बीसवीं शताब्दि साँझ के धुंधलके से होती हुई रात की गहरी स्याही में सिमटकर लुप्त हो गई थी और इक्कीसवीं सदी अपनी सुरमई किरणों से वसुधा को मानो एक नया सवेरा देने का लुभावना चुनावी वादा सा कर रही थी।
इंजीनियर बनकर शानदार जिंदगी गुजारने का सपना तीन साल डिग्रियाँ बगल में दबाये शहर शहर भटकते हुए, सैकड़ों इंटरव्यू देने के बाद बुझ रही आंच के अंतिम धूँए की लकीर सा धीरे धीरे विलीन हो रहा था। देश भर में खुल गए हजारों इंजीनियरिंग कॉलेजों ने इतनी डिग्रियाँ बाँट दी थीं कि जहां जाओ नौकरी के आवेदकों की लंबी कतार दिखाई देती थी। गाँव में कहावत है ना कि एक ढेला उठाओ तो नीचे से चार इंजीनियर निकलते है।
कुछ वैसा ही मंजर था। धक्के खा खाकर खुद की योग्यता पर शंका और इस नामुराद जिंदगी से नफरत सी होने लगी थी। पिताजी के सपने निराशा के निरंतर प्रहार से विकृत आकार लेने लगे थे और माँ। माँ हर दिन मेरे थका हारा निराश घर लौटने पर मेरी प्रगृति पूछे बिना ही, चेहरे की शिकन देखकर मेरा हाल जान लेतीं और “धैर्य रख बेटा। कुछ न कुछ हो जाएगा” जैसे शब्द कहकर हौसला देने लगतीं।
निराशा की उथली नींद के बाद उदास सवेरे में रोज की तरह कल की डाक देख रहा था कि राजस्थान सरकार का एक पत्र दिखाई दिया। ‘रूरल वाटर सप्लाई’विभाग में जूनियर इंजीनियर की नौकरी लग गई थी। तीन दिन में राजस्थान के ठेठ बागड़ फतेपुर शेखावाटी के एक ग्रामीण क्षेत्र में जॉइन करना था।
एक पल को तो लगा जैसे किसी भूखे की खोपड़ी पर पेड़ से टूटकर टक से कच्चा अमरूद आ गिरा हो। कहाँ मेरा गंगा की नहरों के बीच बहती गन्ने की मीठी रसधारा की सुगंधी में पला बचपन और कहाँ ‘मारू में उठती पागल हवाओं’ वाला थार मरुथल का ग्रामीण आँचल। अरे भगवान सर पर टपकाना ही था तो पक्का अमरूद ही टपका देते। मगर भूख से बिलबिलाता आदमी क्या करेगा। झाड़ पौंछकर उसी कच्चे फल में दाँत मारने का निर्णय लिया।
राजस्थान… आह से राजस्थान वाह तक का सफर शुरू हो गया। तपती दोपहरियों के बाद सुहानी शामों को रेत के स्वर्णिम टीलों के पीछे डूबता रक्तिम सूरज। ठंडी सुहानी रातें में तारों से भरे आसमान पर अपनी चमक के गौरव से इठलाता चंद्रमा। खुरदरी सी बोली किन्तु मुलायम हृदय और जीवनशैली में अपनी अनूठी, अनछूयी संस्कृति सँजोये अभावों में भी उत्सव मनाते लोग।
फ़तेपुर शेखावाटी इलाके के हर गाँव में इतनी नयनाभिराम,वास्तुकला की अनुपम मिसाल, हवेलियाँ निर्जन पड़ी हैं जिनके निर्माण में उस जमाने में ना जाने कितने कलदार खर्च हुए होंगे। उनके मालिक मारवाड़ी अब आसाम, मुंबई और कलकत्ता में जा बसे हैं और उनके बुजुर्गों की हवेलियों में कबूतरों की कई पीढ़ियाँ जवान होकर परवाज़ भर चुकी हैं। ऐसी ही एक खाली पड़ी हवेली के अग्र भाग में मुझ से पूर्व इस पद पर रहे त्रिवेदी जी ने मुझे एक बांस की खाट और दो प्लास्टिक की कुर्सियों से डैकोरेटिड कमरा मात्र तीन सौ रुपये महीने किराए पर दिलवाकर उपकृत किया।
मेरे सामने वाले कमरे में पशुपालन विभाग में काम करने वाले भीलवाड़ा के मूल निवासी जतन मीणा जी रहते थे। प्रवेश द्वार के पास बने इन दो कमरों को छोड़कर रात को हवेली के गहन अंधेरे में डूबा हुआ विशाल शेष भाग एकदम भूतिया सा हो जाता। शुरू शुरू में तो रात में मुझे किसी कबूतर के फड़फड़ाने से भी डर लगता था। किन्तु बाद में आदत हो गई। हवेली का मुख्य द्वार इतना विशाल था कि उसे मैं और मीणा जी मिलकर बंद किया करते थे। वैसे बक़ौल मीणा जी, बंद भी न किया जाय तो अपराध मुक्त इस क्षेत्र में कोई आवारा गाय या कुत्ता आकर बैठ जाये, इस से अधिक कुछ होने की संभावना नहीं थी।
मीणा जी राजस्थान की नैसर्गिक सहज सरलता लिए हुए बेहद मिलनसार और विनम्र व्यक्ति थे। पहले दिन उन्होने ही हुझे अपने हाथ से बनाई हुई बाजरे की खिचड़ी, घर से लाये हुए गाय के देसी घी के साथ खिलाई थी। फिर दैनिक जरूरतों के लिए मेरा परिचय दूध वाले कनक सिंह घोसी से और छोटी सी परचून की दुकान के मालिक बंसी लाल से भी करा दिया था।
कुछ दिन बाद जतन ने विशाल हवेली के अनेक कमरों में से एक और कमरा किराये पर ले लिया और एक छोटे से स्टोर को रसोई का रूप दे दिया था। उन्हों ने बताया कि अगले महीने वे अपने बच्चों को भी ला रहे हैं। इसलिए थोड़ा एरिया बढ़ा लिया है।
जब मीणा जी अपने घर से लौटे तो उनके साथ उनकी ठेठ राजस्थानी शैली में रची बसी उनकी पत्नि, एक छोटी सी दो साल की गुड़िया के अलावा एक और जीव भी था जिसे देखकर मुझे बड़ा कौतूहल सा होना स्वाभाविक ही था। वो जीव था एक बकरी। मीणा जी ने बड़े उत्साह से बताया “भाई, बकरी के ब्याने में बस पंद्रह बीस दिन शेष हैं। फिर हम दोनों का तो घर के ही दूध का जुगाड़ हो जाएगा। तुम्हें चाहिए आधा किलो दूध और मेरी बकरी ढाई से तीन लीटर तक दूध दे देती है। शेष दूध से हम तीन जीवों का काम आसानी से चल जाएगा।”
