“ये जीवन है…।” – रवीन्द्र कान्त त्यागी

आह… कितनी देर सोया। पता ही नहीं चला। सुबह होने वाली है शायद। मगर… मगर अभी तो अंधेरा सा है। ओह, कई दिन की थकान से पूरा शरीर दुख रहा है। तेरह दिन तक जमीन पर बैठे बैठे। और उसके बाद…

उसके बाद मौत का उत्सव। मेरी बीवी की मौत का जश्न। ओह… मेरी परम्पराओं में शोक को भी उत्सव की तरह मनाना पड़ता है। बड़े प्रवचन दे रहे थे पंडित जी। ‘एक आत्मा आज शरीर से मुक्त होकर परमात्मा में विलीन हो गई है। एक वस्त्र त्यागकर नया परिधान पहनने को अग्रसर। वगहरा वगहरा।’

अरे पंडित जी वो मात्र एक आत्मा ही नहीं एक शरीर भी था जिसका सनिध्य मुझे सुख देता था। यौनेच्छा समाप्त हो जाने के बाद भी। एक बेहद संवेदनशील हृदय भी था जिसमें प्रेम भरा था। मेरे लिए और अपने बच्चे के लिए। अगर आत्मा को अपने घर ही जाना था तो क्यूँ सजाया ये घर, ये संसार। अरे मेरी दुनिया उजड़ गई और लोग…। लड्डू, कचौरी, रायता।

होठों पर जबान फेरते हुए खट्टी मीठी सौंठ की तारीफ कर रहे थे। जैसे मेरे लड़के की शादी में आए हों। पंद्रह दिन हो गए उसे गए हुए मगर आने वालों का तांता। सहानुभूति के मगरमच्छी आँसू। “अब क्या करोगे।” “कैसे काटोगे बची हुई जिंदगी।”

“अकेले कैसे पूरा होगा ये सफर। नाराज बेटे को मना लो। औस्ट्रेलिया चले जाओ उसके पास। पोते पोतियों में मन रम जाएगा।” 

अरे तुम अपने घर जाओ यार। हाथ जोड़ूँ क्या उस उल्लू के पट्ठे के जिसके लिए पूरी जवानी होम कर दी। अपने रक्त की एक एक बूंद से सींचकर जिस पौधे हो बड़ा किया आज उसे अपनी माँ की मौत में आने का की भी फुर्सत नहीं है। बेटे को मना लो।

आधे घंटे की फोर्मेलेटी करने आए हो। अगर औपचारिकता पूरी हो गई हो तो पधारो अपनी दुनिया में। कैसे कटेगी। है कोई समाधान तुम्हारे पास। तो फिर नकली आँसू बहाना छोड़ो। काट लूँगा मैं जैसे कटेगी। 

हे प्रभू। आठ… आठ बजे हैं। अरे! रात के आठ बजे हैं। ओह याद आया। सरिता दीदी को विदा करके दोपहर तीन बाजे ही तो फ्री हुआ था और शायद चार बजे आँख लगी होंगी। बुआ जी की बेटी है सरिता। बड़ा स्नेह करती है बचपन से ही। बार बार कह रही थी “भैया, अकेले कैसे रहोगे। हमारे साथ अजमेर चलो।” सच में परेशान थी। टिफिन वाले की व्यवस्था करके ही गई। 

कैसा कफ्यूजन हो गया। मैंने सोचा सुबह हो गई। अभी तो लंबी विकराल रात पड़ी है काटने को। जिंदगी की तरह अकेली, वीरान। 

 तीस बरसों से तो हर सवेरा एक जैसा होता था ना। उजले उजले धवल सवेरे। अरुणिमा जैसी ठंडी मुस्कान बिखेरते वासंती सवेरे। खनकती चूड़ियों वाले हाथों में खुशबू उड़ाती चाय की प्याली वाले सवेरे। खिड़की पर चीं चीं चिल्लाती, वसुधा से बाजरे के दानों के लिए लड़ती गौरैया वाले सवेरे। पर्दा हटाते ही जबरन कमरे में घुसकर मुंह चिड़ाते धूंप के टुकड़ों वाले सवेरे और तुम्हारे मंदिर से आती मधुर पूजा की घंटी के स्वर और गुलाब की खुशबू वाले सवेरे। 

