गुप्ताजी रिटायर्ड सरकारी टीचर थे, प्रयाप्त पेंशन मिल जाती थी, गांव मै अपने पुस्तेनी मकान मै अपनी पत्नी और बड़े भाई के परिवार के साथ आराम से रहते थे. बची हुई जमीन पर 2 दुकान बनाकर किराए पर दें रखी थी. गुप्ताजी का इकलौता बेटा अनिल पढ़ा लिखा था और अपनी पत्नी अनीता और बेटे अनुज के साथ शहर मै रहता और वहीं नौकरी करता था.
सब कुछ ठीक चल रहा था कि अचानक एक दिन गुप्ता जी की पत्नी कि तबीयत बिगड गई और शहर के बड़े हस्पताल मै भर्ती कराया. परन्तु कुछ दिनों के इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई. पत्नी कि मौत के बाद गुप्ता जी काफ़ी अकेले हो गए. माँ के गुजर जाने के बाद अनिल पिताजी को अपने साथ चलने कि ज़िद्द करने लगा.
गुप्ताजी का भाई भी कहने लगा कि जाओ, कुछ दिन शहर मै रहकर बहु से सेवा करवाओ, जब दिल भर जायेगा, वापस आ जाना, तुम्हारा ही घर है. काफ़ी मान मनुहार के बाद गुप्ताजी जी अनिल के साथ शहर आगये. सब आराम से चल रहा था, बेटा बहु किसी प्रकार कि कोई कमी नहीं रख रहे थे,
बस हर दिन एक ही रोना कि शहर मै खर्चें बहुत है, मकान का किराया, बेटे की स्कूल फीस, कोचिंग फीस आदि. गुप्ताजी को बेटे पर तरस आ गया और अपना ए टी एम कार्ड अनिल को दें दिया. पेंशन और दुकान का किराया दोनों अब अनिल कि जेब मै आने लगा, धीरे धीरे बहु बेटे का व्यवहार भी बदलने लगा.
एक दिन बहु बोली, सारा दिन घर पर बैठे रहते हो, जाकर डेरी से दूध लाया करो, हाथ पैर भी चलते रहेंगे और सस्ता भी मिलेगा. कुछ दिन बाद शाम को बाजार से सब्जी लाने का आदेश भी आ गया, ढेले वाला महंगा लगता है. एक दिन गमलो मैं पानी देते हुए पैर फिसल गया और गिरने से चश्मा टूट गया. बहु ने ये तो नहीं पूछा कि कहीं चोट तो नही लगी, ये जरूर बोली कि चश्मा तोड़ दिया, पैसे पेड़ पर नहीं लगते, ध्यान से काम नहीं कर सकते थे?
अनिल के आते ही बहु ने शिकायत कि तो अनिल ने भी चार बातें सुना दी और बोला, तनख्वाह मिलने पर चश्मा बनेगा, तब तक ऐसे ही काम चलाओ. चश्मा न होने कि वजह से अगले दिन सुबह जब गुप्ताजी दूध लेने नहीं गए तो बहु चाय के बिना आग बबूला हो गई और अनिल भी साथ देता रहा.
2 दिन बाद अनिल चश्मा तो बना लाया पर देने से पहले ये भी कह दिया कि अब साल भर से पहले मत तोडना, दूसरा एक साल बाद ही मिलेगा. आपके खाने पीने मै भी बहुत खर्चा होता है. ये फालतू के सामान के लिए मेरे पास पैसे नहीं बचते. अनिल की बात सुनकर गुप्ताजी के दिल को बहुत ठेस लगी,
वे अपने कमरे मैं जाकर अपनी पत्नी की तस्वीर से बात करते हुए बोले, अच्छा हुआ बेटे की ये बातें सुनने से पहले ही तू चली गई, वरना आज जरूर मर जाती. मेरी पेंशन और दुकान का किराया लेकर मेरे खर्चे गिना रहा है.
गुप्ताजी जी ने गावं जाने का मन बनाया और अनिल को बता दिया इलाज बोला अगले इतवार को ताऊ जी के पोते का मुंडन है, उनका फोन आया था, हम तो जा नहीं पाएंगे, आप चले जाना और 2 चार दिन रह भी आना. चार दिन बाद अनिल ने बाबूजी को बस मैं बिठा दिया और ताऊ जी को खबर कर दी.
गांव पहुंच कर गुप्ता जी अपने लोगों से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए. अगले दिन पहली फुर्सत मै गुप्ताजी बैंक गए और थोड़ी देर बाद बाहर आकर अपनी दुकान पर चले गए और किरायदार से कुछ बात की और लोट आये. मुंडन कार्यक्रम के बाद 10 – 15 दिन यूँ ही बीत गए,
न अनिल लेने आया, न बुलाया और न ही गुप्ताजी जी ने जाने की इच्छा जताई. महीना बीतने के बाद अनिल ए टी एम से पैसे निकानले गया तो पता चला की कार्ड नहीं चल रहा है. पेसो की जरूरत थी इसलिए दुकान के किरायदार से फोन पर पैसे भेजनें को बोला तो जवाब मिला की किराया
गुप्ताजी ने ले लिया है, आप उन्ही से बात कर लीजिये. फिर अनिल ने पिताजी को फोन करके बताया की आपका ए टी एम कार्ड नहीं चल रहा है, बैंक से बात करलो. गुप्ताजी बोले, बात क्या करनी है, मैंने कार्ड बंद करवा दिया है, तुझे अगर पैसे चाहिए हो तो आकर ले जाना, मुझे अपने हर छोटे छोटे काम के लिए तुझसे मांगना अच्छा नहीं लगता.
अनिल की समझ मे सब आ गया, और कुछ ही दिन बाद कार लेकर बाबूजी को लेने गांव आ गया. ताऊ जी से भी न आने की माफ़ी मांगी और बाबूजी को साथ चलने का अनुरोध किया. गुप्ताजी का मन तो नहीं था, पर उनके भाई ने समझाया , की तुमने जो गलती की थी, वो तो सुधार लीं,
अब वहाँ का माहौल अलग ही होगा, अगर फिर भी दिल नहीं लगा, तो वापस आ जाना. गुप्ताजी मान गए और अनिल के साथ शहर चले आये. इस बार घर मे गुप्ताजी की खूब खातिरदारी हुई, बहु बेटे का व्यवहार भी बहुत बदला बदला था, न ही किसी काम को करने के लिए हुकुम मिला और न ही किसी काम के लिए डांट.
इस बार गुप्ताजी जी काफ़ी खुश थे, अब हर महीने अनिल अपनी कार से खुद बाबूजी को गांव लेकर आता या ड्राइवर के साथ बाबूजी को गावं भेज देता, 2-3 दिन वहाँ रुकते, बैंक से पेंशन लेते और वापस शहर आ जाते. गुप्ताजी की जिन्दगी की गाड़ी फिर से पटरी पर आ गई, पर वो अच्छी तरह समझ गए थे कि ये सब ” दिखावटी रिश्ता ” है जो केवल मेरी पेंशन पर टिका है.
साथियो, माता पिता की वसीयत ओलाद की ही होती है. एक उम्र हो जाने के बाद जरूरतें कम जरूर हो जाती है पर पूरी तरह ख़त्म नहीं होती, इसलिए अपने जीते जी सबकुछ ओलाद को देकर उनका मोथाज बन जाना भी कोई समझदारी नहीं है. आप मेरी इस बात से सहमत है या नहीं, अपनी राय ज़रूर लिख भेजे.
लेखक
एम पी सिंह
(Mohindra Singh)
स्वरचित, अप्रकाशित