असमर्थ – सोनिया अग्रवाल

बीते कुछ  रोज पहले मेरी नानी  जी  (माया देवी) गुजर गई।  83 से 84 साल कुछ उम्र रही होगी। बहुत बीमार थी कई दिन से। न कुछ खाती थी ना ही पीती थी। तीन महीने से तो बिस्तर से भी नही उठ पाती थी। (उनके पति श्री रामलाल जी) मेरे नाना जी भी तकरीबन इसी उम्र के हैं। वैसे तो वो स्वस्थ हैं मगर कभी उनके बचपन के समय किसी कुत्ते के काटे जाने से उनका दिमागी संतुलन थोड़ा बिगड़ गया था। बीच बीच में उनको कभी भी दौरा पड़ जाता है

तो पागलों जैसी हरकते करते हैं। समय के साथ साथ उनकी बीमारी और बढ़ गई थी। उनको नानी के गुजर जाने की खबर है मगर फिर भी वो अब भी नानी को ढूंढते रहते है । बच्चों से पूछेंगे की नानी को रोटी दी। नानी के कमरे में जाने की कोशिश करने पर बच्चे उन्हे रोक लेते है। मामा जी उन्हें अपने साथ ही सुलाते है उनके कमरे में नहीं जाने देते। झूठ बोलते है कि नानी आराम कर रहीं हैं । अब वो नानी को बहुत ढूंढ रहे है की  कहां गई। दवाइयों के जरिए उन्हें संतुलित या यूं कहो की काबू कर रखा है। 

   मेरे नाना नानी ने अपने जीवन का कितना लंबा समय व्यतीत किया है। नानी कभी मेरे नाना जी को छोड़कर अपने मायके तक नहीं गईं। जहां भी गए दोनों हमेशा साथ साथ गए। नानी कभी हमारे यहां भी अकेले नहीं आई। उनकी पूरी दुनिया नाना जी ही थे जैसे। मेरी नानी एक गरीब परिवार से थी और नाना जमींदारों के

खानदान के। नानी थी बड़ी सुंदर बिल्कुल रूई का फोहा वैसे तो मेरे नाना भी सुंदर थे बिल्कुल देव आनंद लगते थे। मेरे नाना जी ने वकालत की भी पढ़ाई की थी मगर सीधेपन के चलते उनसे वकालत चली नहीं तो उनके पिता ने अपने रसूख और नाना जी की शैक्षणिक विशेषताओं के बलबूते उन्हें अच्छी सरकारी नौकरी पर आसीन करवा दिया था।   

     नानी की सास को यह तो दिखता था कि मेरी नानी का मायका गरीब था मगर उन्हें यह महसूस नहीं होता था कि नानी इतनी सुंदर , घर के कामों में दक्ष थीं और नाना की हर जरूरत का कितना ध्यान रखती थीं । कभी कभी जब नानाजी बेकाबू हो जाते थे तो कैसे उन्हें शांत और प्यार करतीं थीं। नानी की सास नानी को परेशान करने का एक भी मौका नहीं छोड़ती थीं। बात बात में अपशब्द कहना उनकी जागीर थी। एक रोज नानी की सास ने उन पर हाथ उठा दिया ।

नाना जी अपने स्वभाव के चलते अपनी मां से तो कुछ न कह पाए मगर नाना जी अपने परिवार से अलग हो किराए के मकान में चले गए और जो एक बार गए तो फिर मुड़कर कभी अपने घर नहीं गए चाहे लाख परेशानी आई। नानी तो कह भी देती की त्यौहार है , शादी ब्याह है , ऐसे नहीं रूठा करते। मगर मेरे नाना जी कभी उस चौखट  पर दुबारा नहीं चढ़े। पहले तो उनके माता पिता बहुत झुके मगर नाना की जिद के आगे उन्होंने भी अहंकार में उनको अपनी जायदाद से बेदखल कर दिया।

            नानी ने अपनी गृहस्थी जमाई, एक एक कर चार बच्चों को जन्म दिया। ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी मगर घर भी बनाया, बच्चे भी पढ़ाए और बिना किसी की सहायता लिए शादी ब्याह भी कराए। मुझे अपने बचपन की कुछ याद अभी भी बाकी है एक बार जब हम सब बच्चे, मम्मी पापा, मामा मामी ,नानी नाना मौसी की शादी के बाद  हरिद्वार गंगा नहाने जा रहे थे तो रास्ते में ट्रेन में सामने की बर्थ पर बैठी 2 नवयुवतियां नाना जी का मजाक बना रही थी। मतलब नानाजी के सीधेपन पर व्यंग्यात्मक हंसी हंस रही थी। तो मेरी नानी ने जो उनकी खबर ली , दोनों लड़कियां खिसिया गईं। नानाजी से माफी मांगे, मेरी नानी तो बस बोले जा रही थी। ट्रेन में मौजूद और लोग भी नानी की ही तरफ से बोल रहे थे। हार कर लड़कियों को सीट से उठ कर दूसरी जगह जाकर बैठना पड़ा।हम बच्चों को तो बड़ा मजा आया। जब तो हमे कुछ समझ नहीं आया मगर वो बीते दिन याद कर अब पता चलता था कि नानी , नाना जी को लेकर कितनी भावुक थी। कितना प्यार करती थी।

नानी बीमार नही रहती थी, नाना ज्यादा बीमार रहते थे शुरू से। नानी से इतना लगाव था की एक पल के लिए भी उन को नहीं छोड़ते थे। नाना जी की तबीयत के चलते नानी को बहुत डर रहता था कि उनके जाने के बाद नाना जी का क्या होगा ? पुराने समय की होने के बावजूद भी उनकी एक ही इच्छा थी या तो नाना जी उनसे पहले चले जाएं या फिर उन दोनों की मृत्यु साथ-साथ हो । आज जब मैं नाना जी को बेचैन देख रही थी तो मुझे नानी की बातें रह रहकर याद आ रही थी। 

      उनकी अंतिम क्रिया के समय हर किसी के मुंह पर यही शब्द थे की बहुत सौभाग्यवती थी कि इस उम्र में पति, पोते , पड़पोते, धेवते और पढ़ोते सब का मुंह देखकर गई है। पक्का सोने की सीढ़ी चढ़ेंगी। मगर मेरे मन में  नानी की ही बातें चल रही थी कि वो क्या चाहती थीं और क्या हुआ। हम सब क्यों इतने असमर्थ होते है कि अपनी आखिरी चाह भी नहीं पूरी कर सकते। क्या सच में पूरे विधि विधान से किए गए अंतिम संस्कार के बाद भी नानी की आत्मा को शांति मिल गई होगी। नानी का शरीर चला गया था मगर मुझे ऐसे लगा कि आत्मा तो नाना के पास ही रह गई है।

नानी की  अंतिम विदाई के समय मेरे मन में सिर्फ यही ख्याल आ रहे थे की नानी और नाना का प्रेम कितना सामाजिक दायरे से ऊपर था नानी को सुहागन नहीं जाना था उन्हें तो अपने हमसफर को या तो अपने साथ ले जाना था या फिर उनके बाद जाना था। मगर कहते है की हम तो मात्र कठपुतली मात्र है जिसकी डोर उस ईश्वर के हाथ में हैं। जैसे नचाए वैसे नाचेंगे। 

लेखिका : सोनिया अग्रवाल 

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