शर्मा परिवार की कोठी हर त्यौहार पर रौनक से भर जाती थी। इस बार सावन का महीना था, आँगन में झूले पड़े थे, घर में हरियाली तीज की तैयारियाँ चल रही थीं।
जेठानी रीमा और देवरानी सुषमा, दोनों की उम्र में ज़्यादा फर्क नहीं था। रीमा के पति, राजेश जी, बैंक में अधिकारी थे, जबकि सुषमा के पति रमेश अभी कारोबार सँभालने की कोशिश में थे। दोनों बहनों जैसी दिखने वाली इन स्त्रियों के बीच अब महीनों से एक ठंडी जंग चल रही थी।
कभी बात साड़ियों की, कभी बच्चों के स्कूल की, तो कभी सास के दुलार की — हर चीज़ में तुलना, ताना, और तकरार होने लगी थी।
रीमा अकसर कहती,
“देखो सुषमा, घर की बहू वही कहलाती है जो सास का मन जीते, सिर्फ़ दिखावे से नहीं।”
और सुषमा पलटकर जवाब देती,
“मन जीतने के लिए सास का पक्ष नहीं, दिल का साफ़ होना ज़रूरी है दीदी।”
शब्दों के ये तीर अब रिश्तों को छेदने लगे थे।
एक दिन सास शारदा देवी ने तय किया कि इस बार हरियाली तीज का आयोजन दोनों मिलकर करेंगी।
पहले तो दोनों मुस्कुरा दीं, पर अंदर ही अंदर सोचने लगीं
“देखते हैं कौन ज्यादा सराहना बटोरती है…”
तीज का दिन आया। आँगन में महिलाएँ गीत गा रही थीं, मेंहदी की खुशबू फैली थी। रीमा ने महंगे फूलों से साज-सज्जा की थी, तो सुषमा ने घर का बना पकवानों से सबका दिल जीतने की ठान रखी थी।
मौका आया जब मोहल्ले की महिलाएँ एक-दूसरे की तारीफ़ करने लगीं —
“अरे रीमा भाभी का सजाया आँगन तो किसी फिल्म जैसा है…”
“पर सुषमा की मिठाइयों में तो सच्चा स्वाद है…”
दोनों ने मुस्कान ओढ़ी, मगर भीतर आग सुलग उठी।
थोड़ी ही देर में, रसोई से तेज आवाजे आनती सुनाई पड़ी।
रीमा बोली —
“जबसे घर में आई हो, बस अपने आपको आगे दिखाने की होड़ में हो!”
सुषमा ने पलटकर कहा —
“आपको लगता है हर चीज़ आपके बड़े होने से मापी जाती है! ज़रा विनम्रता भी सीखिए।”
इतना कहना था कि रीमा भड़क उठी उस के जेठानीपने को ठेस जो लगी थी, और बात पूरे आँगन में फैल गई।
महिलाएँ आपस में खुसरपुसर करनें लगीं —
“अरे ये क्या! घर की बहुएँ तो एक-दूसरे पर कीचड़ उछाल रही हैं!”
तभी शारदा देवी ने सबके सामने आकर हाथ दिखा रोकते हुए कहा ।
उनकी आवाज़ गहरी थी, पर शांत —
“बस! बहुत हो गया ये आप सबसे छोटी हैं थोड़ी सा बचपना है बात का बतंगड न बनाइये ये हर घर में हो सकता है ।”
पूरा आँगन चुप।
वे धीरे-धीरे दोनों बहुओं के पास गईं और गीली मिट्टी से भरी थाली मँगवाई।
और कहा —
“दोनों अपने हाथ इसमें डालो।”
दोनों ने झिझकते हुए हाथ डाले।
फिर शारदा देवी बोलीं —
“अब एक-दूसरे पर थोड़ा कीचड़ फेंको।”
दोनों हतप्रभ रह गईं — पर सासू माँ के आदेश से इंकार भी नहीं कर सकीं।
जब उन्होंने ऐसा किया, तो कीचड़ दोनों के कपड़ों और चेहरों पर पड़ गया।
शारदा देवी ने शांत स्वर में कहा —
“देखा तुम दोनों ने ? जब कोई किसी पर कीचड़ उछालता है, तो छींटे खुद पर भी पड़ते हैं। घर रिश्तों से बनता है, प्रतिद्वंद्विता से नहीं। बहू वह नहीं जो जीत जाए, बहू वह है जो जोड़ दे।”रीमा तुम बड़ी कहने को थी पर बड़प्पन नहीं दिखा सकी सुषमा तुमने छोटी होकर भी रीमा को कह अधूरी बात छोड़ दी।
दोनों की आँखें भर आईं।
रीमा ने सुषमा का हाथ पकड़ लिया —
“माफ करना बहन, मैं अपने अहंकार में बह गई थी।”
सुषमा ने सिर झुकाये हुए कहा —
“नहीं दीदी, गलती मेरी भी थी। मैंने प्रतिस्पर्धा में रिश्ते को भुला दिया।”
शारदा देवी ने दोनों को गले लगाते हुए कहा —
“याद रखो, जो रिश्तों में कीचड़ उछालेंगे तो हम पर भी कीचड़ गिरेगा ।”
उस दिन घर का आँगन फिर से हँसी से भर गया।
झूले झूलते हुए महिलाएँ गा रही थीं —
“सावन आया रे, सावन आया…”
लेकिन अब उस घर में कीचड़ नहीं, अपनेपन की सोंधी महक आ रही थी।
घर में कीचड़ तब उछलता है जब अहंकार, तुलना और ईर्ष्या पनपती है। रिश्तों को साफ रखने के लिए पानी चाहिए — विश्वास और प्रेम का।
स्वरचित डा० विजय लक्ष्मी
अनाम अपराजितामुहावरे और कहावतें लघु कथा प्रतियोगिता
“कीचड़ उछालना।