गाय भैंस तो हमारे गाँव में भी पाले जाते हैं किन्तु बकरी का रखरखाव मेरे लिए बड़ा उत्सुकता का विषय था। जब बकरी ब्या गई तो उसने तीन लीटर से भी अधिक दूध देना शुरू कर दिया। सब से मजेदार बात ये थी कि दिन में किसी भी समय जब घर में दूध की जरूरत हो ‘चंचल मीणा’ बकरी की टांग पकड़कर एक ग्लास दूध निकाल लेती थीं। वाह। वाह क्या एटीएम मशीन थी दूध उत्पादन की। चौबीस घंटे ताजा दूध तैयार। जतन और चंचल ने बड़े अनुरोध से मुझे भी अब बाजार से दूध न खरीदने का प्रस्ताव रखा और मुझे बिना किसी संकोच बिना मूल्य के अपनी बकरी का दूध इस्तेमाल करने का आग्रह करने लगे। “अरे भाई घर में दूध की नदियां (तीन लीटर) बह रही हैं और तुम मोल का दूध खरीदोगे।”
पहले तो मैंने भी सोचा था कि दूध तो खरीदना ही होता है सो मीणा जी को ही किसी न किसी बहाने पैसे दे देंगे किन्तु बड़े चाव से आंखे के पत्ते और बेरी का झाड़ चबाने वाली बकरी के दूध का स्वाद चखने के बाद, उसे पीना तो मुझे किसी सजा से कम नहीं लगा था। अजीब सा स्वाद था। दवा जैसा। सो बड़ी मुश्किल से बहाने बनाकर जान बचाई थी।
जतन मीणा की ही तरह उनकी पत्नी भी बेहद सरल स्वभाव की निष्पाप सी महिला थीं। उनके चेहरे की मासूमियत और महीन स्वर में राजस्थानी शैली की बातें सुनकर ऐसा लगता था जैसे आप किसी छह साल की बच्ची से बात कर रहे हों। बड़े पारिवारिक से संबंध स्थापित हो गए थे मीणा जी के परिवार से। सामान्य तौर पर आज के आधुनिक शहरी जीवन में इतनी जल्दी विश्वास और आत्मीयता का इतना गहरा रिश्ता स्थापित नहीं होता। अब तो मैं कमरे का ताला लगाने की ज़हमत भी नहीं उठाता था। पहले तो उन्होने मुझे भी अपने घर ही खाना खाने का आग्रह किया किन्तु मेरे स्पष्ट मना कर देने के उपरांत जब भी उनके घर में कोई चटपटी सब्जी जैसे सेंगर की फलियाँ, आलू पापड़ की सब्जी, कढ़ी, गट्टे या तरह तरह की बड़ियाँ बनतीं तो चंचल एक कटोरी मेरे कमरे में रख जाया करती थी। तेज लहसुन की झांज और तीखी मिर्च झेलते हुए मैं राजस्थानी स्वाद का आनंद लेता रहता।
कनक घोसी के घर से आने वाले आधा किलो दूध से मेरा ठीक काम चल जाता था। सुबह एक पाव और शाम को एक पाव। सुबह दो बार चाय के लिए और रात को मुझे दूध पीकर सोने की आदत थी। घर से चंद कदमों की दूरी पर रहने वाले कनक सिंह घोसी ने कई गायें पाल रखी थीं। कमजोर कमजोर सूखी सी मरियल गायें। कोई दो किलो दूध देती तो कोई तीन। उसी दूध को बेचकर उसकी घर गृहस्थी का काम चलता था।
मैली सी रंगीन पगड़ी बंधे हुए झुर्रीदार खिचड़ी मूछों वाला कनक सिंह एक लंबी गर्दन वाली डिजाइनर की कलसी या शायद यहाँ उसे टोकणी भी कहते थे, में दूध लता था और भले ही मैं सोता रहूँ बिना कोई विघ्न डाले बस धीरे से ‘जय राम जी की बाऊ सा’बोलकर मेरे पात्र में दूध डालकर चला जाता।
संतोषजनक सेलेरी और सरकारी नौकरी की निश्चिंतता के साथ समय गुजर रहा था। यहाँ तो कुछ खर्चा ही नहीं था। न सीनेमा न चाट के होटल। महीने के परिश्रमिक के तीस प्रतिशत ही खर्च हो पाते। शेष पैसा मैं घर भेज देता। भले ही भाषा, रहन सहन, खान पान और जीवनशैली एकदम अलग थी किन्तु इस नए अनुभव को मैं खूब एंजॉय कर रहा था। रेगिस्तान के दिन कितने भी गरम होते किन्तु रातें ठंडी सुहानी होती थीं। शाम ढले मैं दूर तक रेत के टीलों के बीच बनी पगडंडी पर निकल जाता। बड़ी शांति और सुकून मिलता था। दिन भर काम करने के बाद खूब गहरी नींद आती।
कनक सिंह जब दूध देने आता तो अकसर मैं हल्की नींद में होता मगर फिर भी वो रोज जय राम जी की बाऊ सा बोलकर दूध बर्तन में डालकर चला जाता।
एक सुबह, हल्की नींद के झोंके से आ रहे थे कि पूरे वातावरण में एक कस्तूरी सुगंधी सी फ़ैल गई। मधुर नूपुर ध्वनि, सुरम्य संगीत का सा अहसास करा रही थी। शायद इन्द्र की सभा से भटककर कोई अप्सरा मेरे स्वप्न में उतर आई हो। तभी एक मधुर नारी स्वर कानों में वीणा की झंकार सा बज उठा।
“दूध लाई हूँ बाऊसा।”
एक पल में तंद्रा चैतन्य हो उठी। मैं आँखें मींडता हुआ उठकर बैठ गया। सामने एक हल्की साँवली सलोनी आभा, वनवासी बाला जैसा भोलापन लिए मासूम सा चेहरा। सम्मोहित सा कर देने वाली गहरी काली आँखें। आवारा सी बंधन मुक्त होने का प्रयास करती लटाएं। सुंता हुआ लंबा कद। कुर्ती कंचुली से झंकता चमकदार कटिप्रदेश। पाँव में छोटे छोटे घुंगरू वाली पाजेब और गोबर लगी चमड़े की जूतियाँ पहने एक मरु-सुंदरी खड़ी थी।
