सबक सिखा कर रहूंगी – ऋचा उनियाल

“रमा तू आज फिर लेट हो गई? तेरा ये अब रोज़ का नाटक हो गया है, पहले तो ऐसा नहीं करती थी!! ऊपर से तेरी आए दिन की छुट्टी से मैं तंग आ गई हूं। देख साफ साफ कह रही हूं रमा, अगर ऐसा ही चलता रहा ,तो मुझे नहीं करवाना तुझसे कोई काम वाम , तू कोई दूसरा घर देख ले जो तेरे ये नखरे झेल ले। “

मैं गुस्से से अपनी मेड रमा पर बरस पड़ी।

“नहीं नहीं भाभी अब से नहीं होगा लेट ,और मैं अब कोई छुट्टी भी नहीं लूंगी…..सच्ची।”

रमा रूआंसी होकर बोली।

ईमानदार और  हंसमुख स्वभाव की , समय की पाबंद और घर के कार्यों में निपुण रमा ,पिछले दो वर्षों से, मेरे घर पर काम कर रही है। उसके भरोसे अपने घर का काम छोड़कर ही, मैं अपनी   ‘9 टू 5 ‘ की जॉब, निश्चिंत होकर कर पाती हूं। रमा के रहते मुझे अपने घर की कोई चिंता नहीं रहती। पता रहता कि वो सब संभाल लेगी। सच कहूं तो मेरी सफलता और दो सालों में लगातार दो बार प्रमोशन का पूरा श्रेय रमा को ही जाता है ।

लेकिन कुछ दिनों से रमा में आए बदलाव से मुझे बहुत खीज हो रही थी। उसका आए दिन लेट आना और कई कई छुट्टियां लेना मुझे अब बहुत खटक रहा था। खीज इसलिये भी थी कि वो लेट आने और छुट्टियों का कोई कारण भी नहीं बताती थी। मैं पूछती थी तो बस चुप चाप सिर झुकाए  खड़ी रहती। कुछ बोलती ही नहीं थी।

पिछले दो वर्षों में मैने शायद ही कभी रमा को डांटा हो। या यूं कहूं कि उसने मुझे ऐसा मौका दिया ही नहीं। पिछले कुछ दिन मैंने उसके बरताव में आए बदलाव को अनदेखा किया। परंतु आज मेरे सब्र का बांध टूट चुका था और मैं

उस पर बुरी तरह बरस पड़ी थी।।

रमा डांट खाकर चुपचाप अपने काम में लग गई। सच बताऊं तो उसे डांट कर मुझे भी बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था।

मैंने फटाफट दो कप चाय बनाई और रमा को आवाज़ दी,

“रमा ,आजा पहले चाय पी ले, फिर बाकी काम निपटा लेना”

ये हमारा रोज़ का रुटीन था। ऑफिस निकलने से पहले मैं दो कप चाय बनाती, हम दोनों साथ में चाय पीते। मैं अखबार पढ़ती और कुछ खबरें उसे भी सुनाती। वो भी बड़ी तन्मयता से सब खबरें सुनती, पर आज माहोल कुछ अलग था,

मैंने अखबार से नज़रे हटा कर रमा को देखा वो चाय का कप लिए , सिर झुकाए चुप चाप बैठी थी। मुझे उस पर दया आ गई।

” अरे रमा, मेरी बात का इतना बुरा मान गई?  अच्छा बाबा माफ कर दे। आज कुछ ज्यादा ही डांट दिया मैंने तुझे।अब क्या करूं, तू तो जानती ही है ,ऑफिस का काम और प्रेशर भी बहुत है मुझ पर, इस लिए तुझ पर गुस्सा उतर गया। चल अब जाने भी दे। थोड़ा बहुत डांटने का हक तो है न मुझे? “

इस पर रमा कुछ बोली नहीं बस हल्का सा मुस्कुरा दी, उसकी सूनी आंखें डबडबा आईं। जैसे मुझसे कुछ कहना चाहती हों। मुझे कुछ अजीब लगा , मैंने उससे पूछना चाहा , एक नज़र घड़ी की ओर देखा , आज ऑफिस के लिए मुझे बहुत देर हो रही थी तो रमा से बात करने का या कुछ पूछने का समय नहीं था मेरे पास। मैंने जैसे तैसे जल्दी जल्दी चाय खतम की। रमा को हिदायते देती हुई मैं घर से बाहर अपनी गाड़ी की तरफ लगभग भाग रही थी।

“रमा, घर का काम निपटा के ताला लगा देना और चाबी शर्मा जी के यहां दे देना और  हां कल संडे है,जानती हूं तेरी छुट्टी रहती है पर कल घर पर कुछ मेहमान आने वाले हैं, तो कल भी तू आ जाना ,भूल कर भी छुट्टी मत करना ठीक है?

