सही निर्णय – विभा गुप्ता

     ” दयाशंकर बाबू…दो महीने बाद आप रिटायर हो रहें हैं लेकिन हम चाहते हैं कि आप एक्सटेंशन लेकर कुछ साल और हमारे साथ काम करिए..।नयी पीढ़ी को और मुझे भी आपसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।” दफ़्तर के बड़े साहब अनिकेत वर्मा जी ने दयाशंकर बाबू से आग्रह किया तो वो तपाक-से बोले,” नहीं साहब..बहुत काम कर लिया।अब मैं बाकी ज़िंदगी अपने परिवार और मित्रों के साथ आराम से बिताना चाहता हूँ।” उनके चेहरे की प्रसन्नता देखकर वर्मा जी भी मुस्कुराते हुए बोले,” जैसी आपकी मर्ज़ी।”

         दयाशंकर जी एक सरकारी दफ़्तर के मुलाज़िम थे।ईमानदार, मेहनती और अपनी तनख्वाह में खुश।उनकी पत्नी सुशीला ने भी कभी उनसे कोई शिकायत नहीं की।ईश्वर की कृपा से उनके दो पुत्र हुए जिनका नाम उन्होंने अजय और विजय नाम रखा।दोनों ही पढ़ने में तेज़ और आज्ञाकारी थे।पिता की हर बात का अनुसरण करना वो अपना कर्तव्य समझते थे।

      दयाशंकर जी को भी अपने बेटों से बहुत उम्मीदें थीं।वे चाहते थे कि अजय इंजीनियर बने और विजय डाॅक्टर।दोनों बच्चे जब तक छोटे थे, तब तक तो सब ठीक था लेकिन जैसे-जैसे वे बड़े होने लगे, उन्हें ज़माने की हवा लगने लगी।बात-बात पर वे पिता से बहस करने लगे जिससे उनका मन आहत हो जाता।तब पत्नी उन्हें समझाती कि जवान बच्चों से उलझना ठीक नहीं है, प्यार-से बात करना चाहिये, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।

      दसवीं पास करके अजय ने साइंस लिया और बारहवीं के बाद उसने इंजीनियरिंग काॅलेज़ में दाखिला ले लिया।दयाशंकर बाबू खुश हुए कि चलो, अजय ने उनका सपना पूरा कर दिया, अब विजय भी..।लेकिन दसवीं के बाद जब विजय आर्ट्स लेने लगा तो उन्होंने उससे कहा कि साइंस लो, तुम्हें डाॅक्टरी पढ़नी है।उसने कहा कि मेरी रुचि नहीं है और बेमन से मैं नहीं पढ़ सकता।तब वो थोड़े उग्र स्वर में बोले,” मेरी इच्छा है कि तुम डाॅक्टर बनो।” फिर तो विजय भी उन पर चिल्ला पड़ा,” ये मेरी ज़िंदगी है..मैं जो चाहूँ, विषय लूँ..आप अपनी इच्छा हम पर मत थोपिये।” 

      उस रात दयाशंकर बाबू को नींद नहीं आई।बाप-बेटे एक-दूसरे से कतराने लगे।तब सुशीला जी ने ही समझा-बुझाकर बाप-बेटे के बीच सुलह कराई थी।

       अजय मुंबई के एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी करने लगा।कुछ समय बाद विजय को भी दिल्ली के एक प्राइवेट बैंक में नौकरी मिल गई तो वो दिल्ली चला गया।सुशीला जी अपनी पसंद की बहू लाने की सोच रही थी कि दोनों ने उन्हें फ़ोन पर अपनी शादी की खबर सुना दी।उस वक्त दयाशंकर जी पत्नी से बोले,” सुशीला..हमारी परवरिश में क्या कमी रह गई थी जो…।आज से वो दोनों हमारे लिए…।”

    ” शुभ-शुभ बोलिए..।” कहते हुए सुशीला जी ने अपने पति के मुँह पर हाथ रख दिया था।काम की व्यस्तता कहकर बेटे आते नहीं और बुलाने पर दयाशंकर जी कह देते,” देखते हैं।” बस फ़ोन पर ही हाल-समाचार जान लिया करते थे।इसी तरह डेढ़ बरस बीत गये।

        फिर एक दिन अजय ने सुशीला जी को फ़ोन किया,” माँ..आप लोग दादा-दादी बन गये हैं..हमें माफ़ कर दीजिये और अपने पोते को आशीर्वाद देने आइये।आप कहे तो मैं टिकट भेज देता हूँ।” सुनकर उनका मन खुशी-से झूम उठा।पिछली सब बातें भूल गईं और चहकते हुए बोलीं,” हाँ-हाँ..ज़रूर आएँगे।” दफ़्तर से दयाशंकर जी आएँ तो उन्होंने खुशखबरी सुनाई और बोलीं कि चलिए ना..कब तक बच्चों से रूठे रहेंगे..अपना खून है..अब तो वो भी पिता बन गया है..।वो समझाती रही और दयाशंकर जी ना-नुकुर करते रहें लेकिन कब तक..।बेटों की याद तो उन्हें भी आती थी…खाली घर तो उन्हें भी काटता था।बस दफ़्तर से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर पत्नी संग मुंबई रवाना हो गए।

