सौदामिनी नही रही!
जैसा दमदार नाम वैसा ही दमदार व्यक्तित्व था।उनके नही रहने की खबर जो भी सुनता मन ही मन चैन की साँस लेता।
सौदामनी का भरापूरा घर था।पति बेहद सीधे-सरल,चार बेटे-बहू दो बेटी-दामाद,छः पोते, दो नाती,दो पोतियाँ और तीन नातिन थी।
बड़ी सी हवेली,सैकड़ो बीघे खेती,धन संपत्ति से घर भरा था।
घर के हर सदस्य पर सौदामिनी का रौब था।
बेटे ही क्या दामाद भी जी हजूरी करते थे।
सौदामिनी जब ब्याह कर आई थी तब इस घर की परिस्थिति इसके उल्ट थी।
हवेली थी, पर जीर्ण हीन दशा मे थी। सौदामिनी के पति जयंत इकलौती संतान थे।जयंत ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई करी थी।खेती बाड़ी मे उनका मन बिल्कुल भी नही लगता था।
वो शहर मे एक मल्टीनेशनल कंपनी मे काम करते थे।तनख्वाह ठीक ही थी पर शहर के खर्च ने हाथ बाँधे हुए थे।
माँ-बाप बूढ़े और बीमार रहते थे।खेती पूरी तरह से मजदूरो के हवाले थी।वो बस खाने लायक ही पैसा खेती से देते।रोज ही कोई न कोई खर्च ,कम उपज कह कर अपना घर भर रहे थे।
सौदामिनी गाँव की लड़की थी,पर उसका भी सपना शहर की आराम तलब जिन्दगी जीने का था।
जयंत के साथ विवाह कर वो गाँव बिल्कुल भी नही रुकी।तुरंत ही उसने शहर का रुख किया।
वो शुरू से ही बहुत स्वार्थी और चालाक थी।उसे पता था कि अगर शादी के बाद जयंत के बिना वो एक बार भी रुक गई तो यही नियम बन जाएगा।वो सास-ससुर की सेवा करती रहेगी।हफ्ते या महिने मे पति चार पांच दिन आकर मिलता रहेगा।
गाँव मे उसने ऐसे ही देखा था।पति फौज मे,शहर मे काम करते,पत्नियो को गाँव छोड़कर जगह-जगह घूमते और कमाते रहते।पत्नियाँ घर, खेत,बड़े- बुजुर्ग की सेवा करती और बच्चे पैदा करती रहती।नौकरी से सेवानिवृत्त होकर पति आता भी तो हमेशा की तरह मेहमान बना रहता।
सौदामिनी को ऐसा जीवन नही चाहिए था।
सौदामिनी शहर तो गई पर छोटे से दो कमरे का फ्लैट उसे रास न आया।कहाँ गाँव का खुला खुला घर कहाँ शहर का दमघोटू चार बाई चार का घर।ताजी हवा और सूर्य की रोशनी जो गाँव मे बिल्कुल मुफ्त और इफरात मे मिलती थी यहाँ उसके लिए भी सौदामिनी तरस रही थी।
पति की सारी तनख्वाह वो हड़प लेती पर तमाम बचत के बाद भी हाथ मे कुछ न बचता।
बीच-बीच मे वो पति के साथ गाँव जाती रही।
कुंवारी लड़की का दृष्टिकोण अलग होता है पर शादी के बाद इसमे बहुत परिवर्तन आ जाता है।
सौदामिनी ने समझ लिया कि गाँव मे उसके सास-ससुर की अच्छी संपत्ति है,कोई देख-रेख वाला हो तो जमीन सोना उगले।
शादी के छः महिने बाद जब उसके पहली बार पैर भारी हुए तो उसने गाँव आकर सास-ससुर के साथ रहने की इच्छा जताई।
अंधा क्या चाहे -दो आँख! जयंत कितना भी गाँव से दूर रहना चाहे पर माँ-बाप को अकेला छोड़कर शहर मे रहना कही न कही उसे अपराध बोध कराता था।
सौदामिनी जान गई थी कि गाँव मे उसे हाथ भी नही हिलाना पड़ेगा और उसकी खूब सेव खातिर होगी।
