घर बंटने से पहले दिल बंटता है – रश्मि प्रकाश 

  सरोजा देवी का छोटा बेटा विवेक, जो दो महीने पहले ही शादी करके आया था, आज सुबह से नज़रें चुराता घूम रहा था।

सरोजा देवी मंदिर की घंटी बजाकर बाहर आईं तो देखा कि विवेक बैठक में खड़ा कुछ सोच रहा है।
उनके पूछने से पहले ही विवेक ने गहरी सांस ली—
“माँ, मुझे आपसे कुछ कहना है…”

सरोजा देवी ने उसके चेहरे की बेचैनी पढ़ ली।
“कह बेटा, क्या बात है?”

विवेक ने एक पल आँखें झुकाईं, फिर अचानक बोल पड़ा—
“माँ… अब मैं और सोनाली अलग रहना चाहते हैं। आप राकेश भैया से कह दीजिए, घर-खेत का बाँट कर दें… हम अपने हिस्से में चले जाएँगे।”

जैसे किसी ने सरोजा देवी के पैरों तले जमीन खींच ली हो।
उनके हाथ काँप गए।
“अलग? अभी तो तेरी शादी को दो महीने हुए हैं, बेटा… क्या हुआ? किसने कुछ कहा?”

विवेक थोड़ा चिढ़ गया—
“कोई कुछ कहे न कहे, पर हम अपनी ज़िंदगी अपने तरीके से जीना चाहते हैं।
यह बड़ा घर… इतनी जिम्मेदारियाँ… बहुत बोझ है, माँ।”

उसकी आवाज़ तेज थी।
इतनी कि ऊपर की मंज़िल पर कपड़े तह करती राकेश की पत्नी अनु के कानों तक भी पहुँच गई।
अनु तुरंत नीचे आई —
“विवेक, ये तुम कैसी बातें कर रहे हो? किस बोझ की बात कर रहे हो?
किसने तुम्हें घर के काम में कभी अकेला छोड़ा?
मैं और माँ सब मिलकर काम करते हैं।”

विवेक ने बिना उसकी तरफ देखे कहा—
“भाभी, मैं जानता हूँ… आप लोग अच्छे हैं…
पर सोनाली कहती है कि उसे यहाँ घुटन होती है।
उसे लगता है कि हम दोनों की कोई निजी जगह ही नहीं है…
और वो अकेले सब संभाल नहीं पाएगी।”

सरोजा देवी का दिल बैठ गया।
“सोनाली ने ऐसा कहा?
कौन-सा काम अकेले? हम सब तो हर काम में साथ देते हैं।”

उसी समय सोनाली नीचे आई—
चीनी का डिब्बा हाथ में, पर चेहरा उखड़ा हुआ।
उसने दरवाज़े पर खड़े होकर कहा—
“हाँ माँजी… मैंने कहा है।
ये बड़ा सा जॉइंट फैमिली वाला सिस्टम अब मुझसे नहीं संभाला जाएगा।
आप लोग भले ही कहते हो कि काम बँटा हुआ है, पर असल में हर बात में छोटे की जिम्मेदारी बन जाती है।”

अनु अवाक रह गई।
“सोनाली, ऐसा कब हुआ?
जो भी काम मैं करती हूँ, तुम्हें कभी बोझ नहीं बनने देती।
और रोज मैं ही कहती हूँ—‘तुम बस किचन में अपना हाथ बँटाना सीख लो, बाकी सब मैं कर लूँगी।’
फिर ये बातें तुम्हारे मन में कैसे आई?”

सोनाली ने होंठ दबाकर कहा—
“भाभी… मुझे लोग बताते रहते हैं कि नई बहुओं से कितना काम करवाया जाता है…
और सच कहूँ तो…”
वह थोड़ा हिचकिचाई—
“सीमा दीदी ने कहा छोटा परिवार मे स्वतन्त्रता होती है  इसलिए बेहतर है कि हम अपनी दुनिया अलग बना लें।”

अनु का चेहरा एकदम सख्त हो गया।
“सीमा दीदी?
वो जो तुम्हारी सहेली पड़ोस वाली?
जिसने अपने ही पति को छोड़कर मायके में झगड़ा खड़ा कर रखा है?
वही?
ओह… तो असली बात अब समझ आई!”

