सुजाता के घर किट्टी प्रार्टी चल रही थी। पद्रहं- बीस औरतें सज धज कर बैठी तबोला खेल रही थी। फिर खाना पीना, गाना – बजाना, साड़ियों , जेवरों की बातें और सबसे जरूरी बहुपुराण या फिर बिना मतलब की यहां वहां की बातें, रसोई की , कामवालियों की यानि कि हर घरेलू मुद्दे पर बातें होती थी। इसी बहाने गली मुहल्ले की खबर भी मिल जाती। आसपास की दो तीन सोसायटी की औरतें ही इसकी मैंबर थी।
सुजाता के घर भी ये सब हो रहा था। हर महीने किसी न किसी के घर या फिर होटल में ये सब चलता ही था। इसी बहाने आपस में मिलना जुलना भी हो जाता और बंद पड़े कपड़ों, गहनों को हवा भी लग जाती। इस किटी को सीनीयर सिटीजन किटी के नाम से भी जाना जाता था।क्योंकि सब औरतें साठ के ऊपर की उम्र की ही रही होगीं।
सुशीला, कांता, सुलभा, सुषमा, संतोष बहुत खुश थी, तंबोला में आज उनहें कमाई जो हुई थी। शीना और नीरू एक और बैठी अपनी ही बातें कर रही थी। आजकल सबके घर की एक ही कहानी है। बच्चे बुजुर्गों की परवाह नहीं करते, उनके पास मां- बाप के लिए समय नहीं या फिर बच्चे विदेश जा कर बस गए, मां बाप अकेले रह गए।
हर घर की बात सबको पता थी, लेकिन समय के साथ चलने में ही भलाई है। शीना कुछ ज्यादा ही उदास लग रही थी। जब आदमी दिल से खुश ना हो तो मुस्कराहट भी नकली लगती है। नीरू ने पूछने की कोशिश की लेकिन शीना चुप रही।
दो साल पहले शीना के पति का देहांत हो गया था। एक बेटी और बेटा, दोनों शादीशुदा थे, किसी चीज की कोई कमी नहीं थी, लेकिन अकेलापन सहन करना भी आसान नहीं होता।
बेटी का ससुराल भी उसी शहर में था, कभी कभार आती थी, सब नौकरी वाले थे, पोता पोती अपनी पढ़ाई में मस्त या फिर कुछ समय बचता भी है तो फोन में निकल जाता है।नीरू समझ गई थी कि शीना के मन में कुछ चल रहा है, लेकिन वहां पूछना सही नहीं लगा और वहां बात हो भी नहीं सकती थी।
दोनों एक ही सोसायटी में रहती थी और आपस में गहरी दोस्ती भी थी। पारिवारिक आना जाना भी था। दोनों के पति भी आपस में दोस्त थे, लेकिन जब उपर से बुलावा आए तो कोई कुछ नहीं कर सकता था। शीना सरकारी नौकरी से रिटायर थी, उसके पति भी नौकरी में थे तो इस हिसाब से शीना को आर्थिक तंगी तो बिल्कुल भी नहीं थी।
नीरू घरेलू थी , लेकिन उसके पति की पैंशन आती थी। उसकी बेटी विदेश में थी और बेटा बहू और उनके दो बच्चे साथ में रहते थे। उसका बेटा अनूप और बहू संभावना भी नौकरी करते थे।
किट्टी के दो दिन बाद जब सब अपने अपने काम पर चले गए तो नीरू शीना से मिलने गई। सोसायटी की औरते अक्सर कुछ सुबह, कुछ शाम समयानुसार पार्क में आती थी। पति के गुजर जाने के बाद शीना मानसिक रूप से अस्वस्थ सी रहती। पहले पहल तो सब साथ होते है, फिर जीवन अपने दम पर ही गुजारना होता है।
बेटा, बहू , बेटी, दामाद, उनके बच्चे,मायके वाले सब अपने कामों में लग गए।पहले पहल तो कुछ सहेलियां घर में आती रही लेकिन धीरे धीरे सब भूल जाते है, जिस पर बीतती है,
सिर्फ वही नहीं भूल पाता। यही हाल शीना का था। नीरू उसकी खास सखी थी तो वह उससे अक्सर मिलती रहती और उसे समझाती। कुछ महीने तो वो किट्टी में भी नहीं गई थी, लेकिन अब नीरू के कहने पर जाना शुरू कर दिया था।पार्क में भी वो कम ही आती।
नीरू जब शीना के घर पहुंची तो दोपहर के बारह बजे होंगे। घर में शीना और उसकी मेड थी जो कि सुबह से लेकर रात आठ बजे तक वहीं रहती थी, सारा काम संभालती थी। नीरू ने आने से पहले फोन कर दिया था, ताकि वो भी फरी हो।
औपचारिक बातचीत के बाद नीरू ने सीधे सीधे ही बात शुरू कर दी। “ देखो शीना, किसी एक को तो पहले जाना ही होगा, ये तो सब जानते है, लेकिन जो रह जाता है, उसे तो जीना ही पड़ता है, अगर तुम इसी तरह रहोगी तो बीमार पड़ जाओगी, दो साल होने को आए, संभालो अपने आप को, कुछ मन में है तो मुझे बताओ।
तभी मेड चाय बनाकर ले आई, दोनों ने चाय पीनी शुरू कर दी। “ कोशिश तो बहुत करती हूं, लेकिन पुरानी यादों से उबर नहीं पाती” चाय पीते हुए शीना बोली।तूं पहले कितना काम करती थी, अपने पति के लिए कुछ न कुछ खाने को बनाती ही रहती थी। अब बच्चों के लिए बनाया कर, नीरू ने कहा।
