे क्या हवा में रहेंगे?”
मोहनलाल ग़ुस्सा और दुख के बीच झूलते रह गए।
“तूने तो मुझे भी शक की निगाह से देख लिया, मीना? मैंने तुझे बेटी कहा, और तू इतना बड़ा इल्ज़ाम लगा रही है?”
प्रदीप ने पत्नी को समझाने की बहुत कोशिश की,
“अरे पगली, क्या बकवास कर रही है तू? बाबूजी- माँजी ऐसा कभी नहीं करेंगे।”
पर मीना आज मानने को तैयार नहीं थी।
कविता ने आगे बढ़कर मीना का हाथ पकड़ना चाहा –
“भाभी, अगर मेरी वजह से आपको ऐसा लग रहा है, तो मैं नौकरी छोड़ देती हूँ, पर आप अलग मत होइए।”
मीना ने झटककर हाथ छुड़ा लिया,
“नहीं, तुम्हारी नौकरी की वजह से नहीं, पर तुम्हारा होना ही अब मुझे चुभता है। तुम चाहे कितना भी अच्छा कर लो, मेरी नज़र में तुम ही कारण हो हमारे बीच की दीवार की।”
आख़िरकार, रोज-रोज की किचकिच और तानों से तंग आकर, और मीना के जिद पर अड़ी रहने से, घर में बँटवारे की बात चल पड़ी।
मोहनलाल ने लाख मना किया, पर जब बेटे-बहू की आँखे लाल हो जाएँ तो माँ-बाप भी कब तक दीवार बनकर खड़े रह सकते हैं।
आँगन के बीच में लोहे की ग्रिल लगा दी गई।
रसोई के सामान बाँट दिए गए—
दो प्रेशर कुकर, दो गैस स्टोव, एक-एक फ्रिज, बर्तन, यहाँ तक कि पूजा के कमरे में रखे कैंडल स्टैंड तक अलग कर दिए गए।
मीना का परिवार घर के दाएँ हिस्से में, सागर और कविता बाएँ हिस्से में रहने लगे।
एक ही छत, एक ही नींव, पर बीच में एक अदृश्य दरार खिंच चुकी थी, जो सिर्फ़ ईंट से नहीं, दिलों से भी बनी थी।
समय बीतता गया।
मीना की बड़ी बेटी श्रद्धा बारहवीं कक्षा में आ गई। पढ़ने में होनहार, और डॉक्टर बनने का सपना आँखों में सँजोए हुए।
प्रदीप का निजी कंपनी में काम था, वेतन ठीक-ठाक था पर इतने बड़े कोर्स की फीस के लिए नाकाफी।
घर के खर्च, छोटी बेटी की पढ़ाई और बढ़ती महँगाई के बीच श्रद्धा का मेडिकल कॉलेज का सपना बहुत भारी महसूस होने लगा।
एक शाम प्रदीप ने झिझकते हुए मोहनलाल के कमरे में जाकर कहा,
“बाबूजी, मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ… श्रद्धा को डॉक्टर बनना है, सरकारी कॉलेज में सीट मिल जाए तो फीस कम है, पर कोचिंग और फॉर्म, हॉस्टल वगैरह का खर्चा… सोचकर डर लग रहा है। शायद मुझे क़र्ज़ लेना पड़े।”
मोहनलाल ने उदास होकर कहा,
“बेटा, तेरी मदद करना मेरा फर्ज़ है, पर तू जानता है, मेरी पेंशन और थोड़ी सी बचत ही है… क़र्ज़ तो देना ही पड़ेगा, पर महाजन से लिया तो ब्याज में ही डूब जाओगे।”
बात करते-करते कविता आकर दरवाज़े पर ही खड़ी हो गई थी। उसने सब सुन लिया था, पर चुपचाप कमरे से वापस लौट गई।
रात को सागर के साथ बैठकर उसने भर्राई आवाज़ में कहा,