 मगर रात…। रातें तो बदलती रहीं। एक दूसरे के भीतर समा कर अस्तित्व को आत्मसात कर लेने वाली रातें। चेतना के शिखर से अवचेतन शून्य तक का सफर। ओशो के शब्दों में ‘समाधिस्थ’ हो जाने वाली रातें। एक दूसरे की देह में जीवन का चरम खोज लेने की चेष्टा वाली रातें। समुद्र की गहराइयों में उतरकर थाह लेने की प्यास जैसी। सम्मोहन के शिखर पर पहुँचकर आलोक दृष्टा बनने जैसी रातें। तृप्त और प्यासी रातें और… और… ओफ़्फ़। उजड़ती, उखड़ती साँसों वाली रातें। नियति से चंद और सवेरे देख पाने की भीख सी मांगती रातें। डॉक्टर के ‘ये रात किसी तरह गुजर जाय’ जैसे शब्द मस्तिष्क में गूंजाती रातें। आई सी यू के मौनीटर पर बीप बीप की आवाज सुनाती रातें। कितना लंबा था उन रातों से इस रात तक का सफर।  

भूख सी लगी है। किचन में जाकर देखता हूँ। ये पेट बड़ा बेशर्म होता है। दुख हो या अवसाद, इसे बस खाना चाहिए। अरे मनहूस यहाँ मेरी दुनिया उजड़ गई है और तुझे खाना ठूँसने की पड़ी है नामाकूल।

 बेटे के विदेश में अपनी दुनिया बसा लेने के बाद हम दोनों लड़ते झगड़ते, रूँठते मनाते जिंदगी की शाम को किसी तरह जी ही रहे थे। साथ जीने मरने की कसमें खाई थी मगर एक दिन वादा खिलाफी कर गई तुम वसुधा। बार बार जिद करती थी कि तुम्हारे कंधे पर ही जाऊँगी। लाल जोड़े में, सुहागिनों की तरह मांग में सिंदूर भर कर विदा करना मुझे। जिद की बड़ी पक्की निकली तुम।

वसुधा के पंचतत्व में विलीन होने के बाद इस घर में मेरी पहली रात थी जिसमें मैं एकदम अकेला था अन्यथा इन पंद्रह दिनों में कोई न कोई रिश्तेदार मुझे हौसला देने के लिए बना रहा। अधिकतर समय तो बुआ और उसकी बेटियों ने घर को ऐसे संवार रखा था जैसे माँ संवारती थी कभी। बचपन से लगाकर आज तक ऐसा इत्तेफाक तो कभी नहीं हुआ जब इस घर में मुझे अकेले रात गुजारनी पड़ी हो। किन्तु आज…। आज ये कैसा दुर्भाग्य आ खड़ा हुआ है।  

कट क्यूँ नहीं जाती ये सदियों सी लंबी नामुराद रात।

वैसे एक आइडिया है मेरे पास। एक पल में सारे दुखों से, डरावने अकेलेपन से और बची हुई विकराल जिंदगी से निजात पाने का। पिष्टल के ट्रिगर पर उंगली का हल्का सा दबाव और सब शून्य। एक पल में रात भी कट जाएगी और जिंदगी भी। इतना गहरा दुख और अकेलापन न जाने क्या करवा डालेगा मुझे से। 

तभी फोन की घंटी बज उठी। “भैया खाना खा लिया है ना। बनाकर फ्रिज में रख आई थी। अभी तक नहीं खाया हो तो… ओवन में गरम करके खा लेना। नन्ना बहुत याद कर रहा है भैया। कह रहा है मामा को यहीं बुला लो। साथ रहेंगे।” अजमेर से सरिता बोल रही थी। तंद्रा भंग हो गई और शायद वो पल भी गुजर गया जब जीवन समाप्त करने का भाव व्यथित मन में उभर आया था। 

“वेकप स्मार्ट बॉय। लेज़ी मत बनो। वादा किया था ना कि मेरे जाने के बाद बिखरोगे नहीं।” मानो घर की हर दीवार पर लगी उसकी आँखें मुझे देख रही हैं। लगा जैसे उसकी सुगंध से अचानक घर महक उठा हो।  

तब… तब क्या मुझे पता था कि तुम्हारे बिना जिंदगी इतनी विकराल बन जाएगी। निर्जन अरण्य सी भयावह। नहीं जी पाऊँगा मैं तुम्हारे बिना। इस घर की हर वस्तु जिसमें तुम्हारी यादें बसी हुई हैं, जैसे मुझे सवालिया निगाह से देख रही है। ये दर्पण जिसके सामने शृंगारित होकर तुम अचानक मेरी ओर पलटकर पूछतीं ‘कैसी लग रही हूँ मैं’ और मैं मोम की तरह पिगल जाता। ये किचन की ओर खुलने वाला दरवाजा जहां से मेरी सुबह की अर्ध निंद्रा में, तुम्हारी चूड़ियों की खनक के साथ कॉफी की महक उठती रहती और मैं, पता नहीं कॉफी की पहली चुस्की का इंतजार करता या तुम्हारे सुबह के पहले चुंबन का। आह… कहाँ गए वे पल, वे दिन। 