” हां भाभी आप आराम से ऑफिस जाइए ।मैं सब संभाल लूंगी आप चिंता ना करें।”

रमा के इस वाक्य से आश्वस्त मैं अपने ऑफिस के लिए निकल गई।

अगले दिन फिर रमा नहीं आई।

“मेहमान आते ही होंगे और इस रमा का कोई अता पता ही नहीं है।” मैं गुस्से में बड़बड़ाई।

खैर मैंने उसके भरोसे बैठना सही नहीं समझा और जल्दी जल्दी घर के काम एक एक कर निपटाती रही और मन ही मन रमा को कोसती रही।

मेहमानों के आने से पहले सब काम मैंने, जैसे तैसे निपटा लिए और उनकी आवभगत में कोई कसर नहीं छोड़ी। मेहमानों के जाने के बाद ही मैने चैन की सांस ली।

अपने लिविंग रूम पर रखे सोफे पर लगभग पस्त हो चुकी, मैं मन ही मन सोच रही थी कि हम महिलाएं भी धीरे धीरे मेड पर इतना आश्रित कैसे हो जाती है कि उनके बिना घर के मामूली काम करना भी हमे इतना अखरता है।

अब मुझे ही देख लो आज घर के कुछ काम क्या करने पड़े मेरी तो हालत ही खराब हो गई। थकान से पूरा शरीर दर्द कर रहा था मेरा।

मुझे अब रमा पर बिलकुल भरोसा नहीं रहा था। मैंने गुस्से में रमा को फोन किया। उसने फ़ोन नहीं उठाया। अब तो मेरे क्रोध की कोई सीमा ना थी। मैंने तय कर लिया कि अब मैं दूसरी मेड ढूंढूंगी और रमा को काम पर आने के लिए मना कर दूंगी। गुस्से में मैंने एक बार फिर उसका नंबर मिलाया। इस बार किसी ने कॉल उठा ली।

इससे पहले फोन के दूसरी ओर से कोई कुछ कह पाता, मैं बरस पड़ी,

” ये क्या तरीका है रमा! मैंने तुझे कहा था ना कि आज मेरे मेहमान आने वाले है तू छुट्टी मत लेना। तूने फिर भी छुट्टी कर ली। ऊपर से तू फ़ोन कर के बताती भी नहीं है कि नहीं आ पाएगी। कुछ पूछो तो छुट्टी की वजह भी नहीं बताती। अब कल से यहां मत आना। कहीं और काम ढूंढ ले।”

दूसरी तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया तो मैंने” कहा चुप क्यों हो गई? समझ आ गया ना? कल से काम पर मत आना।”

तभी दूसरी ओर से किसी बच्ची की आवाज़ आई,

“मामी ! हम मंजरी बोल रहे हैं।”

मंजरी की आवाज़ सुन मैं झेप गईं। मंजरी रमा की छह साल की बेटी है। बड़ी ही प्यारी बच्ची है। कई बार रमा के  साथ घर आ जाया करती थी। क्योंकि रमा मुझे भाभी कह कर संबोधित करती थी तो रमा स्वतः मुझे मामी कहने लगी। उसका मामी पुकारना मुझे भी  बहुत अच्छा लगता था।आज अनजाने में मैंने छोटी सी बच्ची को बहुत कुछ सुना दिया था।

“अरे मंजरी बेटा! तुम हो , मम्मी कहा हैं उन्हें फ़ोन दो।”

मैंने सकपकाते हुए कहा।

ये सुनते ही मंजरी जोर ज़ोर से रोने लगी।

” मामी , अम्मा अस्पताल में है।”

” हॉस्पिटल में? क्यों क्या हुआ मम्मी को बेटा?”

