कालेज का वार्षिकोत्सव था। पूरा कैंपस रोशनी और रंगों में डूबा हुआ था। हर ओर हँसी, संगीत और दोस्तों की बातें।
आयुषी भी मंच की तैयारियों में व्यस्त थी। तीन साल बाद वह फिर से कल्चरल टीम की लीडर बनी थी। पर आज कुछ अलग था — उसका दिल अजीब-सा भारी लग रहा था।
उसी मंच पर कभी वो और रचित साथ में गाया करते थे।
वो कहते थे, “हमारा सुर और दिल दोनों एक जैसे हैं।”
फिर एक दिन बिना कुछ कहे रचित किसी और शहर चला गया — और साथ ले गया आयुषी की मुस्कान भी।
वक़्त ने धीरे-धीरे ज़ख़्म भर दिए थे।
पर आज, जब उसने पीछे मुड़कर देखा — रचित ठीक उसके सामने खड़ा था।
वो मुस्कुराया, बोला, “कितना बदल गई हो तुम, आयुषी!”
उसकी वही मुस्कान, वही आवाज़ — जैसे किसी ने घाव हरा कर दिया हो।
आयुषी के होंठ मुस्कुराए, पर आँखों में पुराने आँसू लौट आए।
“तुम अब भी वही गाना गाती हो?” रचित ने पूछा।
आयुषी ने धीमे स्वर में कहा, “अब मैं वो गाने नहीं गाती जो दर्द याद दिलाएँ।”
कॉलेज की भीड़ के बीच दोनों कुछ पल खामोश खड़े रहे।
फिर रचित ने कहा, “काश मैंने तब माफ़ी माँग ली होती…”
आयुषी बोली, “काश मैं तब रो पाती…”
मंच पर संगीत बजने लगा।
आयुषी ने माइक उठाया और उसी गाने की नई पंक्तियाँ गाईं —
“अब ज़ख़्म नहीं, कहानी हूँ मैं।”
रचित तालियों में खो गया, और आयुषी की आँखों से वक़्त का बोझ उतर गया।
कुछ घाव वक़्त नहीं भरता, इंसान खुद भरता है — जब वह दर्द को ताक़त बना लेता है।
कभी-कभी कोई पुराना इंसान या जगह हमारे दिल के ज़ख़्मों को फिर ताज़ा कर देता है — घाव हरा कर देता है — पर वही पल हमें यह भी सिखाता है कि अब हम पहले जैसे नहीं रहे।
सुदर्शन सचदेवा