“माँ कैसी हैं अब?”
नेहा ने घर में कदम रखते ही अपने बड़े भाई आदित्य से पूछा।
आदित्य ने गहरी साँस ली, चेहरे पर थकान और मन में चिंता साफ झलक रही थी —
“पहले जैसी नहीं रहीं, नेहा। कुछ महीने से तो जैसे उनमें कोई जान ही नहीं बची। खामोश रहती हैं, किसी से बात नहीं करतीं। डॉक्टर कह रहे हैं, यह कोई शारीरिक बीमारी नहीं है, शायद ‘माइंड से जुड़ा मामला’ है।”
“माइंड से जुड़ा मतलब?” नेहा चौंक गई।
“मतलब, वो अंदर से टूट गई हैं। मैंने मनोवैज्ञानिक से भी बात की, उन्होंने कहा — इनसे प्यार से बात करो, इन्हें खुश रखो। पर ये तो किसी से बात ही नहीं करतीं।”
नेहा को माँ के कमरे की ओर जाते हुए डर सा लगा।
वो वही माँ थी, जो कभी पूरे घर की जान हुआ करती थीं — हर वक्त मुस्कुरातीं, सबका ख्याल रखतीं। जिनके हाथ के खाने पर पड़ोस तक की महिलाएँ तारीफ करती थीं। वही माँ अब चुप थीं, सूनी आँखों से छत को देखती रहतीं।
नेहा ने पास जाकर धीरे से पुकारा —
“माँ… मैं आई हूँ।”
माँ, यानी कि सुनीता देवी, ने बस नज़र उठाकर देखा, फिर धीरे से मुस्कुराईं — एक ऐसी मुस्कान जिसमें दर्द ज़्यादा और सुकून बहुत कम था।
“कैसी हो माँ?”
“ठीक हूँ बिटिया,” उन्होंने धीमे स्वर में कहा, “बस ज़रा थक गई हूँ ज़िंदगी से।”
नेहा की आँखें भर आईं। उसने माँ का हाथ अपने हाथ में लिया, जो अब बेहद कमजोर और ठंडा महसूस हो रहा था।
“माँ, कुछ हुआ है क्या? किस बात का बोझ है दिल में?”
पहले तो सुनीता देवी चुप रहीं। लेकिन नेहा के लगातार प्यार भरे सवालों के आगे आखिरकार उनका दिल टूट गया।
उन्होंने कहा, “नेहा, जब तुम्हारे पापा जिंदा थे, मैं खुद को ज़िंदा महसूस करती थी। उनके साथ हँसना, काम करना, सबकुछ आसान लगता था। उनके जाने के बाद मैंने सोचा, अब बच्चों के लिए जी लूँगी। पर अब लगता है कि मैं तो बस एक ‘ज़रूरत’ बनकर रह गई हूँ — आदित्य के घर की नौकरानी, बच्चों की आया, और घर की पुरानी चीज़।”
नेहा सन्न रह गई।
“माँ, भैया तो आपसे बहुत प्यार करते हैं।”
“प्यार?” सुनीता देवी कड़वी मुस्कान के साथ बोलीं, “प्यार वो होता है जब किसी की बात सुनी जाए, उसकी इज़्ज़त की जाए। आदित्य सुबह ऑफिस जाता है, शाम को फोन में लगा रहता है। उसकी पत्नी रुचि को लगता है मैं उसकी ज़िम्मेदारी हूँ। घर का हर काम मुझसे करवाती है। ‘माँ जी, ये सब्जी काट दीजिए’, ‘माँ जी, बच्चे को होमवर्क करा दीजिए’ — बस यही बचा है मेरा रोल। किसी को मेरी तबीयत की परवाह नहीं।”
नेहा के दिल में टीस उठी।
उसे याद आया, कुछ महीनों पहले ही उसने सुना था कि भाभी की माँ आई थीं तो सब कुछ खुद संभाल रही थीं — खाना, सफाई, बच्चों की देखभाल — और माँ उस समय कोने में बैठी थीं, जैसे घर में होकर भी पराई हों।
नेहा धीरे से बोली,
“माँ, आप कबसे यूँ महसूस कर रही हैं?”
