ज़रा सुनो ! अवनि एक कप चाय बना दो न, बस वैसे ही जैसे तुम अपने लिए बनाती हो।
ये आवाज़ थी सावित्री देवी की — घर की बड़ी और समझदार सास की।
रसोई में नन्हे-नन्हे कदमों से भागती बहू “अवनि” ने जवाब दिया —
“जी माँ, बस दो मिनट में।”
उसके स्वर में घबराहट थी, जैसे कोई गलती न हो जाए।
शादी को अभी तीन महीने ही हुए थे। शहर की आधुनिक लड़की अवनि को इस पारंपरिक परिवार की आदतें समझने में समय लग रहा था। सास-बहू के बीच बातें होतीं, पर अपनापन नहीं था। दोनों एक-दूसरे की परछाई को परखती रहीं — बिना बोले।
एक दिन सावित्री देवी को तेज़ बुखार हो गया। घर में सब बाहर गए हुए थे, बस अवनि ही थी।
अवनि ने घबराकर तुरंत डॉक्टर को बुलाया, दवा दी, माथा थपका और गरम सूप बनाकर दिया।
रात भर वो माँ के सिरहाने बैठी रही।
सुबह जब सावित्री देवी की आँख खुली, उन्होंने देखा — अवनि थककर उनके पैरों के पास ही सो गई थी, सिर कुर्सी पर टिकाए।
सावित्री देवी की आँखें नम हो गईं।
उन्होंने उसके बालों पर हाथ फेरा —
“अरे पगली… तू तो सच में मेरी बेटी निकली।”
उस दिन से कुछ बदल गया।
अब सुबह रसोई से सिर्फ काम की आवाज़ें नहीं, हँसी की खनक भी आने लगी।
कभी सास चाय बनातीं, तो बहू परोस देती। कभी बहू रोटी बेलती, तो सास तवा संभाल लेती।
अब दोनों में न किसी को श्रेष्ठ दिखना था, न कोई छोटा या बड़ा — बस अपनापन था।
एक दिन पड़ोस की शांति आंटी ने कहा,
“वाह सावित्री, तेरी तो किस्मत है, बहू हाथ की सफाई में तो तेरी ही जैसी लगती है।”
सावित्री देवी मुस्कुराईं,
“हाँ, मैंने तो बहू ढूंढी थी, पर बेटी मिल गई।”
अवनि के लिए भी ये घर अब सिर्फ उसका “ससुराल” नहीं रहा, बल्कि उसकी अपनी दुनिया बन गया था।
वो बोली,
“माँ, जब आपने मुझे अपनाया, तो इस घर की दीवारों ने भी मुझे गले लगा लिया।”
शाम को दोनों साथ बैठकर बाग़ में तुलसी को जल चढ़ातीं।
अवनि ने एक दिन हँसते हुए कहा,
“माँ, जब आप नहीं होंगी तो ये तुलसी भी मुरझा जाएगी।”
सावित्री बोलीं —
“नहीं बेटी, अब ये तुम्हारा सहारा है, तुम ही तो मेरी छांव हो।”
वक्त बीतता गया।
एक दिन बहू का मायके जाना हुआ। दो दिन का ही सफ़र था, पर सास की बेचैनी छिपी नहीं रही।
हर बार जब फोन बजता, सावित्री का चेहरा खिल उठता।
“सुनो अवनि, ठीक से खा लेना, वो खाँसी फिर न बढ़े।”
फोन कटते ही पड़ोस की आंटी ने छेड़ा —
“अरे सावित्री, अब बहू नहीं, बेटी की तरह सोचती हो।”
वो मुस्कुराईं —
“रिश्ता तो वही है, बस नजर बदल गई है।”
तीसरे दिन जब अवनि लौटी, सास ने उसके लिए खीर बनाई — वही स्वाद जो माँ बनाया करती थी।
अवनि की आँखें भर आईं।
“माँ, मुझे लगा कोई मेरा इंतज़ार नहीं करेगा… पर आपने तो घर को भी मुस्कुराता रखा।”
सावित्री देवी ने उसके आँसू पोंछते हुए कहा —
“बेटा, जो घर बहू को बेटी बना लेता है, वहाँ सुख अपने आप बस जाता है।”
उस दिन आँगन में दीए जले हुए थे। हवा में खुशबू थी — अपनापन, स्नेह और साथ की।
और सच कहें तो वही घर सच्चा घर होता है,
जहाँ सास बहू नहीं, माँ बेटी बन जाती है।
क्योंकि —
जब रिश्तों में अधिकार कम और समझ ज़्यादा होती है,
तो घर में ‘अपनत्व की छांव’ अपने आप उतर आती है।
सुदर्शन सचदेवा