सरोजा देवी की आँखें भर आईं।
उन्होंने धीरे से कहा—
“बेटा, पराए लोग किसी के घर की खुशी बर्दाश्त नहीं कर पाते।
जो खुद चैन से नहीं रहते, वे दूसरों को भी सुखी नहीं देख पाते।
लेकिन तुम हमारी बात क्यों नहीं मानती?
कभी हमने तुमसे कोई बड़ा काम करवाया?”

विवेक ने पत्नी की तरफ देखकर कहा—
“माँ, आप क्यों समझती नहीं?
सोनाली कह रही है तो कुछ सोचकर ही कह रही है।
उसे डर है कि भविष्य में उसको बोझ बनाकर रखा जाएगा।”

अनु अब और चुप नहीं रह सकी।
वह सोनाली की तरफ बढ़ी—
“सोनाली, दो महीने में कभी तुमसे मैंने कोई भारी काम करवाया?
कभी तुम्हें मम्मी ने झाड़ा?
कभी किसी ने तुम्हें परिवार से अलग महसूस करवाया?
फिर तुम सीमा की बातों में आकर अपने मन में इतना ज़हर क्यों भर रही हो?”

सोनाली पहली बार असहज हुई।
उसने नजरें झुका लीं—
“पता नहीं भाभी… वो कहती रहती है कि जॉइंट फैमिली में बहू की कोई कद्र नहीं होती…
और… और अगर मैं आपको, मम्मीजी को मना कर दूँगी, तो आप लोग मुझे बुरा मानोगे…
इसलिए मैं डरने लगी थी।”

अनु ने उसके हाथ को पकड़ा—
“सोनाली, रिश्ते डर से नहीं, भरोसे से निभते हैं।
तुमने हमें मौका ही कहाँ दिया?
हर बात सीमा की नजर से देखने लगी।”

राकेश भी कमरे में आ गया था और सारी बात सुन चुका था।
“छोटा , मैं ही पूछता हूँ…
जब तूने शादी की थी, तो क्या हमने कोई ऐसा वादा किया था कि तुम्हें घर का सारा बोझ उठाना होगा?
या कि तुम्हारी पत्नी दिन भर काम करती रहेगी और हम बैठे रहेंगे?”

विवेक चुप था।

राकेश ने आगे कहा—
“और ये सीमा—
जो खुद अपनी ससुराल में किसी को खुश नहीं रख सकी,
जो रोज लड़ती-झगड़ती है,
वही तुम्हें सलाह दे रही है?
उसे लगता है कि पूरा संसार उसी जैसा है।”

सोनाली के गाल लाल हो गए थे।
वह खुद को अपराधी की तरह महसूस कर रही थी।

सरोजा देवी ने गहरी सांस ली,
“सोनाली बेटा,
मैं जानती हूँ कि तुम्हें नए घर में समायोजित होने में समय लगेगा।
घर बड़ा है, लोग ज्यादा हैं…
पर तुम्हें अकेली कभी नहीं छोड़ा।
अगर तुम्हें कुछ समझ नहीं आता तो तुम पूछ सकती हो…
हम सब मिलकर समझाएँगे।”

यह सुनकर सोनाली की आँखें भर आईं।
उसे याद आया जब वो पहली बार आई थी,
सरोजा देवी ने ही उसे सुबह की पूजा सिखाई थी,
अनु ने नए-नए व्यंजन बनाना सिखाया था,
और बच्चे ने उसे “छोटी माँ” कहकर बुलाया था…

लेकिन सीमा की बातों ने उसके मन में छोटा-सा भय बो दिया था,
जो अब बड़ा होकर दीवार बन गया था।

