कोटा शहर की एक कॉलोनी जो हाऊसिंग बोर्ड के मकानों से बनी थी। जिसमें लगभग छोटे, मध्य एवं बड़े सब मिलकर लगभग तीन हजार के करीब मकान बने हुए थे। उन्हीं में एक मकान था चिरंजीलाल का जिसमें वह अपनी पत्नी एवं चार बच्चों के साथ सुख पूर्वक रहता था।
दो बेटे एवं दो बेटियां। सबसे बड़ी बेटी की शादी छोटी उम्र में ही कर दी थी अभी गौना नहीं हुआ था सो यहीं रहती थी।बड़े बेटे मोहन का मन पढ़ाई में नहीं लगता था सो पढ़ाई छोड़ घर बैठा था।छोटा बेटा एवं बेटी स्कूल में पढ़ रहे थे।
माता-पिता ने चारों बच्चों को बड़े नाजों नखरों से पाला। उन्हें हर त्योहार पर नये कपड़े दिलाते। बच्चे पड़ोस के अन्य बच्चों के साथ खेलते कूदते बड़े हो रहे थे।
सुभद्रा जी जो पड़ोस में ही रहतीं थीं उनके बच्चे अक्सर कहते मम्मी देवेश और मीना के मम्मी-पापा उन्हें हर त्योहार पर नये कपड़े दिलाते हैं आप तो हमें नहीं दिलातीं। हमें तो केवल दीवाली पर ही नये कपड़े दिलातीं हो।
तब सुभद्रा जी हंसकर समझातीं बेटा वे केवल त्योहार पर ही नये कपड़े लेते हैं तुम लोग तो आए दिन फरमाइश कर के कभी भी ले लेते हो।
चिरंजीलाल खुद्दार किस्म का इंसान था ।वह सोचता मेरा काम छोटा है कोई हमें छोटा न समझे इसलिए अपनी अकड़ में रहता।
उसकी पत्नी अच्छी मिलनसार महिला थी।कभी कभी सुभद्रा जी उनसे कहतीं बोला करो बात चीत करने से अच्छा लगता है। तो उनका जवाब होता आप सब बड़े लोग हैं आपके बीच उठने बैठने में शर्म आती है।
अरे ऐसा कुछ नहीं है आप बेहिचक बात करें। धीरे धीरे उनकी हिचक दूर हुई और वे सुभद्रा जी से कभी कभी बात कर लेतीं।
कुछ समय बाद छोटे बेटे ने भी पढ़ाई छोड़ दी।अब दोनों बेटे छोटा-मोटा काम करने लगे। बड़ी बेटी ससुराल चली गई एवं छोटी बेटी पढ़ने में होशियार थी सो वह पढाई के साथ साथ सिलाई , पेंटिंग वगैरह भी सीख रही थी।
बड़े बेटे की शादी की बहू गांव की लड़की थी बड़ी तेज तर्रार। थोड़ा बहुत घर का काम करतीऔर सो जाती।सास जब काम करने के लिए बोलती तो पलटकर जवाब देती मेरे से तो नहीं होता काम खुद कर लो।
वे परेशान हो जातीं तो कभी कभी अपना दुख-दर्द सुभद्रा जी से बांट लेतीं।
समय तो जैसे रथ पर सवार होकर भाग रहा था।बड़ी बहू अब तक दो बेटों और एक बेटी की मां बन गई। दोनों छोटे बेटे-बेटी की शादी हो गई।
अब परिवार का परिदृश्य बदल चुका था। माता-पिता बुढ़ापे की ओर अग्रसर थे और बच्चे जवानी की ओर। चिरंजीलाल एक फैक्टरी के बगीचे की देखभाल का काम करता था।ये लोग माली थे सो बड़े बेटे को भी बगीचे की रख-रखाव के काम पर लगवा दिया।
बढ़ती उम्र और बीमारी की वजह से वे लोग कमजोर होते जा रहे थे। ज्यादा पैसे न होने की वजह से ढंग का इलाज भी नहीं करवा पा रहे थे।अब घर की बागडोर बड़े बेटे -बहू ने सम्हाल ली। उन्हें न तो अच्छा खाना देते और कमरे से भी बाहर निकाल चारों ओर से खुले बरामदे में रहने को बोल दिया
जिसमें पंखा तक नहीं था। गर्मीयों में गर्मी से बुरा हाल होता तो सर्दीयों में ठंडी हवाएं सोने नहीं देतीं।अब खाना भी बहू बनाकर नहीं देती।