“दू… दूध लायी हूँ बाऊसा। थारी मेम साब कठै (कहाँ हैं)। बर्तन…।”
“मेम साब नहीं हैं। आप… आप वहाँ उस बर्तन में…।”
और वो जग में दूध डालकर अपनी ही धुन में ठुमकती, गुनगुनाती सी चली गई। मैं दूर तक उस सुंदरी को देखता रह गया। बेतरतीब सी उलझी सी लंबी चोटी। बदन से फूटती यौवन की तरुणाई। लापरवाह सी किन्तु लयबद्ध चाल। जब वो चलती तो उसका मध्य भाग दायें और बाएँ हिलता था और उस रिदम के साथ ही महीन सी घुंगरुओं की रुनझुन सी बज उठती। ये उसके पारंपरिक वस्त्रों और आभूषणों का जादू सा था।
अगली सुबह न जाने कैसे मेरी आँखें जल्दी ही खुल गई थीं। अवचेतन मन में कहीं एक आस की किरण दस्तक दे रही थी कि मन-द्वार खोलकर रखो। क्या पता कोई अरुणिम किरण मन आँगन में स्वर्णिम उजास फैला दे। क्या पता अंजान प्रदेश से उठे मेघों से अमृत की बूंदें बरसकर रूखे से जीवन के रेगिस्तान को मरु उद्यान में बदल दें।
कल के धुंधलके में उसे भरपूर देख भी तो नहीं पाया था। क्या पता अर्धनिंद्रा में, वाणी की मधुरता में, कस्तूरी सुगंधी में और पायलों की रुंझुन में भ्रमित तो नहीं हो गया। मेरे कल्पना तो नहीं है। किसी की विवाहिता तो नहीं है।
फिर कई दिन वो नहीं आई। स्वप्न सुंदरी की आस में खडूस खिचड़ी मूछ कनक सिंह ही दिखाई देता था और मेरा मन ऐसा हो जाता जैसे स्वादिष्ट चूरमा के पहले ही ग्रास में रेत की किरकल आ गई हो।
फिर एक दिन हल्की बूँदाबाँदी हो रही थी। इत्तेफाक से मेरी आँखें जल्दी ही खुल गई थीं। चाय की तलब हो रही थी। दूध अभी तक नहीं आया था। सोचा तब तक चूल्हे पर पानी चढ़ा देता हूँ।
अचानक कानों में वही परिचित चांदी की घंटियाँ सी बजती सुनाई दीं। वो मेरे पीछे खड़ी हल्का सा मुस्कराते हुए मुझे देख रही थी। न जाने व्यंग या पहले परिचय की औपचारिकता।
आह, क्या नैसर्गिक सौन्दर्य था। गहरी काली कुतूहली आँखें। चेहरे पर बचपन की सी मासूमियत। किसी शिल्पी के द्वारा गढ़ी गई देहयष्टि। कसा हुआ कंचुक और जमीन को छूती हुई चोटी।
“चा बनाणों मरद मानस रो काम कोणी बाऊसा। थाणे ऐतराज न हो तो मैं बणा दूँ। घणी चोखी चा बाणऊ।” उसने चांदी की घण्टियों से मधुर स्वर में कहा।
“नहीं नहीं। हो जाएगा। तुम… तुम कनक सिंह की बेटी हो?” मैंने धड़कते दिल से पूछा।
“हाँ बाबू सा, पण मैं कह रही थी कि कल से दूध की जगह चाय ही ले आऊँ। म्हारा बापू अदरक न दालचीनी वाली चोखी चाय पीवै।” उसने शरारत से मुसकराकर कहा।
“थारी बींदणी कठै।” (तुम्हारी पत्नी कहाँ है)
“वो… वो नहीं है। अभी… अभी नहीं है।”
“अबार समझ में आई बात। थारा ब्या कोणी हुओ।” उसने ऊपर से नीचे तक मुझपर दृष्टि डालते हुए कहा और अपने यौवन के गौरव से इठलाती हुई चली गई।
अगली सुबह। हल्की नींद आ रही थी कि बर्तनों के खड़कने की आवाज़ से आँख खुलीं।
“अरे अरे। ये क्या कर रही हैं आप।”
“चाय बणाऊं थारे वास्ते। आज पी के देखो म्हारे के हाथ री चा। बणाना भूल जाओगे बाऊसा।”
“अरे आप… आप रहने दीजिये। मैं कर लूँगा।”
“मूच्छा जल जावेंला किसी दिन थारी। ब्याः क्यूँ नहीं कर लेते बाऊसा।” उसने शरारत के साथ कहा।
“तुम ही बता दो कोई अच्छी सी लड़की। कर लूँगा विवाह।”
एक पल के लिए उसके गालों पर लाली सी तैर गई। फिर उसने एक भरपूर निगाह मेरी तरफ डालकर धीरे से कहा “थें ऊंची जात रे ऊंचे लोग हो। अपणे ही देस से कोई मेमसाब ले आओ। अठै बागड़ मेँ तो मेरे जैसी गंवार छोरियाँ ही मिलेंगी।” उसने कप में चाय डालते हुए लजाकर कहा।
आज इतने बरस के बाद सोचता हूँ कि जीवन साथी की दृष्टि से आइडियल क्या है, ये तो इतने बरस गुजर जाने के बाद भी तय नहीं कर पा रहा हूँ। परिवर्तनसुलभ गाँव की उर्वरा कच्ची जमीन जिसमें अपने अनुकूल जीवन की फसल उगाई जा सके। नर्म गीली मिट्टी जिसे अपने साँचे में ढाला जा सके। अपनी कल्पनाओं के रंग भरे जा सकें या… तराशा हुआ ठोस हृदयहीन प्रस्तर खंड जो अपना मनमोहक लुभावना आकार तो पहले ही ले चुका है किन्तु उसके आकार में तनिक सा भी परिवर्तन करने का प्रयास किया तो शिल्पी के हाथों को लहूलुहान कर देगा। स्वयं बिखर जाएगा या आप को घायल कर देगा। दुर्भाग्य से मैंने दूसरा विकल्प चुना था किन्तु जब तक पत्थर की कठोरता का आभास हुआ बहुत देर हो चुकी थी।
“इतना सोच्चो मति बाऊसा। चाय पियो।” उसने मेरी तंद्रा भंग करते हुए चाय का प्याला हाथों में थमा दिया।
“इतनी अच्छी चाय बना लेती हो तो गंवार कैसे हुई भला। आ आ नाम क्या है तुम्हारा।” मैंने एक सिप लेते हुए कहा।
“नाम रो कायीं है बाबू सा। बचपन सै सब गूगली गूगली बोलें। फिर एक दिन माँ ने बताया कि नाम तो गंगा है पण…।”
“गंगा और रेगिस्तान में। पर जैसे गंगा का पानी मीठा है वैसे ही तुम्हारी बोली।”