अनु आगे बढ़कर बोली—
“सोनाली, हम कोई तानाशाह नहीं हैं।
अगर किसी दिन तुम्हारा मन नहीं करेगा,
मैं खुद काम कर लूँगी।
तुम्हारी शादी कोई सौदा नहीं है…
ये हमारा रिश्ता है।
बहनें एक-दूसरे का बोझ उठाती हैं…
वैसे ही हम भी उठाएँगे।”

विवेक धीरे से बोला—
“लेकिन सोनाली को डर था कि… कहीं हम…”

अनु ने बात काट दी—
“विवेक, डर वहीं लगता है जहाँ भरोसा नहीं होता।
और भरोसा वहीं बनता है जहाँ दिल खुला हो।
तुम दोनों ने एक-दूसरे को समझने के बजाय दूसरों की बातों पर ध्यान दिया।”

विवेक शर्मिंदा दिख रहा था।
उसने पत्नी की तरफ देखा—
“सोनाली… शायद हम दोनों जल्दबाजी में थे।”

सोनाली आँसू पोंछते हुए बोली—
“माँजी… भाभी…
मैंने सच में कभी अकेला महसूस नहीं किया।
आप सब बहुत अच्छे हैं।
मैं ही… मैं ही दूसरों की बातों में आ गई…”

सरोजा देवी ने उसके सिर पर हाथ रखा—
“चल बेटा… तू अपनी माँ के दिल में रहती है…
हम सब तेरे अपने हैं।
तेरे मन में डर था, पर हम उसे मिटा देंगे।
काश… तू हमसे एक बार बात कर लेती।”

सोनाली रो पड़ी।
अनु ने उसे गले लगा लिया—
“अब सब ठीक है।
लेकिन एक बात याद रखना—
किसी भी बाहरी बात पर यकीन करने से पहले अपने घरवालों से पूछ लेना।
बाहर वाले कभी सुकून नहीं देते।”

विवेक ने आगे बढ़कर सबको देखा—
“माँ, अब कोई बंटवारा नहीं…
हम यहीं रहेंगे, सबके साथ…
माफ कर दीजिए।”

राकेश ने आकर अपने भाई के कंधे पर हाथ रखा—
“घर बंटने से पहले दिल बंटता है… और वह सबसे बड़ा नुकसान है।
चल, अब हम फिर से वही भाई बनते हैं, जैसा हमेशा थे।”

बच्चे नीचे आकर सबको देखकर हँसने लगे—
“चाचा जी, अब आप कहीं नहीं जाओगे ना?”

विवेक ने उन्हें गोद में उठा लिया।
“नहीं बेटा… अब चाचा कहीं नहीं जाएगा।”

घर में जो खामोशी थी, वह धीरे-धीरे पिघल गई।
एक विश्वास… धीरे-धीरे फिर से बनने लगा।
पूरा परिवार फिर से एक साथ रसोई में जुट गया।
अनु ने चाय के लिए पानी चढ़ाया,
सोनाली ने थाली निकालने में मदद की,
सरोजा देवी ने बड़े प्यार से कहा—
“चलो, आज का खाना हम तीनों माँ-बेटियाँ मिलकर बनाएँगी… बाकी झगड़े बाहर वाली सीमा करे… यहां नहीं।”

सारी बातें हंसी में बदल गईं।
सोनाली मन ही मन मुस्कुराईं—
“मैं तो सच में अनजानी बातों के सहारे अपने ही घर में दीवार खड़ी करवाने चली थी…
कितनी बेवकूफी थी…”

शाम होते-होते घर का हर कोना फिर से रौनक से भर गया।
किसी की कोई नाराज़गी नहीं,
किसी का कोई डर नहीं…
बस एक समझदारी—
कि रिश्ते बनाने में समय लगता है,
तोड़ने में नहीं।

और वह घर,
जहाँ सुबह बंटवारे की बात उठी थी…
वहीं शाम को परिवार फिर से एकजुट होकर बैठा था—
जैसे कुछ टूटा ही न हो।

 मूल लेखिका 

रश्मि प्रकाश 

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