मेरी यादों में दूर्गापूजा – डाॅ उर्मिला  सिन्हा

दशहरा ..शारदीय नवरात्रि के दशमी को नीलकंठ पक्षी का  दर्शन अत्यंत शुभ माना जाता है.. अतः आप सभी के समक्ष प्रस्तुत है  -नीलकंठ, हे भोलेनाथ 🥀💐🙏

आप सभी को सपरिवार विजयादशमी की हार्दिक  शुभकामनाएँ  बधाई.. मां भगवती की  कृपा बनी  रहे।बडों को चरणस्पर्श और छोटों को शुभाशीष.. 

मेरी यादों में—दुर्गापूजा

डॉ उर्मिला सिन्हा

   बरसात में निरन्तर पानी का बरसना । घर के आस-पास, ताल-तलैया,नाहर-पोखर यहां तक कि फुलवारी के अगल-बगल भी पानी ही पानी।

    बीच में पगडंडी रास्ता सूझता न था ..हथिया नक्षत्र में इन्द्र देव की विशेष कृपा रहती .. पानी भी बरसता दिल खोलकर…. लाल चाचा के अनुसार …”हथिया नक्षत्र अर्थात–हाथी के चार पैर…अगला बरसा..दूसरा बरसा… तीसरा बरसा और चौथे में … लबालब….

  गांव के एक स्थान से दूसरे को जोड़ने वाली पगडंडी पूर्णतः डूबी हुई.. पार करने वाले के एक हाथ में चरण पादुका दूसरे से घुटनों तक कपड़ा उठाये .. बड़ी एहतियात से फूंक-फूंक कर पार करते हैं…जरा भी चूके ..कि… .छप्प से गड्ढे में… सत्यानाश.. बच्चों का क्या वे ताली बजाने खिलखिलाने  में मस्त।

 क्वार का महीना आते ही चारों ओर पानी ही पानी हिलोरें मारता ..करमी का साग गरीबों  का आहार ,एक अजब सी सीलन भरी महक फिजा में फैली हुई। धान के पौधों में  दाने अंकुरित होने लगते। 

  उसी बीच पदार्पण होता था … चिरप्रतीक्षित शारदीय नवरात्र का…जय हो दुर्गा माई .. वातावरण भक्तिमय हो उठता… बड़ों के साथ हम बच्चे भी बड़ी श्रद्धा से सिर नवाते …

मौसम में बदलाव.. हल्का हल्का ठंड का अहसास होने लगता… गांव का घर. खुला-खुला ,… चारों ओर पानी ही पानी …खुले आकाश में सूरज.. चंदा का उगना डूबना.

  धूप इतना तेज कि मां कहती,” इसी कुआर के घाम में चमड़ा सुखाया जाता है…”हम बच्चे “आयं “..कह अपने खेल में मस्त हो जाते। 

   दुर्गा पूजा में छुट्टियों का इंतजार रहता ।पंचमी या षष्ठी से स्कूल बंद हो जाता था ।घर में कलश स्थापना की प्रसन्नता छाई रहती अलग। घर के बड़े बुजुर्ग नौ दिनों तक विधि-विधान से फलाहार रहकर माता की आराधना करते  धूप दीप अगरबत्ती के  सुगंध से  वातावरण सुवासित रहता। 

    संध्या आरती में हम बच्चों को भी प्रवेश मिलता ।हम बडों के सुर में सुर मिला जोर-जोर से आरती गाते। किसी के हाथ में झाल, कोई ढोल-मंजीरा , घंटी बजाता.. कोई शंख फूंकता …हम बच्चे बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते .. हमें स्वादिष्ट प्रसाद मिलता.

   संयुक्त परिवार था.. छुट्टियों में चाचा..बुआ…भ‌ईया… दीदी सपरिवार आते …हम बच्चों का कुनबा मजबूत होता उधम मचाने  धमाचौकड़ी में सबसे आगे। 

     घर के बड़े पूजा-पाठ खरीदारी, घर-बाहर की समस्यायों में व्यस्त.. हमें डांट-फटकार ना के बराबर मिलती ….. हमारे तो पौ-बारह.. तरह-तरह के पकवान .. केले के पत्ते पर सामूहिक भोजन.. नाश्ता.. पानी… खेल-कूद नये रंग-बिरंगे कपड़े  खिलौने मिलते। 

हरसिंगार का फूल  रातभर झर झर गिरता…. सबेरे हम बच्चे  डलिया  भर-भर चुनते माता की पूजा  होती… 

  हमारा मुख्य आकर्षण था गांव में तीन दिनों तक लगने वाला मेला… सप्तमी, अष्टमी और नवमी…. गांव के पढ़े-लिखे नौजवान .. सामाजिक, पौराणिक सुरूचिपूर्ण, रोचक  नाटकों का मंचन करते.. जादू का खेला.. कठपुतली का मनभावन नाच…बाईस्कोप तरह-तरह के स्वांग रचे जाते। 

    उन दिनों मनोरंजन के नाम पर एक रेडियो था वह भी किसी-किसी के यहां… प्रसारण अवधि सीमित था।ग्रामीण हमारे  दालान में  दादाजी के पास समाचार सुनने आते। ग्रामीणों का कार्यक्रम चौपाल नाटक प्रहसन नियमित रुप से सामूहिक श्रवण करते। 

गांव में दो टोला था … बड़का टोला.. छोटका टोला.. दोनों जगह मां दुर्गा की मूर्ति रखी जाती..मेला  लगता…नाटक खेला जाता.. मीलों दूर से ग्रामीण हाथों में लालटेन, टार्च .. बैठने के लिए बोरा चादर लेकर सपरिवार आते..

