नवेली बहू सान्या अभी-अभी इस घर की दहलीज़ पर आई थी। शादी को एक महीना भी नहीं हुआ था। उसकी मुस्कान में अब भी नई ज़िंदगी की चमक थी, पर मन के कोने में एक हल्की सी झिझक भी। सासु माँ कमला देवी सख्त मिज़ाज की थीं — घर का हर काम उनके तय नियमों से चलता था। सान्या कभी-कभी डर जाती कि कहीं उनसे कोई गलती न हो जाए।
एक दिन सुबह-सुबह सान्या रसोई में खड़ी थी, तभी कमला देवी की आवाज़ आई —
“बहू, पूजा का थाल तैयार कर दो, आज तेरे ससुर जी का श्राद्ध है।”
सान्या ने आदर से सिर झुका दिया, “जी माँजी।”
वो पूजा का थाल सजा रही थी तभी उसकी नज़र एक छोटे डिब्बे पर पड़ी। उसमें एक पुराना सोने का कंगन रखा था, जिसकी चमक समय के साथ फीकी पड़ चुकी थी। फिर भी उसमें एक अपनापन झलक रहा था।
कमला देवी आईं और बोलीं, “ये कंगन तेरे ससुर जी ने मुझे हमारी पहली सालगिरह पर दिया था। तब हमारे पास ज़्यादा पैसे नहीं थे, पर उन्होंने अपनी साइकिल बेचकर ये बनवाया था। तब से हर शुभ काम में मैं ये कंगन पहनती हूँ।”
उनकी आँखों में एक हल्की नमी थी। सान्या ने देखा, इस सख्त मिज़ाज औरत के भीतर कितना गहरा प्यार छिपा था।
दिन बीतते गए। घर की ज़िम्मेदारियाँ, रिश्ते, कामकाज सब सान्या धीरे-धीरे सीख रही थी। एक दिन, मोहल्ले में रहने वाली कमला देवी की पुरानी सहेली आईं। बातों-बातों में उन्होंने कहा,
“कमला, तुम्हारी बहू बड़ी समझदार लगती है। बस एक ही बात — आजकल की बहुएँ मायके वालों को ज़्यादा याद करती हैं।”
सान्या रसोई में थी, पर सब सुन रही थी। उसने महसूस किया कि सासु माँ की आँखें थोड़ा झुक गईं। रात को सान्या कमरे में बैठी बहुत सोचती रही — “क्या मैं सच में सासु माँ का दिल नहीं जीत पाई?”
अगले दिन सान्या ने निश्चय किया कि अब वो कुछ ऐसा करेगी जिससे माँजी का मन खुश हो जाए।
कुछ दिनों बाद, घर में नवरात्रि की तैयारी शुरू हुई। पूजा के दिन कमला देवी ने अलमारी खोली तो वो पुराना सोने का कंगन गायब था। उनका चेहरा उतर गया।
“हे भगवान! वो कंगन कहाँ गया?”
उन्होंने पूरी अलमारी, दराजें, यहाँ तक कि रसोई भी छान मारी। कंगन का कहीं पता नहीं था। घर में सब परेशान हो गए। कमला देवी ने किसी पर शक नहीं किया, पर उनका चेहरा मुरझा गया।
सान्या ने धीरे से कहा, “माँजी, आप चिंता मत कीजिए, शायद मिल जाएगा।”
तीन दिन बाद नवरात्रि का अंतिम दिन था। सुबह जब कमला देवी पूजा के लिए तैयार हो रही थीं, सान्या ने चुपचाप एक छोटा डिब्बा उनके हाथों में रखा।
“माँजी, ये लीजिए।”
कमला देवी ने खोला — अंदर वही सोने का कंगन था, पर अब वो नए जैसा चमक रहा था। उन्होंने आश्चर्य से पूछा,
“अरे बहू! ये तो वही कंगन है! तूने कहाँ पाया?”
सान्या ने मुस्कुराते हुए कहा,
“माँजी, मैंने उसे अपने पैसे से साफ़ और पॉलिश करवाया है। मैं चाहती थी कि इस बार नवरात्रि में आप वही कंगन पहनें, जैसे आपने अपने पहले नवरात्र में पहना था।”
कमला देवी की आँखें भर आईं। उन्होंने सान्या को गले लगा लिया, “बहू, तूने मेरे दिल को छू लिया। ये कंगन मेरे जीवन की याद है, और अब तू उस याद का हिस्सा बन गई है।”
उस पल के बाद उनके रिश्ते की दिशा बदल गई। सासु माँ का सख़्त चेहरा अब ममता से भर गया। वे अब सान्या को केवल “बहू” नहीं, बल्कि “बेटी” कहने लगीं।
कुछ महीने बाद, जब सान्या के मायके में शादी थी, कमला देवी ने वही सोने का कंगन उसके हाथों में थमाया।
“सान्या, इसे पहनकर जाना। ये अब तेरी पहचान है, मेरी नहीं। इसे अपने प्यार की तरह संभालना।”
सान्या की आँखों में आँसू थे। उसने काँपते हाथों से कंगन पहन लिया और बोली,
“माँजी, ये कंगन सोने का नहीं, आपके आशीर्वाद का प्रतीक है।”
कमला देवी मुस्कुरा दीं।
“बहू, रिश्ते भी इसी कंगन की तरह होते हैं — अगर थोड़ी मेहनत से चमकाए जाएँ, तो उम्रभर चमकते रहते हैं।”
उस दिन सान्या ने महसूस किया कि असली रिश्ते तकरार या तानों से नहीं, बल्कि समझ और स्नेह से बनते हैं।
घर के आँगन में घंटों तक माँ-बेटी की हँसी गूँजती रही। वह पुराना सोने का कंगन अब सिर्फ़ एक गहना नहीं था — वह दो पीढ़ियों के बीच का पुल बन गया था।
रिश्तों की खूबसूरती उपहारों में नहीं, भावनाओं की सच्चाई में छिपी होती है। अगर मन से निभाया जाए, तो हर रिश्ता सोने के कंगन की तरह चमक उठता है — सालों बाद भी।
सुदर्शन सचदेवा