वो शरमा गई और तेजी से बाहर निकल गई।
पूरे दिन उसी बाला के खयाल दिल में तैरते रहे। इस भौतिक काल में दुर्लभ हो गई ऐसी निष्पाप सरलता कि एक नौजवान के कमरे में घुसकर बिना पूछे चाय बनाने का कोई दूसरा मतलब न उसके लिए है न उसके समाज के लिए। क्या उसे फर्जी दुनिया के दिखावटी ‘एटीकेट’ सिखाये जा सकते हैं। क्या तब उसकी मिट्टी की सौंधी खुशबू धूमिल नहीं हो जाएगी। क्या ऐसे निष्पाप सौन्दर्य को अपनी अंकशायनी बनाया जा सकता है। यदि वो साड़ी पहन ले तो कैसी लगेगी भला। अगर किसी ब्यूटी पार्लर में सजाया जाय तो किसी फिल्मी तरीका के सौन्दर्य को भी मात दे सकती है। किन्तु… तब शायद उसकी आदिवासी नैसर्गिकता कहीं धूमिल हो जाएगी। व्यक्तित्व पर एक आभासी परत चढ़ जाएगी। ओह, कैसी असंभव सी कल्पना है। कितने भी गरीब हों उसके माता पिता। उन का अपना एक कड़े अनुशासन ये आच्छादित समाज है। भले ही रंबांकुरों की इस बलिदानी भूमि के कुछ गांवों में सामाजिक रूप से स्वच्छंद यौन व्यापार वाली जातियाँ भी रहती हों किन्तु शेष समाज के चारित्रिक मापदंड बहुत ऊंचे हैं। उनके खुलेपन और सद्व्यवहार को उपभोग के लिए सहज प्राप्य समझ लेना आत्मघात साबित हो सकता है। क्या उनका समाज बेटी को किसी विजातीय परदेसी से ब्याहने को तैयार हो पाएगा।
अगले दिन कनक सिंह ही दूध लेकर आया। उसकी बेटी को लेकर बहुत सारे सवाल मन में तैर रहे थे मगर संकोच वश पूछ नहीं पा रहा था। फिर धीरे से कहा। “कई दिन आए नहीं कनक सिंह। आँख नहीं खुलती थीं क्या।”
“नींद कठै आवे बाऊसा। घर में जवान छोरी बैठी है। छोरा देखने गया था। इस साल पणीज जावै तो छाती सै बोझ सा उतार जावै।”
“अच्छा वो जो कभी कभी दूध देने आती है। तो… देख लिया लड़का। कैसा… कैसा लड़का देख रहे हो कनक सिंह जी।”
“बस जी खाता पीता परिवार हो। गाँव में मीठे पाणी री बावड़ी हो और लड़का दो पीस्से कमाता हो। बड़ी काबिल लड़की है जी मेरी। लगातार चार पाँच गायों का दूध दुह लेती है।”
“और बिरदारी। आपके यहाँ बिरदारी से बाहर तो शादी…।”
“कांई बाताँ करो बाऊसा। म्हारी छोरियाँ गाँव की इज्जत होवें। ऐसा तो सोच भी न सकें।” और वो खरामा खरामा चला गया। मैं सोचता रहा कि अचानक मैंने ये अजीब सा सवाल पूछा ही क्यूँ। या अंतरमन की किस भावना में मुंह से निकल गया।
अब सुबह जल्दी ही आँख खुल जाती थीं। अगले दिन फिर दूध लेकर गंगा प्रगट हुई। बर्तन में दूध डालते हुए बोली “बड़े सवाल पूछ रहे थे बाप्पू से बाऊसा। अरे कायीं पूछो बाऊसा। बापू के पास पैसा कोणी। पणीज देंगे मुझे किसी दारुड़िये के साथ। फिर खटती पिटती रहूँगी जिंदगी भर।”
“ऐसा मत कहो गंगा। मैं… मैं तलाश करूँ कोई छोरा तुम्हारे लिए या…। अच्छा ये बताओ गंगा। तुम्हें कैसा लड़का पसंद है।”
उसने गर्दन नीचे झुका ली। कुछ देर कनखियों से मुझे देखती रही। फिर शरमाकर बोली “थारे जैसा।” और तेजी से भाग गई।
शाम को ऑफिस में ही था कि पिताजी का फोन आया। “तुम्हारी माँ की तबीयत अचानक खराब हो गई है। पहली ट्रेन से चले आओ।”
अगली शाम घर पहुंचा तो मुझे देखकर माँ खुशी से खिलखिला उठी थीं। मेरी सरकारी नौकरी के उल्लास ने माँ की और मेरी सैलेरी ने घर की शक्ल बदल दी थी। नया पेंट। नई साज सज्जा। माँ एकदम स्वस्थ थीं। बस मुझे शादी के पिंजरे में कैद करने का शड्यंत्र रचा जा रहा था सारा।
अगले ही दिन एक परिवार अपनी बेटी से मेरे रिश्ते की बात करने इंदौर से आने वाला था। मोल भी अच्छा लगाया था उन्होने। शायद मेरा नहीं मेरी सरकारी नौकरी का।
अब… पता नहीं लंबे समय उजाड़ बागड़ में गुजारने के बाद आधुनिक नोएडा के ग्लैमर का प्रभाव था, पत्थर के बड़े व्यवसायी श्रीचन्द जी की मिरांडा हाउस दिल्ली में पढ़ी आधुनिका शिल्पा के सौन्दर्य का सम्मोहन था। माँ की आँखों में दुनिया छोड़ने से पहले बहू देख लेने की आशा का दबाव था या पिताजी के आदेश का पालन करके मैं उनके पित्रऋण से मुक्त होना चाहता था, मात्र एक माह बाद हम नोएडा के फ़ोर बीएचके वैल फर्निश्ड फ़्लैट में अपनी गृहस्थी जमा रहे थे। हम दोनों। मैं और शिल्पा। बस। कुल मिलाकर इंदौर वाले कुशल व्यवसायी ‘नए पापा’ (स्वसुर साहब) ने एक करोड़ की शादी करने का प्रलोभन देकर एक तारीख से तीस तारीख का सफर तय करते करते बूढ़े हो गए पिताजी को सहज ही प्रलोभित कर लिया था। वो एकदम सुनियोजित योजना के अंतर्गत अपनी बेटी को एक फ़्लैट, एक शानदार गाड़ी और एक अदत दामाद खरीदकर उसका नया और अलग घर बसाने में कामयाब हो गए थे। अपने पैसे और बेटी के सौन्दर्य से चौंधियाकर एक बेटे को माता पिता से नौचकर अपनी लाड़ली के जीवन के सामाजिक कौलम में विवाहिता लिखवाकर,उसके स्वच्छंद जीवन पर एक पर्दा डालने का उनका प्रयास फिलहाल सफल परवान चढ़ चुका था। बहुत बाद में पापा ने बताया कि इतना पैसा लगाने की उनकी शर्त यही थी कि मेरी बेटी आप से अलग नोएडा के फ्लेट में रहेगी।