       मुंबई पहुँचकर पोते को गोद में उठाते ही दयाशंकर जी का रहा-सहा गुस्सा भी चला।तब सुशीला जी उनसे बोलीं,” मैं कहती थी ना आपको कि मूल से सूद ज़्यादा प्यारा होता है..कैसे पोते को लिए दिन भर बैठे रहते हैं..।” अगले दिन विजय भी पत्नी के साथ आ गया।माफ़ी माँगी तो उन्होंने दोनों को आशीर्वाद दिया।

      समय के साथ विजय भी एक बेटे का पिता बन गया और अजय की पत्नी ने भी एक पुत्री को जनम दिया।अब जब मन करता तो दयाशंकर बाबू और सुशीला जी मुंबई चले तो कभी दिल्ली।बेटे-बहू भी त्योहार पर आ जाते।इस तरह से उनके सूने घर में फिर से चहल-पहल होने लगी।

        फिर दयाशंकर बाबू के सेवानिवृत्त होने का समय नजदीक आया उनके दोनों बेटे उनसे बोले कि बस पापा..अब बहुत हो गया।रिटायर होते ही आप दोनों हम लोगों के पास रहेंगे।पहले तो आप काम का बहाना करके टाल जाते थे लेकिन अब नहीं।उन्होंने भी खुशी-खुशी हामी भर दी।एक दिन एक मित्र ने उनसे पूछ लिया,” भाई दयाशंकर..तुम्हारे # रिटायरमेंट का क्या प्लान है?” तब  हँसते हुए वो बोले,” हम तो सब समेटकर बच्चों के पास चले जाएँगे और आराम की ज़िंदगी बसर करेंगे।” मित्र आश्चर्य-से बोले,” तुम्हारा ये निर्णय कहीं गलत..।” 

    ” नहीं भाई, बिल्कुल सही निर्णय है।” पूरे विश्वास के साथ उन्होंने कहा था।

       एक दिन अचानक अजय और विजय अपने परिवार के साथ आ गये।उन्हें देखकर दयाशंकर जी और सुशीला जी बहुत खुश हुए।फिर भी पूछ लिया कि अचानक कैसे? 

   ” बस पापा..बच्चों ने ज़िद की कि दादा-दादी से मिलना है तो आ गये।” विजय के इस जवाब से तो वो मालामाल हो गये।इसीलिए दफ़्तर में जब वर्मा जी ने उन्हें अपने ज़ाॅब-एक्सटेंशन लेने की बात कही तो उन्होंने मना करते हुए कह दिया तो अब तो पारिवारिक सुख का आनंद लेना है।फिर थोड़ा जल्दी जाने की परमिशन लेकर वो अपने टेबल पर आकर काम करने लगे।चार बजे चपरासी चाय के लिए पूछने आया तो फ़ाइल बंद करते हुए बोले,” आज तो अपने बच्चों के साथ ही चाय पीऊँगा।” कहकर वो घर के लिए रवाना हो गये।

      बेटों से बात करने के लिए दयाशंकर बाबू बहुत उतावले थे, सो घर में घुसते ही पत्नी को आवाज़ लगाई।फिर याद आया कि वो तो पोते-पोतियों को लेकर पार्क गई होगी और विजय भी अपने दोस्त के यहाँ जाने के लिये कहा था।कोई बात नहीं, अजय तो है ना.., सोचकर उन्होंने अपने कदम बेटे की कमरे की तरफ़ बढ़ा दिए।दरवाज़ा बंद देखकर वो खटखटाने जा ही रहे थे कि अंदर से बड़ी बहू के हँसने की आवाज़ आई,” अजय..अब जल्दी से तुम्हारे पिताजी को# रिटायरमेंट मिले और तुम्हारी माताजी वंश और कृतिका को संभाल ले।फिर मैं पूरी तरह से फ़्री होकर घूमूँगी-फिरूँगी..किटी पार्टी अटेंड करूँगी..।” 

  ” हाँ भाभी…मैं भी उनके ही आने का इंतज़ार कर रही हूँ ताकि सेकेंड बेबी का प्लान कर सकूँ..।फुल टाइम मेड का पंद्रह-बीस हजार तो बचेगा..।हँसते हुए छोटी बहू बोली तो उन्हें अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ।तभी विजय बोला,” वो सब तो ठीक है लेकिन पहले पापा को विश्वास में लेकर घर बिकवाना है ताकि उनके लौटने के रास्ते बंद..।” आगे वो सुन न सके।क्रोध-से उनका शरीर काँपने लगा, तो तुम लोग यहाँ हमारा भविष्य तय करने आये हो…।किसी तरह से उन्होंने खुद को संभाला और अपने कमरे में आकर चुपचाप बैठ गये।