मंजरी अब और ज़ोर से रोने लगी। रोते रोते बोली

“वो वो वो मामी”

उसकी हिचकिचाहट भांपते हुए मैने कहा

” डर मत बेटा, बता तो क्या हुआ?”

मेरे आश्वासन देने पर वो बच्ची सिसकते हुए बोली

” वो मामी ,कल बापू ने अम्मा को फिर से खूब पीटा। “

“बापू ने पीटा? पर बेटा तुम्हारे बापू तो दूसरे शहर रहते थे ना? कब आए वो वापस और क्यों  पीटा तुम्हारी अम्मा को उन्होंने?

हां मामी अभी कुछ ही दिन पहले बापू आ गए घर वापस ,वो कोरोना की वजह से उनका काम छूट गया। तबसे यहीं है। रोज़ शराब पीकर घर आते हैं और अम्मा और मुझे खूब पीट ते हैं। कल भी उन्होंने अम्मा और मुझे खूब पीटा, अम्मा मुझे बचाने आई तो उन्होने अम्मा को इतनी ज़ोर का धक्का दिया की अम्मा का सिर पलंग के कोने में जा लगा । उनके सिर से बहुत खून बहने लगा और वो बेहोश हो गई। मैंने भाग कर पड़ोस वाले काका को बताया तो वो अम्मा को हस्पताल लेके गए । मामी !!! मुझे बहुत डर लग रहा है ।अम्मा ठीक तो हो जाएगी ना?”

मंजरी फूट फूट कर रो रही थी। उसके क्रंदन से मेरा कलेजा मुंह को आ रहा था। कुछ समय के लिए मेरी सांस मानो रुक सी गई। मेरे सामने रमा की छवि उभर आई। कुछ दिनों से उसका कभी लचक लचक कर चलना, चोट के निशानों का कारण, बाथरूम में  या सड़क पर फिसलना बताना। उसका आए दिन छुट्टी लेना। इन सबका कारण अब स्पष्ट था।

मेरा हृदय रो पड़ा। क्यों इतना सब सहती आ रही थी रमा? एक बार मुझसे अपना दुख बता कर तो देखती। खैर बताती भी कैसे? मेरे पास भी समय कहां होता था उसकी कोई भी बात सुनने का। सुबह ऑफिस जाने के लिऐ भागते घोड़े पर मैं सवार रहती। बस साथ में एक कप चाय पीने भर का समय होता मेरे और रमा के पास उसमें भी मैं अख़बार में ज्यादा रुचि रखती । हम लोग भी कितने स्वार्थी होते हैं ना। रमा मेरे

घर को अपना घर समझ कर संभालती थी। मैं खुद जानती हूं कि मेरी सफ़लता में उसका इतना बड़ा योगदान रहा है । और मैं? अख़बार पढ़ते हुए उसे चंद खबरें तो मैं सुना दिया करती   पर उसकी सूनी आंखों के पीछे क्या करण है ये पूछने की फुरसत मुझे कभी थी ही नहीं। ग्लानि हो रही थीं मुझे खुद पर। क्या गम था उसे, कभी दो मिनट उसके पास बैठ कर उससे नही पूछा ।

क्या पता वो मुझसे कुछ कहना चाहती हो या किसी सहायता की अपेक्षा रखती हो। अपनी व्यस्तता के कारण अपने आस पास के लोगो की दुःख तकलीफ देख ही नहीं पाते। या यूं कह लो कि देख कर भी अनदेखा कर देते हैं।

मित्रों जिंदगी तो यूं ही भागादौड़ी, पैसे कमाने की होड़ में गुजरती रहेगी। पर हमे अपने जीवन का थोड़ा समय अपने आस पास रहने वाले लोगों के लिऐ भी अवश्य निकालना चाहिए। स्वजनों से ही जीवन है। ये बात हमें नहीं भूलनी चाहिए।

रमा तो मुझसे अपना दुःख नहीं कह पाई। पर अब मैंने ठान लिया था कि रमा के पति को मैं सबक सिखा के रहूंगी और मेरे पैर स्वत: ही पुलिस स्टेशन की ओर बढ़ गए।

समाप्त

स्वरचित

ऋचा उनियाल बोंठीयाल

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