नहीं, मुझ से नहीं हो पाएगा। मैं तो बड़ा कमजोर सा इंसान हूँ वसुधा। जो जिजीविषा तुम ने इस मृत सी आत्मा में फूंकी थी तुम्हारे साथ ही धूमिल हो गई है। मेरे लिए इस भयानक रात की सुबह अब कभी नहीं होगी। या तो इस घर की दीवारें मुझे निगल जाएंगी या मुझे आत्महंता बना देगी ये रात।

तभी लगा की किचन में कोई है। वसुधा मेरे लिए सोने से पहले का दूध ला रही है। “अरे सुनो वसुधा। अभी… अभी थोड़ी देर में दूध लाना। अभी मैं कुछ लिख रहा हूँ।” अचानक मेरे मुंह से फूट पड़ा। 

 ओफ़्फ़। मगर वसुधा कहाँ है। वो तो चली गई है। आह वो चली गई है। मुझे अकेला छोड़कर। 

पागल हो गया हूँ मैं भी। अरे कहाँ चली गई वसुधा। अगर वो नहीं है तो फिर बाथरूम में कौन नहा रहा है। अरे साफ साफ शवर चलने की आवाज सुनाई दे रही है। आज भी रोज सोने से पहले स्नान करती है। हम दोनों के अलावा तो इस घर में कोई रहता नहीं है ना। “वसुधा, तुम नहा रही हो ना। तुम्हारे फेवरेट साबुन की खुशबू यहाँ तक आ रही है।” 

तभी निगाह दीवार पर माला चढ़ी हुई वसुधा की तस्वीर पर पड़ी। अरे, वसुधा तो कब की जा चुकी है। फिर… ये भ्रम कैसा। क्या हो गया है मुझे। क्या मैं दिग्भ्रमित हो गया हूँ। क्या मैं पागलपन की ओर बढ़ रहा हूँ। नहीं… नहीं। ये घर, उसकी यादें, वो हर चीज जिसमें उसकी खुशबू बसी है, इस घर की दीवारें मुझे खा जाएंगी। नहीं… मैं नहीं जी पाऊँगा इस घर में तुम्हारे बिना। ये पहली ही रात मुझे खा जाएगी। 

तभी लगा कि कमरे की दीवारें एक दूसरे की ओर सरक रही हैं। कमरा निरंतर सिकुड़ रहा है। अरे… ये क्या है। दीवारें एक दूसरे से मिल गईं तो… तो मैं तो पिस जाऊंगा। अस्तित्व समाप्त हो जाएगा मेरा। और ये छत… ये भी तो धीरे धीरे नीचे आ रही है। 

मैं उछलकर बिस्तर से खड़ा हुआ और इस से पहले की दीवारें मुझे कुचल डालें मैं बाहर की ओर भागा। 

आह… खुला आसमान। ठंडी चाँदनी और शीतल हवा। देर तक मैं खुले आसमान के नीचे खड़ा रहा। मन को बड़ा सुकून सा मिल रहा था।

मगर कितनी देर। टांगें दुखने लगीं। घर के खुले दरवाजे को देखकर भय सा लग रहा था। जैसे वो कोई वीरान हवेली है। आज की रात मुझे ये रहस्यमयी गुफा निगल जाएगी। नहीं… नहीं रह सकता मैं इस घर में वसुधा के बिना।

कई कदम उल्टा चलता रहा। घर का खुला दरवाजा छोटा होता जा रहा था। फिर पलट कर तेज कदमों से चलने लगा। मगर कहाँ? पता नहीं। कदमों में न जाने कहाँ से इतनी ऊर्जा समा गई थी। मैं अंजाने रास्ते पर बढ़ा चला जा रहा था वीरान रात में। चलता रहा। चलता रहा। शरीर थक कर चूर हो गया था। 

अरे… अरे ये क्या। रास्ता तो यहाँ खत्म हो गया। सामने ये कौन सी इमारत है भला। ओह। रेलेवे स्टेशन है। चलो उसी की बेंच पर विश्राम करते हैं। 

पता नहीं कब नींद ने अपने आगोश में समा लिया था। कोई झकझोर कर जागा रहा था। 

“अरे ट्रेन छूट रहा है भाई। सोते ही रहोगे क्या।” और वो भागकर एक डिब्बे में चढ़ गया। मैं भी मंत्रमुग्ध सा उसके पीछे पीछे डिब्बे में चढ़ गया। कौन सी मंजिल। कहाँ ठिकाना। पता नहीं। 