शुरू में बार बार मरुसुंदरी गंगा के प्रति मेरे इकतरफ़ा आकर्षण और शायद प्रेम का अहसास ह्रदय में कौंध जाता था और मैं शिल्पा और गंगा में तुलना करने लगता। किन्तु बाद में नियति के आदेश को मानकर मैंने नई जिंदगी को सँवारने का निर्णय किया था। पर क्या उस विपरीत आकार में ढल चुकी प्रस्तर मूर्ति को कोई शिल्पी नया आकार दे सकता था या… या मैं दे पाया। जैसे जैसे उसके व्यतित्व की और अतीत की परतें खुलती गईं हमारे बीच दूरियाँ भी बढ़ती गई थीं। उसकी सोच और जीवनशैली के लिए अलग सिद्धान्त थे और तर्क थे। जिंदगी जीने की अपनी ही फिलौसोफी की सशक्त पक्षधर थी वो और मैं परम्पराओं में रचा बसा अर्ध ग्रामीण परिवेश का व्यक्ति…। कैसे कहूँ कि वो गलत थी और मैं सही था या मैं गलत था वो ही सही थी। किन्तु ये सच है कि उसकी सोच के साँचे में मैं स्वयं को कभी ढाल नहीं पाया। वो सदियों के परिशोधन,विश्लेषण और समयानुकूल परिवर्तन के बाद बने समाज के वर्तमान ढांचे को ठेंगे पर रखना चाहती थी। ये मेरा जीवन है। मैं चाहे जैसे जीऊँ। समाज कौन होता है मेरे स्वच्छंद जीवन में दखल देने वाला। माय लाइफ माय चौईस।
उसने कहा कि ‘कभी कभी मुझे सिगरेट की तलब होती है।’
मैंने कहा ‘कोई बात नहीं। पी लिया करो। तुम्हारे यहाँ सिगरेट पीने को ही आधुनिकता कहते होंगे शायद।’
उसने कहा ‘पार्टियों में मैं ओकेजनली ‘जिन’ ले लेती हूँ।’
मैंने कहा ‘ठीक है। तुम एक धनाड्य, मौडर्न परिवार में पली बढ़ी लड़की हो। शायद मैं ही कस्बयी संस्कृति को ढोता हुआ वक्त से पीछे घिसट रहा हूँ।’
फिर एक दिन उसने बताया कि ‘मैं एक अबौर्शन से भी गुजर चुकी हूँ। बट आई डोंट केयर अबाउट इट। इट्स माय लाइफ एंड माय बॉडी।’
“क्या अब भी इट्स यौर बौड़ी? मैंने हँसकर कहा तो उसने शरारत के साथ मुझे आलिंगन में भर लिया और धीरे से कहा “नहीं। अब तुम्हारी भी है। मगर…।”
“मगर व्हौट। वैवाहिक जीवन को लेकर या हम दोनों के भविष्य को लेकर तुम्हारे दिमाग में कोई शंका हो तो हम दोनों उसपर स्वस्थ वार्ता कर सकते हैं शिल्पा।”
“क्या स्वस्थ चर्चा वार्ता अभिनव। अब जो जैसा है सो है। मैंने जिस घर में और जिस समाज में जन्म लिया वो सब वाहियात… ब्लड़ी ओर्थोडौक्स। यार मैं अपनी मर्जी से अपना जीवन क्यूँ नहीं जी सकती। यही परंपरा है। यही रिवाज है। ऐसा ही होता है और होता रहना चाहिए। यार क्या है ये। आप में हिम्मत नहीं है इन दीवारों को ताड़ने की तो सब को उन्ही सींखचों में कैद करना चाहते हो। मेरी बेटी मेरी ही लकीर पर चलेगी क्यूंकी मैंने उसे पैदा किया है। पाला पोसा है। साली कोई दलील है यार ये। मैं गई थी क्या तुम्हारे पास एप्लीकेशन लेकर कि मुझे पैदा करो। तुम्हारी हवस ने पैदा किया मुझे। और… जन्म दिया है तो मुझे गुलाम बनाने की कोशिश तो मत करो। अरे जीने दो मुझे मेरी जिंदगी आजादी से।” सामान्य बातचीत में अचानक उसके शब्दों में रोष बढ़ता जा रहा था।
“अरे… ऐसा नहीं कहते। अगर शृष्टि की रचना में केवल हवस होती तो ये लालन पालन… और पूरी जिंदगी अपने बच्चों की चिंता। या गलत तर्क है। ख़ैर… तो क्या तुम अपने मम्मी पापा से नाराज हो।”
“यार अब क्या बताऊँ तुम्हें। अरे घर में बेटी जवान हो गई है तो क्या कोई अजीब बात हो गई। चौबीस घंटे यही हाय तौबा कि बेटी जवान हो गई है। अरे शादी करो जल्दी से। वरना अनर्थ हो जाएगा। ऊपर से ये रिश्तेदार। चौबीस घंटे एक ही रट। अजी क्या चल रहा है बिटिया का। मिला कोई लड़का। अबे साले, तुम ने ठेकेदारी ले रखी है मेरी जिंदगी को बर्बाद करने की।”
“कैसे बोल रही हो शिल्पा। हमारा ये समाज है। इसकी कुछ रस्मों रिवाज है। ट्रेडीशंस हैं। क्या तुम इस शादी से खुश नहीं हो।”
“सवाल इस शादी और उस शादी का नहीं है। आखिर शादी क्यूँ। ये बंधन क्यूँ। पहले माँ बाप। ये पहनो, वो मत पहनो। धीरे बोलो। इसके साथ मत रहो। देर रात पार्टियों में मत जाओ। तुम लड़की हो। दूसरे घर जाना है। अरे तो क्या लड़की या लड़का होना हम चुनते हैं और दूसरे घर। पैदा होते ही माता पिता का ये जुमला ‘दूसरे घर जाना है।’ फिर सास,ससुर, पति। अरे लोग क्या कहेंगे। लोकलाज, हया, लज्जा, फलाना। वस्तु हैं हम या कोई माटी का पुतला। ब्लैकमेल करते रहते हैं साले। बेटी तुम ने हमारी बात नहीं मानी तो मैं जहर खा लूँगी। भाड़ में जाओ। मर जाओ सारे जहर खाकर।”
“अरे क्या हो गया तुम्हें। इतना गुस्सा।”
“हम… हम आजाद क्यूँ नहीं रह सकते अभिनव। आखिर चारों तरफ ये जंजीरें क्यूँ?”