“जबसे मुझे ये एहसास हुआ कि मैं बोझ बन गई हूँ।” सुनीता देवी ने कहा, “मुझे याद नहीं कि आखिरी बार आदित्य ने मुझसे ऐसे बात की थी जैसे बेटा अपनी माँ से करता है। अब तो बस ‘माँ, खाना बना दो’, या ‘माँ, ये संभाल लो’। मैंने तो अपने बच्चों को खुश देखने के लिए जीया था। पर अब लगता है, शायद माँ का ‘जीना’ सिर्फ त्याग करना होता है, बदले में कुछ नहीं।”
नेहा की आँखों से आँसू बह निकले। उसने धीरे से कहा,
“माँ, मैं कुछ नहीं कहूँगी अभी। बस आप थोड़ा आराम करो।”
अगले दिन नेहा ने आदित्य को बुलाया।
“भैया, एक बात कहूँ, बुरा मत मानना।”
“क्या बात है?”
“माँ बीमार नहीं हैं, माँ टूट गई हैं। और उनके टूटने की वजह आप हैं।”
“क्या?” आदित्य का चेहरा तमतमा गया, “नेहा, ये कैसी बात कर रही हो? मैंने माँ को कभी कमी नहीं दी — खाना, दवा, आराम — सब दिया है!”
“सब दिया है, पर वक्त नहीं दिया, भैया।” नेहा ने दृढ़ स्वर में कहा।
“माँ को पैसों की नहीं, अपनापन की ज़रूरत है। आपने उन्हें ‘माँ’ से ‘घर की मदद करने वाली महिला’ बना दिया है। वो दिनभर सबके लिए काम करती हैं, लेकिन कोई उनके लिए दो मिनट बात नहीं करता। आपको याद है आखिरी बार आपने उनके साथ बैठकर कुछ बातें कब की थीं?”
आदित्य कुछ बोल नहीं पाया।
नेहा आगे बोली,
“माँ हमेशा आपकी तारीफ करती हैं, भैया। कहती हैं, मेरा बेटा बड़ा समझदार है। लेकिन आपने कब सोचा कि आपकी माँ को भी कोई सुनने वाला चाहिए? उनकी भी एक जिंदगी है, एक अकेलापन है। पापा के जाने के बाद आप ही उनका सहारा थे, लेकिन आपने उन्हें साथ नहीं, बस जिम्मेदारी बना दिया। रुचि भाभी के भी अपने कारण होंगे, लेकिन माँ के साथ ऐसा बर्ताव सही नहीं है।”
आदित्य की आँखें झुक गईं। उसे अहसास हुआ, वह सच में माँ को “पारिवारिक फ़ंक्शन” की तरह निभा रहा था, महसूस नहीं कर रहा था।
उस रात उसने माँ के कमरे में जाकर धीमे से कहा,
“माँ, चलिए, हम दोनों थोड़ा बाहर चलते हैं।”
“कहाँ?” माँ ने हैरानी से पूछा।
“जहाँ आप चाहें — मंदिर, पार्क, या बस थोड़ी हवा खाने। अब मैं आपको कैद नहीं रखूँगा।”
सुनीता देवी ने पहली बार मुस्कराने की कोशिश की।
अगले कुछ दिनों में आदित्य ने छोटे-छोटे बदलाव शुरू किए —
माँ की पसंद का संगीत सुबह बजाने लगा,
कभी उनके साथ बाजार जाने लगा,
और रविवार को खाना उन्होंने बनाया, ताकि माँ को छुट्टी मिल सके।
रुचि ने भी धीरे-धीरे बदलाव महसूस किया। उसने पहली बार सुनीता देवी से कहा,
“माँ जी, मैं जानती हूँ आप बहुत कुछ झेल चुकी हैं। अब घर आप पर नहीं, हम सब पर टिका रहेगा।”
धीरे-धीरे माँ की आँखों की चमक लौटने लगी। उन्होंने फिर से अपने पौधों की देखभाल शुरू की, बच्चों को कहानियाँ सुनाने लगीं।
एक दिन आदित्य ने उन्हें पुराने एल्बम दिखाते हुए कहा,
“माँ, अब मैं आपको फिर से वैसे ही हँसते देखना चाहता हूँ, जैसे इन तस्वीरों में हैं।”
सुनीता देवी ने उसके सिर पर हाथ रखा और कहा,
“बेटा, अब तू समझ गया, तो मैं फिर से वही बन जाऊँगी।”
माँ के चेहरे पर मुस्कान लौट आई — एक सच्ची, आत्मीय मुस्कान, जो हर कोने को रोशन कर गई।
कभी-कभी रिश्ते निभाने के लिए सिर्फ शब्दों की नहीं, महसूस करने की ज़रूरत होती है।
हर माँ को सम्मान चाहिए, न कि सिर्फ जिम्मेदारी का एहसास।
क्योंकि जब माँ मुस्कुराती है — तब ही घर ‘घर’ बनता है।
दिव्या सिन्हा