ट्रेन सरपट भागी जा रही थी। गाँव, जंगल, खेत, तलैया और नदी का पल पार करते हुए। 

“कहाँ जाएंगे महाशय” एक सहयात्री ने पूछा। 

“कहाँ… आ आ मैं…। अरे ये ट्रेन कहाँ जा रही है ये भी आप को बताना पड़ेगा क्या।” मैंने तंद्रा से जागते हुए आत्मविश्वास के साथ कहा। 

“अच्छा, लास्ट स्टौपेज बनारस ही उतरना है।” 

तब ध्यान आया कि टिकिट तो है ही नहीं। जेब टटोल कर देखा तो मोबाइल के अलावा कुछ नहीं था। न एक फूटी कौड़ी और न ही डीजी लौकर के अलावा किसी पहचान पत्र या कार्ड की हार्ड कौप। तुरंत ऑनलाइन टिकिट बनवाया। 

रिजर्वेशन न होने से पूरी रात सो नहीं पाया। हल्की सी झपकी लगी थी कि किसी ने झकझोर कर कहा “अरे उतरना नहीं है। बनारस आ गया।” 

दिन का उजाला हुआ तो चेतना जागृत हुई। अरे मैं मल्टीनेशनल कंपनी का रिटायर्ड सीनियर मैनेजर, मुरादाबाद का एक सम्पन्न नागरिक पौष कौलौनी में एक शानदार कोठी का मालिक आभिजात्य जीवन जीने वाला, पाँवों में स्लीपर, नाइट सूट और खाली जेब वाराणसी के रेलवे स्टेशन पर अकेला क्या कर रहा हूँ। 

रेल से उतरे यात्री चेहरे पर यात्रा पूर्ण होने का सुकून सा लिए अपने अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान कर रहे थे और मैं धीरे धीरे खाली होते स्टेशन पर किंकर्तव्य विमूढ़ सा खड़ा था। ट्रेन ने प्लेटफॉर्म छोड़ दिया। एक सूनापन सा छा गया। 

लौट जाऊंगा… अगली ही ट्रेन से लौट जाऊंगा। मगर… मगर कहाँ। जहां वसुधा की चूड़ियों की खनक से आँखें खुलती थीं। एक जमाने में बच्चों की किलकारियाँ गूँजती थीं। जीवन था। जीवंतता थी। आज वहाँ अतीत की यादों का सन्नाटा पसरा है। कल जो मेरा उपवन था आज मुझे वहाँ अकेले डर लगता है। नहीं रह पाऊँगा मैं उन यादों के कुहासे में। देर तक बैंच पर बैठा रहा फिर धीरे धीरे स्टेशन के बाहर निकला आया। 

“दशमेश घाट, (दशाष्वमेघ) मणिकर्णिका, होटल, विश्वनाथ मंदिर का शोर मचाते ई रिक्शा और टैंपो वाले हर यात्री की ओर झपट रहे थे। क्यू आर कोड से पैसे स्वीकार करने वाला एक रिक्शा तलाश किया और उत्सुकतावश मणिकर्णिका चलने को कहा। 

स्नान घाट के बराबर में ही सुप्रसिद्ध मानिकर्णिका मुक्ति घाट था। ये भी जिंदगी का एक मेला है।  इंसान की तृष्णा, राग-द्वेष, हसरतें, मोह-माया, भूख, वासना, नफरत, स्पर्धा और जिंदगी की दौड़ रंगीन कफनों में लिपटी हुई धू धूकर जल रही थी। आह, जीवन का अंतिम सत्य तो यही है। 

पंडे और नाव वाले यात्रियों की तरफ लपक रहे थे किन्तु बढ़ी दाढ़ी, आँखों में रात की मलीनता और पाँवों में स्लीपर देखकर मुझे किसी ने अधिक तंग नहीं किया। वहीं से एक जोड़ी अंतर्वस्त्र खरीदे। गंगा में स्नान किया। स्नान के बाद ज़ोर की भूख लगी थी। गंगा किनारे की एक दुकान के सामने खड़े होकर भरपेट कचौरी और जलेबी का भोजन किया। फिर बरगद के नीचे पड़ी एक बैंच पर बैठ गया। तभी फोन की घंटी बाजी। “अरे सिंह साहब, आज मौर्निंग वॉक पर लंबे निकल गए क्या। लौक तो कर जाते।” ये पड़ौस के दुग्गल साहब थे।

“अरे दुग्गल साहब… मैं जरा… थोड़ी देर लग जाएगी। आ… दरवाजे के पीछे के कुंदे में ताला लटक रहा है। जरा आप ही लगा दो प्लीज। मैं लौटकर मिलता हूँ।” 