“हम आजाद ही तो थे। काहों साल पहले जब मानव कन्दराओं में रहता था। तब आजाद ही थे। न ओढ़ने पहनने का बंधन न जोड़े बनाने की औपचारिकता। नंगे घूमो। जब जिसके साथ मर्जी हो चिपक जाओ। शरीर की भूख मिटा लो।”
“तो फिर क्या दिक्कत थी उसमें। फ़्रीडम अमूल्य है।”
“फिर औरतों को लेकर खूनी संघर्ष होते होंगे। और सबसे बड़ी समस्या बच्चों की। उनका बाप कौन। सुख दुख में साथ कौन दे। बुढ़ापे में किसके सहारे रहें। तब परिवार का कौंसेप्ट आया होगा। पुरुषों और औरतों को लेकर झगड़े न हों, इसके लिए विवाह की परिकल्पना की गई होगी।
हजारों हजारों सालों तक मानव इस समाज को निरंतर एक सुधरा हुआ रूप देने के लिए प्रयास करता रहा और तुम एक पल में उसे तोड़ देना चाहती हो।”
“शुरू हो गए न वही तर्क वितर्क। मेरे पापा की तरह। मुझे इन सब में नहीं पड़ना था अभिनव। अच्छा बताओ। एक जीवन है। सपोज़ करो ये मेरा जीवन है। पचास, साठ या सौ साल। अब मैं वो सब क्यूँ न करूं जो मेरे लिए सुखद है। आनंद दायक है। मनोरंजक है।”
“क्या स्थायी भी है। जीवन की हर अवस्था के लिए?”
“अ अब कल का कौन जाने यार। पल का पता नहीं। कॉफी पियोगे तुम।” उसने अपने तर्कों की धार को भौंटी होते देखकर बात बदली।
धीरे धीरे एक वर्ष बीत गया। ऐसा तो बिलुल नहीं है कि शिल्पा ने खुद में परिवर्तन करने का या एक अनुशासित ग्रहणी बनने का प्रयास न किया हो। मुझे कभी प्यार न दिया हो। किन्तु ऐसा लगता था कि वो एक कन्फ़्यूजन में जी रही है। या शायद ये स्थिति उसके लिए सहज नहीं थी। कभी ऐसा लगता कि वो किसी की नकल करने का प्रयास कर रही है या कोई एक्सपेरीमेंट। क्या पता अपनी माँ की। किसी दिन अचानक सर पर पल्लू रखकर भवान की पूजा करती और फिर मेरे पाँव छूने का प्रयास करती। तब उसके बहरूपिये पन पर मेरी हंसी छूट जाती थी। फिर एक हाथ में कॉफी का मग और दूसरे में सिगरेट लेकर बालकनी में बैठ जाते और किसी दार्शनिक की तरह आसमान पर उड़ते पंछियों को देखकर लंबे लंबे कश लेती रहती। मुझे लगता कि धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा किन्तु अचानक उसका रूप बदल जाता। वो अपने दोस्तों की पार्टियों में जाती जहां सब कुछ फ्री होता। फ्री ड्रग्स। फ्री अल्कोहल और फ्री सैक्स। देर रात या कभी कभी सुबह झूमती हुई घर आती। होश आने पर फिर वही नाटक शुरू। तुम मेरे परमात्मा हो। अब ऐसा नहीं होगा। मैं तुम्हारे चरण छूकर कसं खाती हूँ… वगहरा। तब ऐसा लगता कि उसकी माँ की आत्मा उसमें समा गई है। बड़ा भारी कन्फ़्यूजन चल रहा था उसके जीवन में। शायद वो तय ही नहीं कर पार रही थी या विवश हो जाती थी और अपने व्यसनों के सामने घुटने टेक देती।
एक दिन उसने आँखों में आँसू भरकर कहा “मुझ से नहीं हो पाया अभिनव। मुझ से नहीं हो पाएगा। मैं… मैं अपनी माँ जैसी नहीं हूँ। वो चाहती है कि मैं उसके जैसी बन जाऊँ मगर…। मैंने कितनी कोशिश की। कोशिश की न मैंने?लेकिन… मुझ से नहीं हो पाएगा। मुझे आजाद कर दो प्लीज। और मैं तुम्हें भी इस बंधन से मुक्त करती हूँ।”
“कोई पुनर्विचार की गुंजाइश है क्या शिल्पा।”
“नहीं। तुम्हारी कीमत पर नहीं। मुझे कोई अधिकार नहीं कि तुम्हारी पहली मुहब्बत का मज़ाक उड़ाऊँ। और फिर एक अलग तरह के माइंड सैट में बंधा हुआ तुम्हारा जीवन तुम्हें विरक्ति की ओर मोड़ दे। अवसाद की तरफ धकेल दे या क्या पता जीवन से ही तुम्हारा मोह खत्म हो जाए। भूल जाओ मुझे अभिनव और… और जियो अपना जीवन अपने तरीके से… और मैं भी। काश तुम मुझ से नफरत करते। काश तुम मुझे धक्के देकर अपने घर से निकाल देते तो एक अपराधबोध जो जीवन भर मेरे मानस पर तारी रहेगा वो दूर हो जाता।”
फिर उसने निहायत ही डूबते से गहरे शब्दों में कहा “तुम ऐसे क्यूँ हो यार।” और वो चली गई। हमेशा के लिए।
बड़ा अजीब है न जीवन। कितना मैंने खुद को उसमें ढालने की कोशिश की और उसने भी। बड़ी मुहब्बत सी हो गई थी उस से मगर… एक पुरुष के द्वारा अपनी सहचरी को दूसरे की बाहों में देखना कितना दुष्दर्शन है किन्तु इसके उपरांत भी…। कभी उस पर क्रोध आता तो कभी दया। प्रणय की प्रेम भरी रातों को याद करके ऐसा लगता कि मेरा कोई बहुत अजीज़ मुझ से छिन गया है। क्यूँ तोड़ दिया उसने एक बना बनाया आशियाँ।
महीनों तक घर में ही पड़ा रहा। कभी अपनी किस्मत पर रोने का मन करता तो कभी बरबस ही हंसी छूट जाती नियति के नाटक को याद करके। मैंने तो हालात के सामने स्वयं को समर्पित कर दिया था परंतु…।
फिर एक दिन जतन मीणा जी का फोन आया। “भले माणस, तुम तो वैवाहिक जीवन में इतना डूब गए कि दोस्तों की खबर सुध लेना भी भूल गए। भाभी जी ने पल्लू से कस के बांध रखा है क्या।”
