कैसे यकीन करूं – विमला गुगलानी

रामनाथ की शहर की मेन बाजार में स्टेशनरी की दुकान थी ।कई साल पहले उसके पिताजी सुभाष जी ने शुरू की थी। उस समय वो स्कूलों की किताबें, कापियां व कुछ इसी प्रकार का स्टेशनरी का सामान रखते थे। दुकान भी छोटी थी।जब रामनाथ बड़ा हुआ और पढ़ लिख भी गया तो उसने दुकान पर बैठने की ही सोची।

    दो बड़ी बहनों की शादी हो चुकी थी और एक भाई शहर में बैंक में नौकरी पर लग गया था। रामनाथ ने पुशतैनी काम को संभालने की ही सोची , क्योंकि अब पिताजी भी बूढ़े हो चले थे। पिताजी ने तो कहा था कि चाहे तो वो नौकरी कर ले, उन्का घर खर्च तो दुकान के किराए से ही निकल जाएगा, लेकिन रामनाथ की इच्छा  बिजनैस की थी। 

   वैसे दुकान ठाक ठाक चलती थी। रामनाथ कुछ समय तो काम सीखता रहा , धीरे धीरे उसे दुकानदारी की काफी समझ आ गई। पिताजी से सलाह करके उसने एक फोटोस्टेट का काऊंटर बना दिया तथा धीरे धीरे स्कूलों , दफ्तरों में प्रयोग होने वाला कई प्रकार का और भी सामान रख लिया।जगह कम पड़ने लगी तो कुछ सामान घर पर रखा रहता।पिताजी अब दुकान पर कम ही आते।हितेश नाम का लड़का शुरू से ही इस दुकान पर काम करता था। वो पार्टनर नहीं था , लेकिन अच्छी सैलरी लेता था। सुभाष जी का काफी विशवसनीय था। उसका घर पास ही किसी और कस्बेनुमा बड़े गांव में था। इसी बीच रामनाथ की भी शादी हो गई।कभी सेहत ठीक होती तो पिताजी दो चार घंटे के लिए आ जाते।समय निकलता गया।

  रामनाथ की पत्नी अशुंल ने भी दुकान पर बैठने की इच्छा जताई। पहले तो उसकी सास ने मना किया क्योंकि दो बच्चों की जिम्मेवारी उठाना आसान नहीं था। लेकिन रामनाथ को बाहर के काम करने होते तो दुकान को नौकरों के हवाले करना पड़ता।तो अब वो समय मिलने पर दुकान पर चली जाती। वैसे हितेश सबसे सीनीयर था। ज्यादातर दुकान का काम वही देखता था।

 किस्मत की बात कि उसके पीछे वाली दुकान बिकाऊ हो गई। पिछली तरफ भी बाजार था। रामनाथ के पास कुछ पूंजी थी और कुछ बैंक से लोन लेकर उसने पीछे वाली दुकान भी खरीद ली और दोनों और दरवाजे बना दिए। दुकान खूब बड़ी हो गई तो उसने काफी सामान रख लिया। अब उसने होलसेल का काम भी शुरू कर दिया। कापियों रजिस्टरों वगैरह पर तो उसने अपने ‘ शिव- भारती’ ब्रैंड से लिखवाना शुरू कर दिया। ये उसके बच्चों के नाम थे। 

        अब उसकी दुकान पर हितेश के इलावा तीन चार और लोग भी काम पर थे। रामनाथ बाहर के काम पर ही रहता।अशुंल ने बी़काम कर रखा था, रोज का हिसाब किताब एक अलग आदमी देखता था, लेकिन अंशुल भी हिसाब चैक करती रहती।  काम बहुत अच्छा चला हुआ था, लेकिन जिस हिसाब से दुकान चलती थी, उतना प्राफिट नहीं होता था। 

    छोटा छोटा सामान भी इतना कि गिनती ही मुशकिल थी।रामनाथ ने तो ज्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन  अशुंल को शक होता कि कहीं तो गड़बड़ है। बड़ी बड़ी अमाऊंटस तो बैकों से ही ट्रांसफर होती, गूगल पे भी होता ,  काफी कैश भी होता।फिर कमी कहां है, वो इसकी तलाश में थी।

       एक दिन अशुंल की पुरानी कालिज के समय की सहेली रजनी उसके शहर में आई तो उससे मिलने भी आ गई।उसे दो दिन रूकना था। वो दुकान पर भी गई। इतना अच्छा काम देखकर वो बहुत खुश हुई।बातों बातों में  उसने कहा कि उसकी स्टेशनरी तो खूब मशहूर हो गई। उसकी ननद के कस्बे में भी एक दुकान पर इसी ब्रैंड का सारा सामान रखा है, क्या वो भी दुकान उनहीं की है। 

       नहीं, ऐसा कुछ नहीं, वैसे हमारा सामान जाता है, पर जहां तूं कह रही है, वहां हमारा कोई लिंक नहीं। रजनी तो चली गई लेकिन अंशुल के मन में शक पैदा हो गया। उसने रामनाथ से बात की तो उसे ध्यान आया कि वहां पर तो हितेश का घर है। मैं पूछूगां हितेश से, रामनाथ ने कहा। नहीं उससे मत पूछो, मुझे सोचने दो।उसी दुकान पर राहुल भी काम करता था जो कि अंशुल से काफी घुला मिला हुआ था, अंशुल उसे अपने भाई समान मानती थी, वह दुकान के इलावा घर के भी छोटे मोटे काम कर देता था। 

      अंशुल ने राहुल को हितेश पर नजर रखने के लिए कहा, हालांकि हितेश राहुल से उम्र में भी काफी बड़ा था और बीस साल पुराना सुभाष जी के समय का कर्मचारी था और रामनाथ भी उस पर बहुत विशवास करते थे। राहुल ग्राहक बन कर उस दुकान पर जाकर आया जहां के बारे में रजनी ने बात की थी। सचमुच ही वहां लगभग  सारा समान रामनाथ की दुकान वाला था। अंशुल ने वो सारा हिसाब किताब चैक करवाया जहां जहां उनका सामान होलसेल से सप्लाई किया जाता था।

     वहां पर हितेश या उस कस्बे का कहीं नाम न था, इसका मतलब कि सारा सामान चोरी छिपे ही वहां पहुँचता। रामनाथ को तो यकीन ही न हुआ, लेकिन उसकी पहुँच बहुत ऊपर तक थी। विभागीय जाचंपड़ताल पर माल खरीदने के कोई खास कागजात नहीं मिले और रामनाथ की स्टेशनरी के तो बिल्कुल नहीं। 

     इतना बड़ा धोखा, न जाने कब से हितेश ये सब कर रहा था, वहां उसका एक दोस्त ये सब संभाल रहा था। हितेश ने तो कभी सोचा भी न था कि ऐसा भी हो जाएगा। सारा सच सामने आ गया ,धोखा धड़ी का केस तो होना ही था। हितेश ने बहुत हाथ पांव जोड़े, पैरों पर गिरकर माफी मांगी। पैसों की भरपाई करने का वायदा भी किया लेकिन एक बार टूटा भरोसा फिर नहीं जुड़ता। रामनाथ को यकीन करना मुशकिल था कि उसका सबसे वफादार नौकर उसका भरोसा इस तरह तोड़ेगा।लेकिन सच्चाई से भी मुँह नहीं मोड़ा जा सकता था।

विमला गुगलानी

चंडीगढ़ ।

वाक्य- एक बार टूटा भरोसा फिर नहीं जुड़ता।

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