“संब खैरियत तो है ना। कहाँ हो भाई। बड़ा शोर सा हो रहा है वहाँ। परेशान मत होना भैया। लाइफ में हर तरह के दिन देखने पड़ते हैं। जल्दी घर लौट आना।” 

मैंने उत्तर दिये बिना फोन काट दिया। 

बैंच पर बैठे बैठे न जाने कब आँख लग गईं पता ही नहीं चला। 

खाकी रंग की शर्ट पहने हुए दो आदमी मुझे जागा रहे थे। 

“अरे उठिए। थोड़ी देर में रात हो जाएगी। आप का यहाँ सोना सुरक्षित नहीं है। चलिये हमारे साथ।” एक ने कहा। 

“कहाँ? कहाँ ले जाएंगे मुझे।”

“हमें पता है आप को कहाँ ले जाना है। कोई सामान नहीं है न आप के पास। अकसर होता भी नहीं है। चलिये हमारे साथ। ये आज कल की औलादें माँ बाप को घर से बाहर फेंक देटी हैं।”

मैं मंत्रमुग्ध सा उनके पीछे चल दिया। एक संस्था का बोर्ड लगी हुई बलैरो गाड़ी में सवार होकर हमलोग एक भवन के सामने जाकर रुके। रिशेप्शन पर बैठे एक आदमी ने मुझ से मेरा नाम और पता पूछा और रजिस्टर में बाकी एंट्री मुझ से पूछे बिना अपने आप भरता रहा। एक कौलम में लिखा था “संतानों के द्वारा मणिकर्णिका घाट पर मुक्ति के लिए लावारिस छोड़े गए बुजुर्ग।” 

एक आदमी मुझे एक हौल नुमा कमरे में ले गया जिसमें दोनों तरफ तीन तीन कुल मिलकर छह बैड लगे हुए थे। बाईं तरफ के तीनों बैड पर तीन बुजुर्ग लेटे थे। दूसरी तरफ एक अत्यंत कमजोर और बीमार व्यक्ति लंबी लंबी सांस ले रहे थे। दो बुजुर्गों ने मुस्कराकर मेरा स्वागत किया। मुझे एक साफ सुथरी चादर बिछे बिस्तर पर लाकर छोड़ दिया गया। 

“स्वर्ग के पहले पड़ाव पर आप का स्वागत है।” एक सज्जन ने कहा। 

“जी मैं समझा नहीं।”

“आर हम सब मुक्ति की प्रतीक्षा में ही तो यहाँ हैं मगर बेवफा आती ही नहीं।” लंबी सांस ले रहे कृशकाय बुजुर्ग ने कहा। 

“अरे पांडे जी, चिंता मत कीजिये। आप का टिकट तो जल्दी ही कटने वाला है। हा हा हा। बाई द वे आई एम मंगल सेन गुप्ता फ़्रौम जमशेदपुर।”

“अरे कब तक नाम और गाम अपने साथ चिपकाए रहोगे गुप्ता जी। वो सब भूतपूर्व हो गया। अब आप का नया पता है बैड नंबर चार। मुक्ति भवन। काशी।” इस बात पर भी सभी लोग ज़ोर ज़ोर से हंसने लगे। 

“जी मैं… मैं गाज़ियाबाद में रहता हूँ। बक़ौल आप के रहता था। आप लोग यहाँ जीवन के अंतिम पड़ाव की प्रतीक्षा में भी इतने खुश हैं। देखकर बड़ा अच्छा लगा।” 

“एक बार सारी मोह माया त्याग दो। अतीत को भूल जाओ। आप को भी अच्छा लगेगा। वैसे मुझे तपन सिन्हा कहते हैं। पटना में… ओह सौरी। जीवन के इतिहास को तो भुला देना है ना। हा हा हा।”

तभी एक घंटी की आवाज सुनाई दी।

 “चलो जी, खाने का बुलावा आ गया।” गुप्ता जी ने कहा। 

गर्म खिचड़ी, फुल्के और आलू की सब्जी। आह मजा आ गया। समूहिक भोज में पता चला कि यहाँ लगभग चालीस नर नारी अलग अलग कमरों में दुनिया से परितक्त्य जीवन गुजार रहे थे। 

खाना खाकर सब लोग अपने अपने बिस्तरों पर लौट आए। न जाने क्यूँ मुझे न घर की याद आ रही थी न कोई दुख हो रहा था। जैसे मैंने स्वयं को लहरों के हवाले कर दिया था। बहने दो जिंदगी को जिधर बहना चाहती है। 

