गोद ली बेटी – दिक्षा बागदरे

दीप्ति 6 भाई बहनों में सबसे छोटी बहन थी। उसकी चार बड़ी बहनें और एक भाई था।

उसकी मौसी की अपनी कोई संतान नहीं थी। उन्होंने दीप्ति के मम्मी और पापा से बात करके उसे बचपन में ही गोद ले लिया था।

दीप्ति को बड़े नाजों से पाल पोसकर बड़ा किया। उसकी पढ़ाई-लिखाई में कोई कमी नहीं छोड़ी। समय आने पर उसका विवाह एक अच्छे परिवार में किया। 

उनकी सारी संपत्ति की अकेले उत्तराधिकारी दिप्ती ही  थी। 

समय का चक्र देखिए जैसे-जैसे उम्र गुजरती गई बुढ़ापे ने पांव पसारे संग अपने ले आया ढेरों बीमारियां। 

इससे पहले तक तो वे और उनके पति दोनों ही गांव में अकेले ही रहा करते थे। मगर अब परिस्थितियां ऐसी बन पड़ी कि उनका अकेले रहना मुश्किल हो गया।

फिर भी वे लोग दीप्ति पर बोझ नहीं बनना चाहते थे इसलिए गांव में ही अपनी गुजर बसर कर रहे थे। 

मगर सभी नाते रिश्तेदार अब दबी जुबान से कहने लगे थे कि दीप्ति को उनका ध्यान रखना चाहिए। उन्हें अपने पास लाकर उनकी देखभाल करनी चाहिए। 

दीप्ति को उन्होंने गोद लिया जरूर था लेकिन दीप्ति को उनसे कोई विशेष लगाव नहीं था। दीप्ति जी उन्हें मन से कभी नहीं अपनाया था। वह मुझे अपने माता-पिता समझता ही नहीं थी।

पहले पहल तो वह महीने 2 महीने में मिल आया करती थी। बस इतनी ही जिम्मेदारी वह निभाती थी। उन्हें अपने पास लाकर उनकी देखभाल करने में उसकी कोई रुचि नहीं थी। 

वह उनकी जिम्मेदारी लेकर अपने स्वतंत्र जीवन में खलल नहीं डालना चाहती थी।

उसे ऐसा लगता था कि अगर वह उन्हें यहां ले आएगी तो फिर उसके सास-ससुर जो गांव में रहते हैं उसे उन्हें भी अपने पास रखना पड़ेगा। जो कि वह बिल्कुल भी नहीं चाहती थी।

उसे तो सिर्फ स्वयं के शौक पूरे करने से ही फुर्सत नहीं मिलती थी। आए दिन महंगी-महंगी साड़ियां नए-नए गहने खरीदना पहनना और दिखावा करना यही उसकी दिनचर्या का प्रमुख हिस्सा था। 

फिर अचानक एक दिन उसे किसी से पता चला। मौसी-मौसा जी के दूर के कोई रिश्तेदार का लड़का उनके पास रहने आ गया है। 

तब अचानक उसका माथा ठनका और उसने अपने पति से इस बारे में चर्चा की।

उसे लगा कि कहीं ऐसा ना हो की सारी संपत्ति मौसी-मौसा जी उस लड़के के नाम कर दें। क्योंकि अब तक उसके मौसी-मौसा जी ने कोई वसीयत उसके नाम से नहीं बनाई थी और कहीं भी उसका नॉमिनेशन नहीं किया था। 

अब अचानक उसके मन में संपत्ति का लालच जाग उठा।

अब वह गांव जाकर उनसे कहने लगी कि आप मेरे साथ शहर में मेरे घर चलो। यहां का घर बेच दो। आपका पेंशन अकाउंट वहीं शहर में ट्रांसफर करवा लो। 

वे लोग बरसों से वहां रह रहे थे इसीलिए वे वहां से शहर नहीं आना चाहते थे। अपने घर को तो अपने जीते जी  बेचना नहीं चाहते थे। 

अब दीप्ति को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें।  उसने वहां कई बार जा-जाकर उन्हें यह समझाने का प्रयास किया कि आजकल कानूनी प्रक्रिया बहुत जटिल हो गई है। अगर वे समय रहते किसी भी कानूनी कागजातों में उसका नाम नहीं डालेंगे तो भविष्य में आने वाली किसीभी समस्या में वह उनकी कोई सहायता नहीं कर पाएगी। 

वे बेचारे गांव के सीधे-साधे लोग थे। उन्हें लगा कि उनकी बेटी है जो कह रही है, उनके भले के लिए कह रही होगी। वे यह नहीं जानते थे कि दीप्ति का यह बेटी प्रेम केवल एक “दिखावटी रिश्ता” मात्र है। जो केवल उनकी संपत्ति प्राप्त करने के लिए दिखाया जा रहा है।