सौदामिनी का ससुराल गाँव के बड़े और समृद्ध परिवारो मे से एक था।पचासो लोग सेवा मे हाथ जोड़कर खड़े रहते थे।
सौदामिनी परम स्वार्थी थी।थोड़े ही दिनो मे घर का पूरा हिसाब किताब अपने हाथ मे ले लिया।
रोज ही सुबह-शाम टहलने के बहाने खेत पर जाने लगी। गाँव की बेटी खेती बाड़ी खूब जानती थी।उसने तुरंत भांप लिया कि घपला कौन करता है।
हरिप्रसाद उसके ससुराल का बहुत भरोसेमंद नौकर था।कई पीढ़ियो से हरिप्रसाद का परिवार जयंत के परिवार की सेवा कर रहा था।उसको रहने का पक्का घर मिला था।
एक शाम सौदामिनी हरिप्रसाद के घर पहुंच गई।
मालकिन को आया देख पूरा घर गदगद हो गया।
अपने घर के चारो तरफ जरा सी जगह मे ही हरिप्रसाद ने तमाम साग-सब्जी उगा रखे थे।
घर के बाहर एक ट्रैक्टर भी खड़ा था।
इसी ट्रैक्टर का हजारो का किराया हरिप्रसाद सौदामिनी की ससुराल से ले रहा था।उसका घर भी साफ-सुथरा आधुनिक सुविधा से सुसज्जित था।
बिना कुछ कहे सुने हरिप्रसाद ने सौदामिनी के आगे हथियार डाल दिए। अब हरिप्रसाद तन मन से खेती मे जुट गया।
मुश्किल से पेट भरने लायक जमीन सोना उगलने लगी।
पहला बेटा होने से पहले घर मे पहली फसल आ गई थी।हर जगह सौदामिनी की चर्चा होने लगी।
बेटा होने पर जयंत आया तो फसल देख हक्का बक्का रह गया।कुछ महिने रहकर जयंत वापस शहर चला गया।
सौदामिनी पहली बार माँ बनी थी इसके बावजूद घर मे आई संपत्ति को देख उसका दिमाग फिर गया था।बच्चे को सास-ससुर के जिम्मे छोड़कर खेत की पैदावार बढ़ाने मे लगी थी।
हरिप्रसाद जैसा आदमी उसका गुलाम बन गया था।
खेत की दशा बदलने के साथ उसने घर के आधुनिकीकरण पर ध्यान लगाया।
दो से तीन साल मे हवेली सभी अत्याधुनिक सुविधा से सुसज्जित हो गई। पहले बेटे के बाद एक बेटी ने भी जन्म ले लिया था।
गाँव के काम को देखकर जयंत ने शहर छोड़कर गाँव आना चाहा,पर सौदामिनी ने समझाया कि अभी तुम्हारी तरक्की होने वाली है,फिर तुम्हारी शहर की नौकरी के कारण ही गाँव मे हमारा कद सबसे ऊँचा है।
दरअसल अभी तो सौदामिनी को पैसे का आनंद आ रहा था।सास-ससुर कोई दखलंदाजी नही करते उल्टे गुलाम की तरह उसके आदेश का पालन करते।
सौदामिनी को पैसे की होड़ लग गई। रोज ही नए से नए गहने बनवाती कपड़े खरीदती।हाँ खेती के लिए जरूरी सामान खरीदने मे कोई कमी नही करती।
उसे समझ मे आ रहा था कि जल्द ही जयंत शहर की नौकरी छोड़कर गाँव आ जाएगा।उस नौकरी मे इतना सिरदर्द रोज का अपमान और पैसा? खेती से मिले पैसे के सामने कुछ नही।
सौदामिनी ने गाँव के घर मे सभी शहरी सुविधा लगवा ली थी।
चार पांच साल मे दोनो सास-ससुर परलोक सिधार गए। जयंत भी सौदामिनी के लालच और स्वार्थ को समझ रहा था।
माँ-बाप की मृत्यु के बाद वो जो गाँव आया फिर गया ही नही।धीरे-धीरे हर जगह जयंत की दखल हो गई। सौदामिनी परेशान थी कि जयंत वापस शहर क्यो नही जा रहा।
जब आठ महिने गुजर गए तो उसने झिझकते जयंत से पूछा,” आप शहर नही जाएगे ?”