ग्यारह बजे बत्ती बंद कर दी गई। एक निश्चिंतता सी थी जैसे मैं किसी सुरक्षित स्थान पर हूँ। नींद आने लगी कि तभी फोन की घंटी बजने लगी। 

“फोन बजा। फोन बजा। सिंह साहब का फोन बजा।”

“अभी नए नए आए हैं। दो चार दिन बजेगा। हा हा हा। फिर तो इन्हे फ़ोन चार्ज करने का मन भी नहीं करेगा।”

“पापा, आप कहाँ हैं। क्या हुआ है वहाँ। मुहल्ले में आप की ढूंढ मची हुई है। आप किसी का फ़ोन भी नहीं उठा रहे। कहाँ है आप। सब खैरियत तो है पापा।” बेटे का यू एस से फोन था। 

मन भावुक सा हो गया। कुछ पल बोला नहीं गया। आखिर वो मेरा पुत्र है।

“आप कुछ बोलते क्यूँ नहीं पापा। मैं अभी छुट्टी के लिए एप्लाई कर देता हूँ। आप को हमारे साथ ही रहना होगा अब। मैंने तो पहले भी कहा था मगर आप और मम्मी कभी इंडिया छोड़ने को तैयार ही नहीं थे।” 

“प्रणव मैं यहाँ… मैं काशी चला आया था बेटे। मन बड़ा उचाट सा हो रहा था।”

“मैं समझ सकता हूँ पापा। वाराणसी में ताज गंगा होटल है। वहीं रुकना। मैं यहीं से बुकिंग कराकर पेमेंट कर दूंगा।”

“बावले यहाँ रात के ग्यारह बजे हैं। इस समय क्या होटल ढूंडूंगा। मैं अच्छी जगह ठहरा हूँ। बड़े खुशदिल मुहब्बत करने वाले साथी भी मिले हैं। अब यहीं कुछ दिन… या शायद…।” 

“पापा, आप अभी भी मुझ से नाराज हैं। आप ही तो चाहते थे कि मैं यू एस में जॉब करूँ। जब मम्मी का देहांत हुआ तो मैं कंपनी के डेप्युटेशन पर कोलम्बिया गया हुआ था। फिर आप इतने नाराज हो गए कि मेरे फ़ोन तक उठाने बंद कर दिये। अब… कैसे बताऊँ। यहाँ जॉब में इतना कंपीटीशन है पापा। जॉब की मजबूरी आप समझते हैं न।”

“परेशान न हो मेरे बच्चे। मैं जीवन को एक अलग दिशा से देखने का प्रयास कर रहा हूँ। चिंता मत करना। मैं एकदम आनंद में हूँ। अभी नींद आ रही है। कल बात करेंगे।” और मैने फोन काट दिया। 

गहरी नींद आई थी। थकान के कारण या… क्या पता मस्तिष्क के तंतुओं को दुख से सागर से बाहर निकलकर कुछ विश्राम मिला हो। 

अगली सुबह छह बजे आँखें खुलीं। मुक्ति भवन के पीछे एक मंदिर था। अधिकतर लोग प्रातः की आरती में भाग ले रहे थे। वहीं एक ‘पेड’ चाय नमकीन और कोल्ड ड्रिंक की दुकान थी जहां आप पैसे देकर कुछ भी खरीद सकते हैं। बरसों की आदत के अनुसार मैंने वहाँ दोपहर को बैंक से निकालकर पैसे देने का वादा किया और एक चाय पी। तभी एक कमजोर से वृद्ध मेरे पीछे आकार खड़े हो गए और याचना भरे शब्दों में कहने लगे “एक ठो चाय हमका भी पिलाय दो बाबू।” तभी मंदिर की आरती निपटाकर सामने से मेरे कमरे के साथी पांडे जी, गुप्ता जी और सिन्हा साहब आते दिखाई दिये। 

“चाय पी लो दोस्तो” मैंने चिल्लाकर कहा। 

“छोड़ दिया। सब छोड़ दिया। आज आप पिला देंगे। फिर कल इच्छा हुई तो। सब छोड़ दिया भैया। अभी नाश्ता मिलेगा। जैसी ईशवर इच्छा।” पांडे जी की आवाज में दर्द भी था।

“सिन्हा साहब, आप तो अभी एकदम स्वस्थ दिखाई देते हैं। फिर यहाँ… मुक्ति की इंतजार कर रहे लोगों के बीच।” हम सब निकट पड़ी एक पत्थर की बैंच पर बैठ गए। 

