कल रात गाय ने एक बछिया को जन्म दिया था — जैसे घर में किसी कन्या का आगमन हुआ हो। पापा ने ख़ुशी से नाचते हुए सबको बताया, “देखो! हमारी गौ माता ने बछिया दी है! अब खूब दूध मिलेगा!”
मां ने थाली में आरती उतारी, पापा ने गाय को दाना-पानी दिया, पड़ोसी बधाई देने आ गए।
बच्ची सुमन भी दौड़-दौड़कर बछिया को देखने गई, उसके छोटे-छोटे कान, बड़ी-बड़ी आंखें और मुलायम सी त्वचा देखकर वह खिल उठी थी।
पर अब, उसी घर में, जब सुमन की मां ने दूसरी बेटी को जन्म दिया, तो माहौल बिलकुल उलट गया था।
घर का आंगन, जो कल तक हंसी से गूंजता था, आज सन्नाटा ओढ़े बैठा था।
पापा खामोश कोने में बीड़ी सुलगाते हुए बैठे थे।
दादी बार-बार बड़बड़ा रही थीं, “फिर लड़की! ईश्वर भी अब आंखें मूंदे बैठा है।”
और मां… मां बिस्तर पर पड़ी थी — पीली, कमजोर और चुप।
किसी ने उसके हाथ में हल्दी वाला दूध तक नहीं दिया।
जबकि सुमन ने देखा था कि गाय के बच्चे के जन्म पर उसे गुड़, दाना और चारा तक खिलाया गया था।
सुमन ने धीरे से कहा, “मां, क्या छोटी बछिया की तरह सुंदर नहीं है?”
मां ने कमजोर मुस्कान दी, “है तो, मेरी गुड़िया तो सबसे सुंदर है।”
“तो फिर सब उदास क्यों हैं?”
मां ने कुछ कहा नहीं, बस सिर फेर लिया।
शाम को जब पापा लौटे, तो उनके हाथ में गाय के लिए भूसे की पोटली थी।
सुमन ने हिम्मत करके पूछा, “पापा, आप गाय को इतना दुलार देते हैं, उसे खिलाते हैं, लेकिन मां को तो आज तक आपने कुछ नहीं दिया… वो भी तो एक बच्ची लाई है ना?”
पापा झुंझलाकर बोले, “तू क्या समझेगी सुमन! गाय की बछिया कल बड़ी होकर दूध देगी, घर चलाएगी। और ये लड़की… इसे पालो, फिर ब्याह दो, फिर दहेज दो… क्या फायदा?”
सुमन कुछ पल पापा को देखती रही, फिर धीमे स्वर में बोली,
“तो क्या छोटी का ब्याह नहीं होगा? क्या वो किसी को खुश नहीं करेगी? क्या वो भी बच्चे नहीं पैदा करेगी?”
पापा ने चुपचाप नज़रें फेर लीं।
मां की आंखें छलक आईं, और उन्होंने सुमन को सीने से लगा लिया।
“बेटा, ऐसे सवाल मत किया कर…”
पर सुमन चुप कहाँ रहने वाली थी —
“तो फिर मां, मनुष्य तो जानवरों से भी गए-गुजरे हैं! गाय अपने बच्चे को नर-मादा देखकर नहीं प्यार करती, पर इंसान करता है!”
मां की आंखों से दो बूंद आँसू टपक गए।
उस रात सुमन के मन में कुछ बदल गया।
दिन बीतते गए। छोटी बड़ी होने लगी — उसका नाम रखा गया “नैना”।
पापा अब भी उसे “झंझट” कहकर बुलाते, “इस झंझट को जल्दी किसी के घर भेजना होगा।”
मां हर बार चुप रह जातीं।
पर सुमन… उसने तय कर लिया था कि नैना को वही बनाएगी, जो समाज को जवाब दे सके।
स्कूल में सुमन बहुत अच्छी छात्रा थी। उसने ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया ताकि नैना की फीस भर सके।
गांव की औरतें ताने मारतीं — “बड़ी आई पढ़ाकू बहन! अब बहन को भी पढ़ाएगी?”
सुमन मुस्कुरा देती, “हां, क्योंकि मैं चाहती हूं कि मेरी बहन रोशनी बने, किसी के तानों की नहीं, अपने सपनों की।”
समय बीता।
नैना ने दसवीं में टॉप किया। जिला अधिकारी तक ने पुरस्कार दिया।
पापा पहली बार अपनी बेटी के स्कूल गए, जब हेडमास्टर ने मंच से उनका नाम पुकारा —
“इनकी बेटी नैना शर्मा ने इस साल पूरे जिले में पहला स्थान पाया है।”
तभी तालियों की गड़गड़ाहट गूंजी और सबकी नजरें गर्व से नैना पर ठहर गईं।
पापा की आंखें नम थीं।
घर लौटते वक्त उन्होंने नैना से कहा, “बेटा, तू तो हमारा नाम रोशन कर गई… मुझे माफ कर दे।”
अब घर का माहौल बदल गया था।
जहां पहले बेटी के जन्म पर मातम होता था, अब लोग नैना के नाम से अपनी बेटियों का नाम रख रहे थे।
दादी भी अब कहतीं, “हमारी बछिया नहीं, हमारी बेटियाँ ही तो घर की असली दौलत हैं।”
सुमन ने एक दिन मां से कहा,
“देखा मां, इंसान अगर चाहे तो सोच बदल सकता है। फर्क बस इतना है कि कोई पहला कदम उठाने की हिम्मत करे।”
मां मुस्कुराईं, “तूने जो किया, वो हर बेटी को करना चाहिए — सवाल करना, चुप नहीं रहना।”
सालों बाद जब नैना अफसर बन गई, तो उसी गांव में एक समारोह हुआ।
वह मंच पर खड़ी थी — वही गांव, जहाँ कभी बेटियों के जन्म पर चुप्पी छा जाती थी, अब ताली बजा रहा था।
नैना ने कहा,
“जब मैं पैदा हुई थी, तो घर में सन्नाटा था। आज वही घर मेरे नाम की वजह से रोशनी में नहा रहा है।
मैं बस इतना कहना चाहती हूँ —
जिस घर में बेटियों का जन्म होता है, वहां लक्ष्मी खुद आती हैं।
जो इसे बोझ समझता है, वो खुद अपनी किस्मत का दरवाजा बंद कर देता है।”
मंच से उतरते वक्त सुमन और मां की आंखें छलक आईं।
और दूर खड़े पापा के होंठों से एक शब्द निकला —
“आज समझ आया, बेटियाँ भी दान नहीं, सम्मान होती हैं।”
शाम को घर लौटते वक्त सुमन ने वही पुराना सवाल दोहराया,
“मां, अब तो फर्क खत्म हो गया न — बछिया और छोटी में?”
मां मुस्कुराईं, “हाँ बेटी, अब फर्क खत्म नहीं, मिट गया है।”
और आसमान में तारे झिलमिला उठे —
जैसे खुद ईश्वर ने भी मान लिया हो कि
जिस समाज ने बेटी को समझ लिया, उसने इंसानियत को समझ लिया।
मूल लेखिका
सरिता रानी (पटना)