जयंत अब तक बहुत बदल गया था।सौदामिनी की हर चाल को विफल करना सीख गया था।उसने अपनी आवाज को मुलायम करके कहा,” देखो अब तुम्हारे सास-ससुर तो रहे नही,अकेले रहना उचित नही,यही सोचकर मैने दो महिने पहले ही त्यागपत्र भेज दिया था।तुमसे कहता तो तुम मना ही करती।तुम्हे मेरी आकांक्षा और अभिलाषा का पूरा पता है।पर अब मै अपने कर्तव्य से और विमुख नही रह सकता।”
इसी बीच चार बच्चे हो गए थे।जयंत नही होते तो बाहर वाले ही तंग करना शुरू कर देते।
पर सौदामिनी को पैसे की लत लग गई थी।
अब हाथ मे खुल्ले पैसे नही होते।पर खरीदारी का भूत सिर पर चढ़ा रहता।
सौदामिनी को पैसे कमाने का एक धंधा मिल गया।वो गरीब मजदूरो को उधार पर पैसे देने लगी,बदले मे सोना-चाँदी,जमीन-जायदाद गिरवी रख लेती।गरीब आदमी के लिए रकम चुकाना लगभग असंभव होता।तो सौदामिनी गिरवी सोना -चाँदी को गलवाकर नया गहना बनवा लेती।गिरवी जमीन की खेती पर ब्याज के तौर पर अपना हिस्सा लेती।
ये सारे काम वो चुपचाप हरिप्रसाद के साथ मिलकर करती रह।जयंत जानकर भी अनजान बना रहा क्योकि वो घर के काम धंधे मे दखल नही देती थी।
गाँव के एक किसान को कैंसर हो गया।शहर मे इलाज से ठीक हो जाएगा ऐसा दिलासा हरिप्रसाद ने ही दिया।हरिप्रसाद और सौदामिनी ऐसे ही लोगो की तलाश मे रहते जो मजबूर होते और पैसे से लाचार।
जब सारे पैसे खत्म होने लगे,तो हरिप्रसाद ने ही सलाह दी कि सौदामिनी से पैसा ले लो।
सोने के मोटे-मोटे बीस तोले के कंगन के बदले पचास हजार रुपया लिया।
कैंसर जाना नही था,वो नही गया पर किसान को अपने साथ ले गया।
किसान की पत्नी की अपने गिरवी कंगन लेने के लिए दिन रात लग गई।
आधा पेट बच्चो को खिलाया, खुद भूखी रही,न दिन देखा न रात बस खटती रही।
तीन साल मे पचास हजार बचा लिए।
जब वो सौदामिनी के पास आई तो उसने वो कंगन अपने हाथो मे डाल उस पर ब्याज लगाकर अस्सी हजार माँग लिए।
बस वो अपना आपा खो बैठी।सारे रुपए उसपर फेंककर बोली, ” ये मेरा,मेरे बच्चो का खून पसीना है।मेरे कंगन जो तूने पहन रखे है वो तेरी खोटी नीयत बता रहे है।ये कंगन मेरा बदला लेगे,ये दिन-रात तेरा खून पिएंगे।”
बाल खोले, छाती पीटती,विलाप करती किसान की स्त्री का भयानक चेहरा सौदामिनी के आँख मे छप गया।न जाने क्या हुआ।सौदामिनी पीली पड़ती गई।शहर मे दिखाया तो कुछ पता नही चला पर महिने भर के भीतर ही सौदामिनी चल बसी।
सौदामिनी की बेटी अपनी माँ के सारे किस्से जानती थी।वो धीरे से उठी शव के हाथ से कंगन निकाले और किसान के घर निकल गई।
सब हैरान माँ का शव छोड़कर बेटी कहाँ जा रही है।
बस वो बुदबुदाती जा रही थी।
“खूनी कंगन और नही!खूनी कंगन और नही!”
-उपमा सक्सेना