अब उसे कैसे बताता कि वे गांठें कब की खुल चुकी हैं।
“अरे छोरा हुआ है। तुम्हारा भतीजा अभिनव जी। बारह तारीख को दावत रखी है। कोई बहाणा नहीं चलेगा। आणा पड़सी। वरना मैं और तेरी भाभी तुझ से कभी बात नहीं करेंगे।”
करने को कुछ नहीं था। पड़े पड़े बोर होने से अच्छा राजस्थान के लिए ही निकल लेते हैं।
गले से लिपट गया भाई। किसी एकदम सुदूर इलाके में रहने वाले अलग भाषा, अलग परिवेश रहन सहन और जाति… हाँ इस देश में तो जाति भी महत्वपूर्ण है, के परिवार को इतना प्रेम हो सकता है ये भी मानव मात्र की भावनाओं के विश्लेषण का विषय है। शाम को चाय का सिप लेते हुए हम बाहर खुले आसमान के नीचे ठंडी हवा और गप्पों का आनन्द ले रहे थे। रत्नजटित आकाश में प्रवासी पक्षियों की डार टीं–टीं का स्वर करते हुए अपने अंजान सफर की ओर बढ़ रही थीं। कितना विश्वास और दृढ़ निश्चय था उनके सफर में कि वर्ष गुजर जाने के बाद भी उनकी मंजिल उनका स्वागत करेगी। किन्तु मेरा तो न कोई सफर न मंजिल।
“और बता यार जतन। भाई तेरा परिवार तो पूर्ण हो गया। एक छोरा और एक छोरी।”
“हाँ यार। सब ऊपर वाले की कृपा है। इंक्रीमैंट मिलने के बाद सैलेरी भी अच्छी हो गई है।”
“अरे पर तेरी बकरी…।”
“दूध देना बंद कर दिया था तो गाँव भेज दी। अब तो मैं भी दूध कनक सिंह…।”
“अरे हाँ वो मुच्छड़ कनक। ठीक तो है वो। और…।” मैंने अपनी मनोभावनाओं को छुपाते हुए कहा।
“बरीब आदमी क्या ठीक रहेगा यार। उसके साथ तो बहुत बुरा हुआ। बेचारा बर्बाद ही हो गया।”
“अरे… क्या हुआ।”
“तुझे याद होगा, उसकी एक छोरी भी थी। अरे तूने देखी तो होगी। कभी कभी दूध देने आती थी।”
जतन को क्या पता कि मुझे तो बस वही याद है और उसकी याद ही मुझे यहाँ खींच लायी है। उसकी होठों से उभरने वाली और गालों में गुम हो जाने वाली मुस्कान। उसकी अल्लहड़ सी, बेफिक्र सी ठुमकती चाल। गहरी निगाहों से देखते हुए ठोड़ी पर उंगली रखकर एक पुरुष के चूल्हा जलाने पर आश्चर्य व्यक्त करना औ?
और बिना झिझक अपने हाथों से चाय बना डालना।
“अरे कहाँ खो गया अभिनव। मैं बता रहा था कि इत्तेफाक से मैं उस दिन सुबह मुंह अंधेरे ही सामने वाले टीले तक घूमने निकल गया था। अरे भाई क्या बताऊँ, अंधेरे में एक मानव छाया टीले के पीछे से उभर रही थी। अजीब विकृत सी लड़खड़ाती चाल, बिखरे हुए बाल और एक एक कदम गाँव की ओर बढ़ती हुई महिला छवि। मैं तो डर सा गया था भाई पर तुझे तो पता ही है कि अपन विज्ञान के आदमी हैं। सो धैर्य से उसके पास जाकर देखा।”
“अरे क्या बला थी वो। कोई औरत या… भूतली। हा हा।”
“कनक सिंह की छोरी थी भाई। फटे कपड़े। बिखरे बाल। पूरा शरीर चोटों से भरा हुआ। मेरे पहुँचते ही भरभराकर रेत पर डह गई। शायद बेहोश हो गई थी।”
“वो! कनक सिंह की लड़की। गंगा या न जाने क्या नाम था उसका।” आश्चर्य से मेरी आँखें फैल गईं।
“बताओ बताओ। क्या हुआ उसके साथ। कोई किडनैपिंग या रेप।”
“अपहरण… रेप…। हमारे यहाँ अनपढ़, रूढ़ियों और अंध विश्वासों से भरे गरीब समाज में इन दोनों का नाम शादी है भाया।”
“शादी। क्या उसकी शादी हो गई थी।”
“तेरे जाने के दो महीने बाद कनक सिंह ने बेटी की शादी कर दी थी। खूब धूमधाम से अपनी औकात से बढ़कर कर्जा लेकर छोरी का ब्याह किया बेचारे ने। पूरे गाँव का जीमण कराया। दहेज दिया। लड़की भी बड़ी खुश थी। सब से बताती फिरती। मेरे ससुराल वालों की बड़ी हवेली है। बीस तीस तो गाय बकरी हैं। बड़ा काम है दूध का। सहर में बेचण जवें मोटरसाइकिल पे। म्हाणै भी मोटरसाइकिल पर घुमावेंगे।”
“फिर…। फिर क्या हो गया ऐसा?”
“फिर कई बार खबर आई कि गूगली का धणी सराब पीवै है। लड़की के साथ मारपीट करता है। एक दूसरी लुगाई भी कर राखी है। पण आप तो जाणों भाया। म्हारे यहाँ उल्टे फेरे कोणी पड़ते। कनक सिंह कहता था मैं कांई कारां। छोरी रो भाग है। मरै चाहे जीवै। रहणों तो उसी घर में पड़सी।”
“यही तो दक़ियानूसी सोच है। नहीं जमता तो क्या दूसरा चांस नहीं दिया जाना चाहिए। अरे तुम्हारी बेटी है। पाली पोसी। किसी कसाई की हाथ देकर भूल जाओगे क्या। अरे एक ही बेटी है तेरी और उसे भी मरने के लिए छोड़ दिया।”
“अब क्या बताऊँ भाया। पूरा गाँव इकट्ठा हो गया। छोरी की घणी दुर्गति कर राखी थी। पूरे शरीर पर चोटों के निशान। कपड़े फटे हुए। शरीर देखकर लगता था कि महीनों से रोटी नहीं मिली। हड्डियों का ढांचा हो गई थी बपाड़ी (बेचारी)। अरे तुझे सुनकर अचंभा होगा। छोरी की टांग की हड्डी तक टूटी हुई थी।”
“फिर वो यहाँ अपने गाँव पहुंची कैसे?”