        बच्चों के लेकर सुशीला जी वापस आईं।पति को शांत देखकर सोचा कि थक गये हैं।दोनों बहुएँ भी आ गईं तो उन्होंने चाय बनाने को कहा।दयाशंकर बाबू बोले,” नहीं..तुम बनाओ।”

   ” बहू का मन है तो..।”

   ” हमने कहा ना कि तुम बनाओ..।” दयाशंकर बाबू लगभग चीख पड़े।डिनर के समय टेबल पर माहोल थोड़ा गरम ही था।फिर भी अजय ने बात शुरू कर दी,” पापा..ऑफ़िस से पैसे का क्लीयरेंस भी तुरंत करा लीजियेगा।” 

  ” हाँ पापा..हम लोग सोच रहे हैं कि घर भी…।” इतना ही विजय कह पाया था कि दयाशंकर बाबू उठ खड़े हुए,” कान खोलकर सुन लो, मैं अपने घर में ही रहूँगा..कैसे रहना है, ये भी मैं ही तय करूँगा।” कहकर वो झटके-से अपने कमरे में चले गये।

      सुशीला जी कुछ समझ नहीं पाई।बेटे-बहू को प्यार-से समझा दिया कि तुम लोग खाकर सो जाओ..मैं उन्हें देखती हूँ।कमरे में आकर वो पति को देखती रहीं, फिर धीरे-से उनके हाथ पर अपना हाथ रखा तो दयाशंकर बाबू खुद को रोक नहीं सके।कुछ शब्दों से बताया, बचा हुआ आँसुओं ने बयाँ कर दिया।फिर बोले,” कल जाकर मैं बड़े साहब से अपने ज़ाॅब एक्सटेंशन करने की बात कर लेता हूँ।सुशीला..मेरा समय कट जायेगा और उस कमाई को पीछे की मज़दूर काॅलोनी के बच्चों की पढ़ाई पर खर्च कर दूँगा लेकिन इन नालायकों को एक फूटी कौड़ी..।” 

    ” शांत हो जाइये..आप जो चाहते हैं, वही कीजिये।मैं आपके साथ हूँ और हमेशा रहूँगी।अब कुछ सोचिये मत..।” कहते हुए सुशीला जी उन्हें बिस्तर पर लिटाकर खुद भी सोने का प्रयास करने लगीं।

     अगले दिन तैयार होकर दयाशंकर बाबू दफ़्तर चले गये।वर्मा जी से बोले कि जैसा आप चाहते हैं,कीजिये।मैं भी आपलोगों के साथ कुछ और समय बिताना चाहता हूँ।वर्मा जी की अनुभवी आँखों ने उनके चेहरे को पढ़ लिया था, इसलिए कुछ पूछे नहीं और गर्मजोशी से उनसे हाथ मिलाते हुए उन्हें बधाई दे दी।

       बेटे-बहू वापस जाने के लिये तैयार थे।अजय बोला,” माँ..आप पापा को समझाइएगा…।हमारे साथ रहेंगे तो..।”

   ” चिंता मत करो..तुम लोग बेफ़िक्र होकर जाओ..मैं सब देख लूँगी..।” कहते हुए सुशीला जी ने बच्चों को प्यार किया और अपने मन के भावों को छिपाकर उन्हें विदा कर दिया।

        दयाशंकर बाबू रोज की तरह पत्नी के हाथ से टिफ़िन लेकर दफ़्तर जाते..काम करते और सबके साथ हँसते-बतियाते..। घर आकर पत्नी के साथ चाय पीते..पार्क में टहलते।छुट्टी के दिन पत्नी के साथ मज़दूर-बस्ती में जाते..उनके बच्चों को काॅपी-पेंसिल देकर पढ़ाते..बीमारों का इलाज़ करवाते..।सुशीला जी वहाँ की महिलाओं और बच्चियों के साथ बातें करतीं..उन्हें सिलाई-बुनाई सिखातीं…।कभी-कभी घर में कीर्तन भी करवाती तो उन सबको भी बुला लेतीं।

        इस तरह से दोनों ने अपना जीवन समाज सेवा में लगा दिया।मित्र- हितैषी उनके कार्य की प्रशंसा करते हुए कहते कि दयाशंकर भाई ने सही निर्णय लिया है।उनसे प्रेरित होकर कुछ और लोग भी समाज सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बनाने लगे।

      बेटे फ़ोन करते तो दयाशंकर बाबू तो बात नहीं करते, सुशीला जी ही हाल-समाचार ले लेतीं।जब बेटे आने की बात करते तो वो कह देतीं,” देखती हूँ।”

                                   विभा गुप्ता 

# रिटायरमेंट                स्वरचित, बैंगलुरु

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