“तो आप क्या सोचते हैं यहाँ के अधिकतर लोग जल्दी ही जीवन से मुक्त होने वाले हैं। अभी तो कई साल आप भी…। सिंह साहब, इंसान की यात्रा में जिंदगी जीने और अरथी पर चढ़ने से पहले भी एक दौर आता है कभी कभी। ये वही दौर है। सिन्हा साहब को देख रहे हैं आप। चुटकले सुनाते हैं। बात बात पर हँसते हैं। आप को पता है ये यहाँ क्यूँ हैं। एक सड़क दुर्घटना में इनके दो बच्चे, पत्नी और कार चला रहा छोटा भाई सब चले गए। पागल जैसे हो गए थे बेचारे। दीवारों से मारकर सर फोड़ लिया। फिर किसी ने यहाँ पहुंचा दिया। और ये गुप्ता जी। बहू ने एक दिन धक्के मारकर घर से बाहर निकाल दिया था। तब से यहीं हैं।” 

“खैर, कुछ भी हो, एक जैसे मित्र मिलने से अकेलापन तो दूर होता ही है।”

“आप ने एकदम ठीक कहा। हम सब एक ही जैसी मानसिक स्थिति में जिंदगी की एक नई पायदान पर खड़े लोग हैं। अच्छा बताइये, गंगा स्नान को चलेंगे। चलिये आज मैं आप को बनारस की जलेबियाँ खिलता हूँ।” सिन्हा साहब ने कहा। 

“जरूर चलेंगे सिन्हा साहब मगर जलेबी और कचौड़ी आज मेरी तरफ से। वैसे बाजार की ओर तो जाना ही पड़ेगा। मुझे बैंक भी जाना है। घर से ऐसे ही खाली हाथ निकल आया था।”

उस दिन मैंने विड्रौल फार्म से बैंक से पैसे निकाले और हम चार मित्र मनपसंद खाना खाकर ही लौटे। खूब आनंद रहा। दोपहर को सब लोग सोते रहे। थकान हो गई थी। 

शाम पाँच बजे मैंने पूरे मुक्ति भवन का एक भ्रमण करने का निश्चय किया। गैलरी की दूसरी तरफ एक कमरे में लगभग बारह बैड लगे थे जिनपर वृद्ध महिलाएं ठहरी हुई थीं। 

बात शुरू करने की दृष्टि से मैंने तीसरी बैड पर बैठी महिला से कहा “बहन ये कान्हा जी की मूर्ती बड़ी सुंदर है मगर इसका शीशा तो टूट गया है।”

महिला ने तस्वीर उठाकार अपनी साड़ी के पल्लू से उसे साफ किया और माथे से लगाकर बोलीं “ये ही मेरे इष्ट देव हैं। इन्ही के सहारे ये बुढ़ापे के कष्ट भरे दिन गुजर रहे हैं भैया।”

मैंने कहा “बहन आप ये तस्वीर मुझे दे दीजिये। कल इसका शीशा लगकर आ जाएगा।”

पड़ौस की बैड पर तन्मयता से डिब्बा खोलकर कुछ खा रही दूसरी महिला ने जब सुना तो मेरी तरफ मुखातिब हुई। “हमारे ऐनक का फ्रेम भी टूट गईल है भैया। पर… हम पईसा न दे पायी।” 

“आप मुझे दे दीजिये। पैसे की चिंता मत कीजिये।” 

फिर वहाँ काम करने वाली सेविका ने बताया कि “कई लोगों के पास दवाई की व्यवस्था नहीं है। सामान्य तौर पर चिकित्सक आता है मगर महंगी दवाइयाँ उपलब्ध नहीं हो पाती हैं।” 

मैंने उनसे अनुरोध किया कि इस प्रकार की जो भी जरूरतें हों उनकी एक सूची बनाकर मुझे दे दें। सब व्यवस्था हो जाएगी।

जिंदगी में पहली बार किसी और के लिए कुछ करके बड़ा आत्मिक सुख मिल रहा था।  

रात को फिर बेटे का फोन आया। बहुत भावुक हो रहा था।

“मैं आप का एक ही बेटा हूँ पापा। आप ही मेरी भावनाओं और परिस्थितियों को नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा। क्या आप अब भी मुझ से नाराज हैं। मैं आप को अकेला नहीं छोड़ सकता।”

“प्रकृति ने औलाद का ऐसा कोई दायित्व निर्धारित नहीं किया है मेरे बच्चे। अब तुम्हारी पहली ज़िम्मेदारी तुम्हारे बच्चे हैं। और किसने कहा मैं अकेला हूँ। मुझे तो एक बड़ा परिवार मिल गया है। जीने का मकसद मिल गया है।” 

“मैं जनता हूँ आप माँ से कितना प्रेम करते थे। उनके के जाने के बाद…।”