कोई नहीं खाएगा, किसी के पास बात करने का तो समय नहीं, दिल की बात जुबां पर आ ही गई। बहू तो वैसे नौकरी से थक कर आती है, फिर बच्चों को देखती है, काम तो मेड ही करती है, जैसा बनाती है, सब खाते हैं। बेटा कभी कभार दो मिंट के लिए हालचाल पूछ लेता है।
एक बात बता, बेटा, बहू या बच्चे तुमसे दुर्व्यवहार करते है, तुम पर कोई रोक टोक है या ऐसी कोई और बात, नीरू ने पूछा।नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं। दो महीने पहले मैं बेटी सुनंदा के घर चार दिन रह कर आई तो बहुत अच्छा लगा था। घूमने फिरने भी गए, मेरे बनाएं पालक के पकौड़े तो सबको पंसद आए। उसकी सास भी मुझसे बहुत हिलमिल गई थी, सोचती हूं कुछ दिन वहीं चली जाऊं, शीना ने कहा।
बुरा मत मानना, लेकिन चार दिन रहने की बात और है, और ज्यादा दिन या हमेशा रहना अलग होता है। सुनंदा के सास ससुर भी है, नौकरी भी करती है, वहां तूं कुछ न कुछ काम भी करती रही, और यहां तूंने रसोई में झांकना ही बंद कर दिया है, नीरू ने कहा।
मेरी बहू भी नौकरी करती है, वो सब भी बिजी हैं, लेकिन मैनें भी अपने आप को बिजी रखा हुआ है।ठीक है पतिदेव का साथ है, मेड भी है, फिर भी कुछ न कुछ करते रहने से मन लगा रहता है।
तुझे कितना शौक था कढ़ाई, बुनाई का, नए नए व्यजंन बनाने का, जब नौकरी पर थी तेरे पास समय नहीं था। भगवान की मर्जी के आगे तो किसी की चलती नहीं, अब तेरे पास समय है तो वो काम कर जो पहले नहीं कर सकी, नीरू ने कहा।
कुछ और बातें करके वो चली गई। बच्चों के स्कूल से आने का टाईम हो गया था। इधर शीना के पोता पोती भी आने वाले थे। दोपहर में मेड उनके आने पर फुल्के बनाती थी। नीरू के जाते ही जैसे शीना में स्फूर्ति आ गई।पहले तो उसने चटपटा मसालेदार बटर मिल्क तैयार किया और फिर बच्चों के आने पर लच्छेदार परतों वाले परौठें बना कर खिलाए।
बच्चे तो चटकारे ले ले कर खा रहे थे। शीना के मन को बहुत सकून मिला। शाम को उसने मूंग दाल का हलवा बना कर कैसरोल में रख दिया। रात को सबके लिए ये सरप्राईज था।
अब शीना रोज ही कुछ न कुछ हल्का फुल्का काम करती।पार्क में भी जाती। दो महीने बीत गए। एक दिन बाथरूम में पैर फिसलने से गिरने पर पैर में फ्रैक्चर आ गया तो डा. ने बैड रैस्ट के लिए बोल दिया।
बेटी आई , लेकिन दो घंटे रूककर चली गई। त्यौहारों के चलते मेड भी एक हफ्ते के लिए गांव चली गई। एक और रखी जो कि कुछ घंटों के लिए आती थी। शीना को अपनी दिनचर्या पूरी करने के लिए किसी का सहारा लेना पड़ता था। नीरू तो रोज ही आकर उसकी मदद करती। सबसे ज्यादा काम बहू ने किया।
बेटी के आने से तो काम बढ़ ही जाता। परिवार सहित आती तो बैठ कर मां से ही बातें करती, काम तो बहू ही करती। शीना ने कहा भी कि दो दिन छुट्टी लेकर रह जा उसके पास, बच्चे तो बड़े है, दादी के पास रह लेगें, लेकिन मन न हो तो बहानों की भी कमी नहीं होती।
बाद में मेड भी आ गई , और अब शीना ने ऊन मंगवाकर स्वैटर बुनना शुरू किया। सबने कहा, छोड़ो मां , आजकल हाथ के बुने स्वैटर कौन पहनता है। शीना ने इतना सुंदर ब्लाऊज बनाया बहू के साईज का कि वो देखती ही रह गई।पहन कर आफिस गई तो सबने सराहा।शीना का प्लास्टर खुल चुका था, अब वो समझ गई थी कि घर की असली लक्ष्मी तो बहू ही है।अपवाद छोड़ दिया जाए तो बहू ही सहारा देती है।
और बुजुर्गों को भी चाहिए कि ज्यादा नहीं तो जितना हो सके हाथ पैर हिलाते रहना चाहिए और अगर आर्थिक क्षमता है तो दिन त्यौहारों पर और वैसे भी बच्चों की मदद करनी चाहिए।
शीना की पेंशन जमा ही हो रही थी, किसी ने उससे कभी पैसे मांगे ही नहीं थे तो उसने मन ही मन फैसला किया कि दीवाली पर बहू के नाम कार खरीद कर उसे तोहफा दिया जाएगा ताकि वो स्कूटी की जगह कार पर आफिस जाए।
प्रिय पाठको, सास, बहू का रिश्ता भले ही बदनाम है, लेकिन ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती और अब वैसे भी जमाना बदल गया है। घर में रहने वाली महिलाएं भी बहुत काम करती है, लेकिन नौकरी करने वाली औरत पर ज्यादा बोझ होता है।सास बहू में आपसी सामंजस्य हो तो सब आसान हो जाता है।भले ही बेटे ,बेटियां भी ध्यान रखे लेकिन असली धुरी तो बहू ही होती है।
विमला गुगलानी
चंडीगढ ।
वाक्य- बुढ़ापे का असली सहारा न बेटा , न बेटी बल्कि बहू होती है।