“सुनिए, बाबूजी और भैया की बात मैंने सुनी। श्रद्धा दीदी के लिए वो क़र्ज़ लेने की सोच रहे हैं।”
सागर ने गहरी सांस ली,
“हाँ, पर हम क्या कर सकते हैं? बाबूजी ने हमेशा कहा कि तेरी तनख़्वाह तेरी है, मैं कैसे बोलूँ कि हम मदद कर देंगे? कहीं उन्हें बुरा न लगे कि हम उन पर एहसान कर रहे हैं।”
कविता ने अलमारी से एक फ़ाइल निकाली। उसमें कुछ बैंक पासबुक और एफडी के काग़ज़ थे।
“ये देखिए, मैं पिछले आठ साल से कुछ-कुछ जोड़ रही हूँ। जब भी ओवरटाइम मिलता, या बोनस आता, तो उसमें से थोड़ा हिस्सा अलग रखती थी। शुरू से मन में था कि परिवार में जब भी किसी की बड़ी ज़रूरत पड़े, तब ये काम आएगा। मेरे अपने बच्चे अभी छोटे हैं, उनकी बारी बाद में आएगी। मैं चाहती हूँ ये पैसे श्रद्धा दीदी के मेडिकल की तैयारी में लग जाएँ।”
सागर ने चौंककर फ़ाइल खोली,
“इतनी बड़ी रकम… कविता, पर ये सब तो तेरी मेहनत की कमाई है।”
कविता मुस्कुरा दी,
“मेहनत ही तो है जो किसी के काम आए। अगर हमारी कमाई से हमारे घर की बेटी डॉक्टर बन जाए, इससे बड़ी खुशी क्या होगी? और वैसे भी बाबूजी ने जो प्यार दिया है, उसे ये पैसा भी तो पूरी तरह चुका नहीं सकता।”
अगले दिन सुबह, कविता ने तय किया कि अब बात खुद ही करेगी।
नाश्ते के बाद वह शारदा और मोहनलाल के कमरे में गई।
“माँ, अगर आप व्यस्त नहीं हैं तो मुझे आपसे और बाबूजी से कुछ कहना है।”
मोहनलाल ने चश्मा ठीक करते हुए कहा, “हाँ बहू, बोल क्या बात है?”
कविता ने फ़ाइल आगे बढ़ाते हुए कहा,
“बाबूजी, आप क़र्ज़ लेने की बात सोच रहे हैं। ये कागज़ मेरे बैंक खातों के हैं। इसमें जो पैसे हैं, वो मैं श्रद्धा दीदी के नाम करना चाहती हूँ। उसकी कोचिंग, फॉर्म, किताबें, हॉस्टल… जो भी खर्चा आए, आप इसी से कर लीजिए।”
शारदा हकबका गईं,
“अरे पगली, ये तो तेरे बच्चों का हक है। क्यों दे रही है सब?”
कविता ने धीरे से कहा,
“माँ, अगर श्रद्धा दीदी डॉक्टर बनती है, तो वो मेरे बच्चों का गर्व भी बनेंगी। फिर, क्या मैं इस घर की नहीं हूँ? क्या श्रद्धा सिर्फ़ भैया-भाभी की बेटी है, मेरी नहीं? आपने ही तो कहा था, इस घर की हर बेटी तुम्हारी भी बेटी है।”
मोहनलाल के हाथ काँप गए।
“बहू, हमने तेरी कमाई पर कभी नज़र नहीं डाली, और तू आज ये सब सामने रख रही है?”
कविता ने मुस्कुराते हुए कहा,
“आपने कभी माँगकर लेने की कोशिश नहीं की, इसलिए मैं खुद दिल से दे पा रही हूँ। ये देना नहीं, मेरा सौभाग्य है।”
इतने में प्रदीप भी कमरे के बाहर आकर खड़ा हो चुका था। उसने कुछ-कुछ शब्द सुने थे। फ़ाइल देखते ही वह भीतर आ गया,
“कविता, ये सब क्या है? तुम हमें क्यों अपनी मेहनत का पैसा दे रही हो?”
