“मम्मा, आपसे एक बात पूछूं?” मेरी नई नवेली पुत्रवधू आस्था ने मुझसे कहा। उसकी आंखों में जिज्ञासा और स्वर में हल्का सा रोष था।
“अरे बेटा! अपनी मां से बात करने के लिए अनुमति की क्या ज़रूरत?” मैंने मुस्कराकर कहा।
आस्था ने कहा, “मम्मा, ये बताइए कि आकृति दीदी की ननद के घर दीवाली का शगुन और मिठाइयाँ भेजने की क्या आवश्यकता है? क्या दीदी की ससुराल वाले इतने लालची और उम्मीद रखने वाले लोग हैं? कैसे रहती होंगीं दीदी वहां? थैंक गाॅड, मुझे तो बहुत अच्छा ससुराल मिला है! और मम्मा, आपकी तो मैं जबरदस्त फैन हो गई हूँ।”
मैं हल्के से मुस्कराई, “आस्था बेटा, आकृति तो बहुत किस्मत वाली है। उसे तुमसे भी अच्छा ससुराल मिला है। सबके लिए प्रेम और अपनत्व ही उनकी पहचान है। तुम्हारी सासू माँ- यानी मैंने भी उनसे बहुत कुछ सीखा है। इसी कारण शायद तुम्हें अपना ससुराल अच्छा लगा।”
मेरी बात सुनते ही आस्था की भौंहें तन गईं।
“मम्मा, अब तो प्लीज़ सब डिटेल में बताइए!”
मैं कुछ पल के लिए अतीत में खो गई। सात साल पहले की बातें चलचित्र की तरह मन में उभर आईं।
उस दिन मैंने बड़ी खुशी से करवाचौथ का व्रत रखा था-तुम्हारे ससुर जी की दीर्घायु के लिए सजी-धजी सुहागिन की तरह। आँगन में दीपों की रौशनी, घर में भक्ति, शांति और संतोष का वातावरण था। पर जीवन हमेशा एक-सा नहीं रहता। अगली सुबह अचानक फोन की घंटी बजी। तुम्हारे पति अंशु के सड़क दुर्घटना में घायल होने का समाचार मिला। पलभर में जैसे समय थम गया।
कुरुक्षेत्र जिले के हमारे छोटे कस्बे में सीमित चिकित्सा सुविधाएं थीं। डॉक्टर ने गंभीर स्थिति देखते हुए अंशु को तुरंत पीजीआई, चंडीगढ़ रेफर कर दिया। हम दोनों के लिए सबसे बड़ी समस्या थी कि चंडीगढ़ में हमारा कोई परिचित नहीं। अपने इकलौते बेटे की हालत सोचकर हमारे चेहरे पर चिंता की रेखाएँ गहरी होती जा रही थीं। भीड़-भाड़ वाले अस्पताल में हम खुद को अजनबी-सा महसूस कर रहे थे।
उसी समय आकृति का जयपुर से फोन आया। मैंने घबराहट में पूरी बात बताई। आकृति ने तुरंत कहा, “माँ, पापा, चिंता मत कीजिए। मेरी ननद ज्योति दीदी चंडीगढ़ में ही रहती हैं। मैं उनसे बात करती हूँ, वे आपकी मदद करेंगी।”
अंशु को भर्ती करवाने के बाद मैंने ज्योति को फोन लगाया, पर मोबाइल स्विच ऑफ था। थकान और व्याकुलता में मन में तरह-तरह के नकारात्मक विचार आने लगे- “शायद जानबूझकर फोन बंद किया होगा! नौकरीपेशा लोग हमारे जैसे घरेलू लोगों से कहाँ जुड़ते हैं!आजकल दूसरे की परेशानी से किसी को कोई मतलब नहीं होता!”
शाम तक मैं इन्हीं विचारों में डूबी रही। तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई। सामने ज्योति खड़ी थी, चेहरे पर आत्मीय मुस्कान, हाथों में फल, दूध और घर का बना भोजन। मैं कुछ क्षणों के लिए नि:शब्द रह गई। मन भीतर से लज्जा और कृतज्ञता से भर उठा।
ज्योति ने स्नेह से कहा, “मौसी जी, ऑफिस में मोबाइल बंद रखना पड़ता है, इसलिए बात नहीं हो पाई। अब आप बिल्कुल चिंता मत कीजिए, सब ठीक होगा।” उसकी सहजता और आत्मीयता ने हमारे सारे भय मिटा दिए।
अगले दिन वह आधे दिन की छुट्टी लेकर फिर आई। अंशु के ऑपरेशन के दौरान वह एक पांव पर खड़ी रही- कभी हमारा हौसला बढ़ाती, कभी डॉक्टर से बात करती, कभी रिपोर्ट्स लाती। उसकी उपस्थिति में अस्पताल का दमघोंटू वातावरण भी अपनत्व की छाँव में बदल गया था।
धीरे-धीरे अंशु की हालत सुधरने लगी। पर छुट्टी मिलने में अभी चार दिन बाकी थे। उन चार दिनों में ज्योति रोज़ दफ़्तर के बाद अस्पताल आती। अपने घर के काम निबटाकर भोजन, फल और ज़रूरी चीज़ें लेकर पहुँचती।
वहीं कोने में बैठकर लैपटॉप खोल लेती, मीटिंग करती और साथ-साथ हमारी देखभाल भी।