: दशहरा मेला का इंतजार  पूरे गांव  विशेषकर  महिलाओं  और  बच्चों को  सालभर  रहता…..यही वह  समय होता  जब वे  घर से बाहर निकल..दुनिया देखते ..खरीदारी करते.. मेले की नौटंकी, रामलीला, जादू का खेला….

दिवाली के लिए बंदूक, पटाखे, गुब्बारे, खिलौने, जरूरत की वस्तुएं  उनका मुख्य आकर्षण होता…. ..महिलाएं रंगीन कांच, चूडियाँ, चमकीली बिंदिया, शीशा, फीता, कलकतिया  सिंदूर ,आलता… अलाय.. बलाय.. शौक का सामान अपनी रुचि सामर्थ्यानुसार  खरीदी जाती। 

   हमारे  बाबा हम बच्चों को एक पंक्ति में  खड़ा कर सभी के हाथ में  आशीर्वाद स्वरूप  रूपया देते… जो मन खरीदो …कोई रोक-टक.. पाबंदी  या  हस्तक्षेप नहीं  ..गांव का मेला था… एक शिष्टता.. नियमावली ..किसी के साथ  न कोई  बदतमीजी न अप्रिय घटना कभी देखने सुनने को नहीं मिलती थी। 

आज सोचती हूँ  बाबा कितने  दूरदर्शी थे  जो हमें  स्वायलंबन… अपना  निर्णय  स्वयं  लेने का…प्रबंधन का गुर हमें  बातों -बातों  में सीखा  गए   मेले में  खरीदारी के  बहाने। 

सप्तमी अष्टमी  नवमी को नये परिधान  में सज-धज कर बडों के साथ मेला देखने  जाते हमारी खुशी का ठिकाना न रहता।  

     देवी दुर्गा  माता का दर्शन, मेले में  गाजा, खाजा, लड्डू, बताशा, रसगुल्ला, नमकीन  खरीदे जाते… 

  रंगबिरंगी, खट्टीमिट्ठी गोलियां   जिसकी जैसी चाहत। 

   जैसे ही नाटक का परदा  उठता…धिन्न ..धिन्नक  ..धिन्न…बाजा बजाने वाले का ताम-झाम कलाकारी हम उसमें  खो  जाते।

  कलाकारों का हाथ जोड़कर  

  जय जय गिरिराज  किशोरी 

जय महेश मुख चंद चकोरी

से शुरुआत… फिर  नाटक.. अनगढ कलाकार, विचित्र  वेशभूषा.. स्वयंम्भू  गायक जो शमां  बांधते थे  ..वह आज इस बनावटी दुनिया में असम्भव है… 

   हमारा रोम-रोम पुलकित हो जाता.. हम कलाकारों के साथ साथ हंसते.. रोते.. तालियाँ बजाते… दोनों टोले के नाटकों की प्रस्तुति की तुलना करते ।

  ढाक वादन..बडे-बडे  मिट्टी के जलते दीया के साथ भक्तों का हुंकार नृत्य  …महिषासुर मर्दिनी  के  सर्वशक्तिमान होने का एहसास कराती..

   जब वापस लौटती रात्रिकालीन तीसरा प्रहर बीत चुका होता.. 

   पूरे दिन हम उछल- उछल …पूपूही बांसुरी बजाते.. मेले में  लाये खिलौनों से खेलते..  रूठते.. मानते.. 

सप्तमी अष्टमी नवमी… भक्ति मय..उल्लासपूर्ण …पवित्र  वातावरण… हम सराबोर होते रहते.. 

  दशमी के दिन  नये कपड़े धारण कर बडों का चरणस्पर्श कर उनसे आशीर्वाद पाते… कोई कपड़ा, कोई खिलौना और कोई रुपये देता.. उस  दिन मां दुर्गा को विसर्जित किया जाता  गांव के बड़े  तालाब में  .. उसमें  सुरक्षा के  लिहाज  से बच्चों का भीड़ -भाड में जाना वर्जित  था….

पवनी-पसारी बख्शीश पाकर दाता का आभार मनाते…दुर्गा माई का जै जै करते… 

 सुहागिनें  सिंदूर खेला मना अपने अखंड सौभाग्य की मां से कामना करती.. 

  घर का कलश-विसर्जन होता  ..एक  तिलस्सम जो हमारे आंखों के  सामने होता उसका यूं ढह जाना… हम बच्चों को  मर्माहत कर देता हम उदास हो उठते। 

विजयादशमी को नीलकंठ पंछी का दर्शन  अतिशुभ माना जाता है… हम बच्चों को कहीं न कहीं धान के  खेत में या  पेड़ों की टहनियों पर नजर आ ही जाता… हम बच्चे बडों का ध्यान आकर्षित करने के लिए शोर मचाते… उधर नीलकंठ चिरईया फुर्र।

   जैसे ही पंडितजी  मूर्ति भसान के  पश्चात अपने हाथों  में जई का मुट्ठा  हमें आशीर्वाद  स्वरुप देते कोई उसे अपने कानों में  खोंसता  ..कोई जनेऊ में  …हम अपने पाठ्यपुस्तकों में  छुपाकर रख  देते.. इस आसरा में कि हमें  सहजता से सब कुछ याद हो जाएगा…  क्योंकि उन दिनों वार्षिक परीक्षा  दिसम्बर महीने में  होती थी।

    इस प्रकार दशहरा का समापन धूमधाम  से होता… हम  हाथ जोड़ शीश नवाते  ..अगले बरस तू जल्दी आ मां… 

   सर्वाधिकार  सुरक्षित मौलिक रचना -डाॅ उर्मिला  सिन्हा,, ©©

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