कविता ने उसे गंभीर नज़रों से देखकर कहा,
“भैया, अगर आप मना करोगे तो मैं ये मानूँगी कि आपको मुझ पर बेटी का हक नहीं, सिर्फ़ देवरानी का रिश्ता दिखता है। श्रद्धा मेरी भी उतनी ही है जितनी आपकी। मेरा मन है कि उसकी पहली स्टेथोस्कोप की आवाज़ सुनने का हक मुझे भी मिले।”
प्रदीप की आँखें भर आईं। उसने आगे बढ़कर कविता के हाथ पकड़ लिए,
“तू हम पर इतना बड़ा उपकार कर रही है, और इसे भी मज़ाक में हल्का कर रही है?”
कविता ने बात काट दी,
“उपकार तो वो होता है जो बेमन से किया जाए, और बाद में याद दिलाया जाए। मैं तो बस अपने आप को भाग्यशाली समझ रही हूँ कि ये अवसर मुझे मिला।”
इन सब बातों के बीच अचानक मीना दरवाज़े पर आ खड़ी हुई थी। उसे भी यह सब सुनाई दे गया था।
उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था।
सरिता की सारी बातें, घर की दीवारें, सारे पुराने झगड़े उसकी आँखों के सामने घूमने लगे।
वह धीरे-धीरे कमरे के भीतर आई।
कविता ने उसे देखकर झट से फ़ाइल को पीछे कर लिया, जैसे कहीं उसे गलत न लगे।
पर मीना ने आगे बढ़कर कविता का हाथ पकड़ लिया।
“कविता…” उसकी आवाज़ काँप रही थी,
“मैंने तुझे हमेशा शक की निगाह से देखा। मैंने सोचा तू अपने पति और सास-ससुर को पटाकर इस घर की मालकिन बनना चाहती है। मैंने पड़ोस की सरिता दी की बातों पर यकीन करके अपने ही घर में दीवार खड़ी करवा दी। और तू… आज मेरी बेटी के लिए अपना सब कुछ दाँव पर लगा रही है।”
कविता ने घबरा कर कहा,
“नहीं भाभी, ऐसा मत कहिए, मैं तो बस…”
मीना ने उसकी बात काट दी,
“आज मैं खुद को ‘कान की कच्ची’ समझ रही हूँ। दूसरों की बातों में आकर मैंने अपने ही रिश्तों पर अविश्वास किया। तू चाहती तो कह सकती थी, ‘ये मेरी कमाई है, मैं क्यों दूँ’? और देख, तू हमारे लिए कितना बड़ा कदम उठा रही है। मुझे माफ़ कर दे कविता, मैंने तुझे बहुत गलत समझा।”
कविता की आँखें भी भर गईं।
“भाभी, आप क्यों ऐसे कह रही हैं? आप बड़ी हैं, आपको माफी माँगने की कोई ज़रूरत नहीं। बस आप इतना कर दीजिए कि अब से हमारे घर और हमारे दिलों के बीच कोई दीवार न खड़ी हो। बाकी सब भूल जाते हैं।”
शारदा ने अपने आँचल से आँसू पोंछते हुए कहा,
“उठो दोनों, एक-दूसरे को गले लगो। ये घर दीवारों से नहीं, दिलों से जुड़ा है। सीमा, सरिता जैसे लोग तो बाहर से पत्थर मारते ही रहेंगे, पर अगर हम अंदर से मजबूत रहें, तो ये घर कभी नहीं टूटेगा।”
प्रदीप ने झुककर मोहनलाल के पैर छुए,
“बाबूजी, मैं वादा करता हूँ, अब कभी कोई बात आपके बिना सोचे नहीं बोलूँगा। मीना और मैं जो गलतफहमियाँ लेकर बैठे थे, उन्हें आज यहीं खत्म कर देंगे। और… अगर आप इजाज़त दें तो, मुझे भी कविता की इस एफडी में थोड़ा-थोड़ा भरने दें, ताकि मैं भी कह सकूँ कि मेरी बेटी डॉक्टर बनी तो उसमें मेरा भी हिस्सा है।”