मैं कई बार कहती, “बेटा, तुम थक जाती होगी, इतना मत करो।” वह मुस्कराती, “मौसी जी, अपनत्व का रिश्ता थकान नहीं, संतोष देता है।” उसके इन शब्दों में जीवन का गूढ़ सत्य छिपा था।
तीसरे दिन की रात अस्पताल की खिड़की से मैंने बाहर झांका। सड़क के उस पार एक पेड़ था, जिसकी डालियों पर हल्की चाँदनी पड़ रही थी। मुझे लगा जैसे पेड़ और ज्योति एक समान हैं, खुद धूप, बारिश और आँधी झेलकर भी दूसरों को छाँव देते हैं।
अगली सुबह अहोई अष्टमी थी। मन में विचार आया, “आज पूजा कैसे होगी? बेटे अंशु की सलामती के लिए व्रत तो आवश्यक है, पर अस्पताल में कैसे?” उसी समय ज्योति पूरे पूजन-सामान के साथ अस्पताल पहुँची। थाल में सजी मिठाइयाँ, फल और दीया-बाती देखकर मेरी आँखें नम हो गईं।
“मौसी जी, माँ की पूजा तो भाव से होती है, आज यह वार्ड ही हमारा मंदिर है।” ज्योति ने कहा। दोपहर में वह मुझे कुछ समय के लिए अपने घर ले गई ताकि मैं कथा सुन सकूं। शाम को व्रत पारण के समय वह फिर अस्पताल लौटी, डॉक्टर की सलाह के अनुसार अंशु के लिए हल्का भोजन लेकर।
जब मैंने अंशु को अपने हाथ से खाना खिलाया, मन में असीम शांति उतर आई। मुझे लगा, जैसे अहोई माँ स्वयं ज्योति के रूप में मेरे पास आई हों।
मैंने भर्राए स्वर में कहा, “ज्योति, तुम सच में अपने नाम की तरह हो, स्वयं जलकर दूसरों का जीवन रोशन करने वाली। तुमने हमें अपनत्व का अर्थ सिखाया है। तुम केवल आकृति की ननद नहीं, हमारी भी सच्ची बेटी हो।”
ज्योति ने मेरे आँसू पोंछते हुए कहा, “मौसी जी, मैं तो वही कर रही हूँ जो अपनों के लिए करना चाहिए। शायद यही सच्चे संस्कार हैं।” उस क्षण मैंने महसूस किया कि भगवान हर बार चमत्कार नहीं करते, कभी-कभी वे किसी इंसान के रूप में “अपनत्व की छाँव” बनकर उतर आते हैं। जीवन की धूप चाहे कितनी भी तेज़ क्यों न हो, अगर दिलों में अपनापन बना रहे, तो हर दर्द सहने लायक हो जाता है।
अंशु की छुट्टी के दिन मैंने ज्योति को गले लगाते हुए कहा, “बेटा, अब तुम मेरी बड़ी बेटी हो। अहोई माँ की कृपा से तुम मुझे मिली जो मेरे जीवन की प्रेरणा बन गई।”
ज्योति मुस्कुराई, “मौसी जी, स्नेह और संवेदना के रिश्ते कभी फीके नहीं पड़ते। जब तक हम एक-दूसरे के लिए महसूस करते रहेंगे, यह संसार सुंदर बना रहेगा।”
उस दिन के बाद से हमारा घर ज्योति के दिए स्नेह और अपनत्व की छाँव में महकने लगा।
अब जब मैंने कहानी पूरी की, आस्था की आँखें भीग चुकी थीं। वह मेरे गले लगकर बोली, “मम्मा, मैं भी अब इस घर का हिस्सा हूं! मैं आपकी तरह ज्योति दीदी की सीख अपनाऊंगी- अपनापन पाऊँगी भी और बाँटूँगी भी।”
अब मैं जानबूझकर मीठी झिड़की देते हुए आस्था से बोली, “हाँ तो मेरी दो बेटियां हैं- बड़ी ज्योति और छोटी आकृति। अब बताओ, बड़ी बेटी के घर दीवाली का शगुन ना भेजूं क्या?
आस्था चहक कर बोली, “क्यों नहीं, मम्मा! बल्कि अंशु के साथ मैं भी जाऊंगी दोनों दीदीयों के यहां शगुन का सामान लेकर। क्योंकि मुझे अपने घर की सारी परंपराओं को प्यार से अपनाना है।
लेकिन फिर चंचलता से बोली, “लेकिन मम्मा, मैं आपसे नाराज़ हूँ। आपने दो बेटियों की बात कही, तीन की नहीं। मैं भी तो आपकी सबसे छोटी बेटी हूं!”
मैंने उसके गालों पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “हाँ बेटा, क्योंकि मैं तुम्हें सिर्फ बेटी कहकर बहू की ज़िम्मेदारियों से मुक्त नहीं करने वाली! तुम्हें मेरे लिए दोनों बनना होगा- बहू भी और बेटी भी।”
और उसी क्षण हमारी प्यारी आस्था की खिलखिलाहट, उसकी भोली मुस्कान और अपनत्व की खुशबू हमारे घर के हर कोने में फैल गई- मानो जीवन फिर एक बार “अपनत्व की छाँव” में नहा उठा हो।
– सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)
साप्ताहिक विषय: #अपनत्व की छांव