उन्होंने उसकी बात मानकर उसके दीप्ति के बनवाए हुए कागजातों पर हर जगह हस्ताक्षर कर दिए। दीप्ति अब कानूनी तौर पर भी उनकी वारिस बन चुकी थी।

अब वह बहुत खुश थी अब उसे संपत्ति छिन जाने का कोई डर नहीं था।

धीरे-धीरे उसने गांव आना कम कर दिया। अब उसका स्वार्थ सिद्ध हो चुका था। 

बेचारे मां-बाप जैसे-तैसे अपना जीवन काट रहे थे। उनकी कुछ खेती बाड़ी भी थी वे सोच रहे थे इसे बेच दे और गांव के मंदिर को दान दे दें।

जैसे ही दीप्ति को इसकी भनक लगी वह तुरंत गांव पहुंच गई। उसे लगा कि ये लाखों की जमीन यूं ही मंदिर को दान दे देंगे। वह उन्हें यहां-वहां की बातें कर कर बहलाने लगी। कहने लगी कि इतना पैसा मंदिर को देकर क्या करोगे लोग खा जाएंगे जो आप चाहते हैं वह कार्य यहां पर होगा ही इसकी क्या गारंटी है और अभी से दान-पुण्य की क्या जरूरत है? आप चलिए मेरे साथ में सब कुछ वहां करवा दूंगी।

दिप्ती ने इस बात की चर्चा अपने भाई-बहनों से भी की। सब ने उससे यही कहा कि अगर तू अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाएगी और गांव वाले ही उनका ख्याल रखेंगे तो वे जमीन तो गांव वालों को ही दान करेंगे ना।

दीप्ति सोच रही थी कि अब वह ऐसा क्या करें कि उसके मां-बाप उसके साथ चलने के लिए राजी हो जाएं।

तभी अचानक कोरोना काल आ गया। वह उन्हें बीमारी का डर दिखाकर बहला-फुसला कर अपने साथ ले आई।

यूं तो उसने उन्हें अलग कमरा और सभी सुख-सुविधा दे रखी थी मगर उनकी सेवा करना उसके बस का नहीं था।

वह उन्हें खाने-पीने को भी ढंग से नहीं देती थी। उनका पेंशन अकाउंट भी उसने यहीं ट्रांसफर करवा कर अपने नाम से जॉइंट अकाउंट करवा लिया और उनका जितना भी सेविंग पैसा था उन सब की एफडी  करवा कर नॉमिनेशन अपना करवा लिया।

अब उसके सारे स्वार्थ सिद्ध हो गए थे। उसने गांव का घर भी बेचकर सारा पैसा अपने नाम कर लिया। 

अब वह उन लोगों के साथ बहुत दुर्व्यवहार करने लगी। उसे उनका खाना-पीना रहना कुछ भी नहीं सुहाता था। बदहाल सी जिंदगी जी रहे थे वे लोग। 

अब दीप्ति के इस “दिखावटी रिश्ते” को वे समझ चुके थे। मगर “अब पछताए होत का जब चिड़िया चुग गई खेत”। 

अब उनका अपना कुछ नहीं रहा था सब कुछ दिप्ती ने हड़प लिया था। 

वे बेचारे किसी भी रिश्तेदार से भी कोई बातचीत करते तो दीप्ति उन्हें डांट दिया करती थी और किसी से बात करने भी नहीं देती थी। घर में कोई रिश्तेदार आए-जाए तो वह उन्हें उनसे मिलने ही नहीं देती थी। 

किसी तरह से वे अपने दिन काट रहे थे। मन ही मन यह सोचकर पछता रहे थे कि क्यों उन्होंने इस लड़की को गोद लिया? इससे तो वे बेऔलाद ही अच्छे थे। गोद ली बेटी के भरोसे उन्होंने अपना सब कुछ गंवा दिया। अब तो उनका घर भी नहीं बचा था कि जहां वे जाकर चैन की अंतिम सांस ले सकें।

ऐसे “दिखावटी रिश्तो” से तो रिश्तेदारों का ना होना ही अच्छा। 

आजकल के जमाने में कौन अपना कौन पराया यह समझना बहुत ही कठिन हो गया है। अपने ही अपनेपन का ढोंग दिखाकर “दिखावटी रिश्तों” की आड़ में धोखा दे रहे हैं।

स्वरचित 

दिक्षा बागदरे

#दिखावटी रिश्ता 

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