कमरे में ठहाके और आँसू एक साथ घुल गए।
मोहनलाल ने डबडबाई आँखों से कहा,
“मुझे लगता था कि बुढ़ापे में अकेला रह जाऊँगा, पर आज देख रहा हूँ कि मेरा घर फिर से बसने लगा है।”
कई हफ़्तों बाद पहली बार आँगन की लोहे की ग्रिल पर सूखा कपड़ा नहीं, बल्कि तोरण लटकाया गया।
मीना खुद सीढ़ी पर चढ़कर आम के पत्तों से बनायी तोरण बाँध रही थी, और कविता नीचे से थाली पकड़ाकर कह रही थी,
“थोड़ा दाएँ करिए भाभी, नहीं तो तिरछा लगेगा।”
श्रद्धा की कोचिंग शुरू हुई, फॉर्म भरे गए, इंटरव्यू हुए, और एक दिन ख़बर आई कि उसे सरकारी मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिल गया है।
घर में मिठाई बँटी, पूरा मोहल्ला बधाई देने आया।
यह खबर सुनकर सरिता दी भी हौले-हौले दरवाज़े पर आईं।
मीना ने दूर से ही उन्हें देखा, एक पल के लिए उसके मन में पुरानी सारी बातें उमड़ पड़ीं, पर फिर उसने सहजता से कहा,
“आइए सरिता दी, आज हमारी बेटी डॉक्टर बन गई है, मिठाई तो खाकर जाइए।”
सरिता ने हिचकते हुए पूछा,
“कौन-सी बेटी? बड़ी वाली या छोटी वाली?”
मीना ने मुस्कुराकर कविता की ओर देखा और बोली,
“हमारी दोनों बेटियाँ—एक मेरी कोख की, एक मेरी देवरानी की सोच की। दोनों ने मिलकर ये मुकाम पाया है।”
सरिता कुछ समझी, कुछ नहीं, पर इतना ज़रूर महसूस किया कि इस घर की दीवारें पहले से ज़्यादा मजबूत हो चुकी हैं।
रात को जब सब सोने जा रहे थे, मीना बालकनी में खड़ी आकाश देख रही थी। कविता चुपचाप उसके पास आकर खड़ी हो गई।
“क्या सोच रही हो भाभी?”
मीना ने हल्की हँसी के साथ कहा,
“सोच रही हूँ, अगर उस दिन मैंने तेरी आँखों में देख कर पूछ लिया होता, सरिता दी की जगह तुझसे बात कर ली होती, तो शायद ये घर कभी नहीं बँटता। कान की कच्ची होकर मैंने खुद ही अपने घर में दरार डाली थी।”
कविता ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया।
“अच्छा है भाभी, देर से सही, पर हमें सच तो समझ में आया। अब देखो, हमारी बेटियाँ हमारे फैसलों से नहीं, हमारे सुधार से सीखेंगी।”
मीना ने आकाश की ओर देखकर धीरे से कहा,
“हाँ, अब मैं अपनी बेटियों को यही सिखाऊँगी –
किसी की बात सुनने से पहले, अपने घरवालों से पूछ लेना। परायों के शब्द कभी-कभी हमारे अच्छे-भले घरों को भी बाँट देते हैं।”
कविता ने मुस्कुराकर कहा,
“और मैं उन्हें ये सिखाऊँगी कि कमाई सिर्फ़ दर्शाने के लिए नहीं, किसी के सपने पूरा करने के लिए भी होती है।”
नीचे आँगन में लगे तुलसी के पौधे पर हल्की हवा चल रही थी।
एक ही घर, एक ही आँगन, एक ही परिवार —
पर अब कोई अदृश्य दीवार नहीं थी।
बस रिश्तों की खुशबू थी,
जो धीरे-धीरे पूरे आकाश में फैल रही थी।
मूल लेखिका
पुष्पा जोशी