“जब लड़की के मरने की हालत हो गई तो रात को ऊंट पर बैठाकर गाँव के पास फेंक गए दानव।”
“पुलिस में रिपोर्ट नहीं कराई कनक सिंह ने।”
“मैंने तो कनक सिंह से कहा था भाया। पर फिर मीचुअल रिश्तेदार इकट्ठे हो गए। कहने लगे कि बदनामी के सिवा कुछ न होगा। बात घर में ही दबा दो। बाद में छोरी को कहीं और बैठा देंगे। मामला पुलिस में चला गया तो ऐसी बदनामी होगी कि फिर लड़की को कहीं बिठाना (दूसरा ब्याह) भी मुश्किल हो जाएगा। उम्र कम है। कैसे कटेगी पहाड़ सी जिंदगी। ओह, दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई पर हमारा समाज। सड़ा पड़ा है अभी तक। रूढ़ियों और विकृत परम्पराओं की बेड़ी में जकड़ा पड़ा है।”
“बहुत बुरा हुआ यार कनक सिंह के साथ तो।” मैंने अपने मस्तिष्क में उठा रहे तूफान को छुपाते हुए कहा।
“अरे पिक्चर अभी खतम कहाँ हुई है मेरे दोस्त। कनक सिंह के दुखों की कहानी बाकी है। लड़की की दुर्गति देखकर दस दिन बाद कनक सिंह की घरवाली सुबह को बिस्तर से ही नहीं उठी। सदमे से परलोक सिधार गई थी।”
एक गहरी टीस सी हृदय को घायल कर रही थी। और नहीं बैठा गया और मैं उठ गया। कमरे में लौटकर न जाने क्या हुआ। बड़ी ज़ोर से रुलाई फूट गई और मैं देर तक रोता रहा।
सुबह बिना किसी को बताए मैं कनक के घर की ओर चल दिया।
खूँटे पर बंधी तीन मरियल सी गाय सूखी जुआर के तिनके चबा रही थीं। पास ही बुझ गए चूल्हे से हल्की धूँए की लकीर सी उठ कर हवा में विलीन हो रही थी। आस पास कोई दिखाई नहीं दे रहा था।
अरे… उधर कंटीली झड़ियों की बाड़ के पीछे शायद कोई सोया हुआ है या दूसरी तरफ करवट करके लेटा हुआ है। पहले सोचा कनक सिंह को आवाज दूँ मगर फिर खाट के पास जाकर देखना उचित समझा।
आहट सुनकर गंगा ने करवट बदली और मुझे देखते ही उसके रुग्ण से चेहरे पर एक चमक सी दौड़ गई।
“आ गए बाऊसा। कैसी है थारी घराली। साथ लाये है न। मुझे भी देखणी है। पण अभी चल कोणी सकूँ। पाँव में चोट…। ”
“अरे, क्या हुआ तुम्हें गंगा। कैसे हाथ पाँव तुड़वा लिए।”
“वहाँ मेरी ससुराल में ऊंच्चो पर्बत है न बाऊसा। पाँव फिसल गया मेरा। घणी चोट लगी पण बच गई मैं। चा बाणऊ आप रे वास्ते। कितना दूध भेजणा है कल से। मैं बापू से…।” उसने मासूम झूँठ बोलने का असफल सा प्रयास किया किन्तु चेहरे पर तैरते वेदना के भाव क्या छुपाये छुपते हैं।
एक अपराध बोध सा दिल पर तारी हो गया। मैं क्यूँ नहीं उसी समय अपनी भावनाएं व्यक्त नहीं कर पाया।
“गंगा, मेरे लिए चाय बनाओगी। रोज। मेरे घर।”
“मैं क्यूँ बणाऊँ थारी चा।” थारी घराली बीमार है क्या। या…।” उसने बढ़े पेट का इशारा किया। इस तनावपूर्ण वातावरण में भी उसके भोलेपन पर मेरी हंसी छूट गई। ये भी लगा कि मेरे शब्दों से उसके स्वाभिमान को ठेस लगी है। तभी उसने रोष के साथ कहा ‘मैं क्यूँ बनाऊ चाय।’ हे भगवान। चाहे इन स्वाभिमानी जनजतियों के पास धन पैसा कुछ भी न हो पर अपनी परम्पराओं, चरित्र के मापदंड और स्वाभिमान को सँजो कर रखा है इन्होने। कैसा अन्याय करता है तू। ऐसे निष्पाप भोले लोगों को भी ऐसा कष्ट। कहाँ है तेरा इंसाफ।
“मेम साब नहीं है। अब कहीं नहीं है। मेरे लिए चाय बनाओगी गंगा। जिंदगी भर। हम दोनों के लिए। मेरी बींदनी बनकर।” मेरे शब्द भावुकता के गहरे सागर में डूबकर गीले हो रहे थे।”
“ऐसी बाताँ मती करो बाऊ सा। सरीर रो दर्द तो झेल जाऊँ पण हिवाड़े रो बर्दाश्त कोणी होवै। मेरी औकात थारी पाँव री जूती बराबर भी होती तो नी जाण देती थानै। बाप्पू के कहकर पल्लू से बांध लेती बाऊसा। पण हम गरीब नीच जात रे बागड़ी।” उसकी आँखों के लाल डोरे खारे पानी के सैलाब में डूब गए।
“बस तेरी हाँ की अभिलाषा थी गंगा। तेरी आँखों के कमल आंसुओं के लिए नहीं बने हैं। जिंदगी भर एक कतरा आँसू नहीं आने दूँगा।” कहते कहते मैंने उसका हाथ पकड़ लिया।
तभी कनक सिंह ने प्रवेश किया। अंजाने ही मेरे हाथ कनक के पाँवों की तरफ झुक गए। वो आश्चर्य से मेरी ओर देख रहा था।
दूर गली के नुक्कड़ से जतन भागा चला आ रहा था। “अरे सुन।” वो दूर से ही चिल्लाया। “तेरा दोबारा जौयनिंग लैटर आ गया। जयपुर पोस्टिंग हुई है। चार दिन बाद जौयन करना है।”
“चार दिन। चार दिन में हो जाएगा क्या कनक सा?”
कनक सिंह ने सवालिया निगाह से मेरी ओर देखा।
“मेरा और गंगा का ब्याह।”
कई पल कनक सिंह और जतन मेरी ओर अचंभे से देखते रहे। कनक सिंह की न जाने आश्चर्य से या खुशी से फैल गई आँखों से आंसुओं की धार बह निकली। फिर उसके लपक कर मुझे सीने से लगा लिया।
रवीन्द्र कान्त त्यागी