“देखो प्रणव, यकीनन ये बड़ी दुरूह स्थिति है। ये जिंदगी का बहुत कठिन दौर होता है जब पति पत्नी दोनों में से एक, दुनिया छोड़कर चला जाय। वास्तव में तो पति पत्नी पूरे जीवन एक दूसरे के पूरक होते हैं लेकिन विशेष तौर पर उम्र के इस दौर में दोनों को एक दूसरे के सहारे की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। किन्तु कभी न कभी किसी एक को अकेला तो रहना ही है क्यूंकी मृत्यु तो एक अखंड सत्य है। 

होना तो ये चाहिए कि हम उस स्थिति के लिए मानसिक रूप से तैयार रहें किन्तु हमारे यहाँ तो मृत्यु के बारे में बात करना भी अशुभ माना जाता है। फिर एक दिन अचानक किसी विस्फोट की तरह वह स्थिति आप की जिंदगी को बिखेर देती है और आप पाते हैं कि आप दुनिया की भीड़ में अकेले खड़े हैं। एकदम अकेले।

एक पल के लिए मैं भी लड़खड़ा गया था। जीवन समाप्त करने तक का मन किया मगर नियति को कुछ और ही मंजूर था।” 

“आप अकेले कैसे हो सकते हैं पापा। हम हैं न आप का परिवार। आप के पौत्र और पौत्री हैं और…।” 

“यकीनन जब तू अपनी माँ के प्रयाण पर भी नहीं पहुँच पाया तो मुझे गुस्सा आया था। नाराज था मैं तुझसे मगर… यहाँ गंगा माँ की गोद में आकर मैंने बहुत मनन किया। पता है हम भारतीय माता पिता की परेशानी क्या है। पहले पूरी शक्ति लगाकर अपने बच्चों को पढ़ाते हैं। हर दूसरे माँ बाप का सपना होता है कि मेरा बेटा-बेटी ऊंची पढ़ाई करके विदेश में अच्छी नौकरी करे। जब वो सैटल हो जाता है तो दुनिया को बड़े फख्र से बताते फिरते हैं कि मेरा बेटा अब्रौड में डौलर कमा रहा है। किन्तु जब शादी में, ब्याह में, सुख दुख में सबके बच्चे अपनों के साथ होते हैं तो हम भूल जाते हैं कि हमारा बेटा तो हजारों किलोमीटर दूर, दूसरे के आधीन नौकरी कर रहा है और ये कैरियर हमने ही उसके लिए चुना है। उसकी अपनी सीमाएं हैं। वर्जनाएं हैं। आखिर इतने संकुचित और स्वार्थी कैसे हो सकते हैं हम कि जिंदगी के जिन बंधनों में स्वयं हमने ही उसे बांधा है वे ही हमें दिखाई नहीं दे रहे हैं।”

“आ जाइए पापा। सब मिलकर यहीं एकसाथ रहेंगे।” 

“बचपन में जीवन का एक एम था। पढ़ लिखकर योग्य होना। नौकरी करना। फिर… पिताजी के असमय चले जाने के कारण भाई बहनों को सैटल करना। उसके बाद एक ही लक्ष्य था कि तेरा कैरियर बन जाये और तुझे जिंदगी में किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़े। तेरे विदेश जाने के बाद लगता था कि तेरी माँ को मेरी जरूरत है। मेरा कर्तव्य है जिंदगी की शाम को उसका साथ देना। मगर उसके जाने के बाद जिंदगी उद्देश्यहीन सी हो गई थी। 

यहाँ बनारस में आकर जिंदगी को एक दिशा मिल गई है। जीने का एक बहाना मिल गया है। दूसरे के अकेलेपन से अपने अकेलेपन को मिलाकर दोनों का अकेलापन दूर करना। आस्था, समर्पण और सेवा के भाव से अवीभूत हो गया हूँ मेरे बच्चे। आनंद ही आनंद है।” 

“एक पुत्र के नाते मेरा भी तो कुछ कर्तव्य है न पापा। मैं गिल्टी फील कर रहा हूँ।” 

“अरे बावले, कहाँ जाऊंगा जब अक्षम हो जाऊंगा। बीमार हो जाऊंगा। तेरे पास ही तो आऊँगा। मगर अभी मुझे इस नई जिंदगी का भरपूर आनंद लेने दे प्रणव।” 

“अरे शर्मा जी, चलो कौमन रूम में चलते हैं। वर्ड कप के फाइनल मैच का लाइव प्रसारण देखेंगे।” 

मैंने फोन काटा और हम सब हँसते मज़ाक करते हुए टीवी देखने चल पड़े। 

रवीन्द्र कान्त त्यागी

Leave a Comment

error: Content is protected !!