रसोई एक ही थी।अपना खाना बनाकर बहू रसोईघर से निकल जाती फिर सास अपनाऔर पति और छोटे बेटे के लिए खाना बनाती।समय पर छोटे बेटे की भी शादी कर दी।
कुछ समय बाद छोटे भाई को लड झगड कर अलग कर दिया।छोटा मकान था उसके भी दो हिस्से हो गये।कभी कभी मन होता तो छोटी बहू खाना दे देती नहीं तो अक्सर वह उनसे बात नहीं करती।
छोटा बेटा गुस्सेल स्वभाव का था सो वह माता-पिता से खूब झगड़ता और पति-पत्नी में भी लड़ाई होती सो उसकी पत्नी परेशान हो मायके चली गई।
पैसों की कमी से परेशान हो चिरंजीलाल ने अपनी खेती की जमीन का कुछ हिस्सा बेंच दिया और थोड़े पैसे अपने पास रख आठ लाख रुपए बड़े बेटे को दिए कि इन रुपयों को फिक्स डिपॉजिट मेरे नाम करा दे।जब तीन चार दिन तक बेटे ने पेपर नहीं दिए तो उन्होंने पेपर मांगे।
इस पर बेटा बोला आप क्या करोगे इतने पैसों का वो तो मैंने अपने नाम करा लिए।
यह सुन पिता हक्के-बक्के रह गए।बोले अब हमारा खर्च कैसे चलेगा।
बेटा -क्या खर्च करना है आपको बुढ़ापे में दे तो रहा हूं खाने को रोटियां।खाओ और चुपचाप पड़े रहो।
पर बेटा हमारी दवाई, इलाज कैसे होगा।
जी लिए बहुत अब कितना जीना है जो दवाई चाहिए।
इस विश्वासघात को वह सहन नहीं कर पाए और दवाई इलाज के अभाव में तीन महीने में ही दम तोड दिया।अब रह गई अकेली मां।
जितना हो सकता बहू उनसे काम करवाती और पूरा खाना भी नहीं देती।जिस घर में वे मालकिन की हैसियत
से रहतीं थीं वहीं अब नौकरानी से भी बद्तर स्थिति थी।कोढ़ में खाज काम तब हुआ जब वे गिर गईं और कूल्हे की हड्डी में फ्रैक्चर हो गया। डाक्टर को दिखाया तो उन्होंने आप्रेशन के लिए बोला।
इतना खर्च क्यों करना चुपचाप पलंग पर पड़ी रहो क्या करोगी चल-फिर कर बेटे बहू ने कहा। विवशता में उनकी आंखों से आंसू बहने लगे । दर्द के मारे बुरा हाल था।
तभी उनकी बेटियों को जैसे ही पता चला तो वे आईं और डाक्टर को दिखाया आप्रेशन करवाया।छोटी बेटी आंगनबाड़ी में काम करने के साथ -साथ सिलाई भी करती थी।इस तरह वह कमाती भी थी सो उसने पैसे खर्च किए और अपने साथ ले गई।उनकी अच्छे से देखभाल करती।
जब अंत समय आया तो वे जिद करके अपने घर आईं कि मैं अपने घर में ही मरूंगी और तीन दिन बाद ही चल बसीं।
अब तो बेटे-बहू पूर्ण रूप से स्वतंत्र थे। उनके तीनों बच्चे नहीं पढ़े।बेटी की शादी छोटी उम्र में ही सामूहिक विवाह सम्मेलन में कर दी और बेटे दूकानों पर काम करने लगे।इसी बीच उन्होंने जो बची हुई थोड़ी जमीन थी उसे भी चुपचाप बेंच कर छोटे भाई के साथ फिर विश्वासघात किया। उसे एक पैसा भी नहीं दिया।
वक्त ने करवट बदली अब उनकी उम्र हो रही थी और बेटे जवान हो रहे थे।बड़े बेटे की शादी की चार-पांच दिन रहकर उसकी पत्नी जो मायके गई तो लौट कर नहीं आई उसे घर पसंद नहीं आया। फिर छोटे बेटे की शादी की मकान अच्छा बनवाया।
उस छोटे से मकान को दो मंजिला बनाया खूब पैसा खर्च किया। मकान के बनते ही छोटे बेटे-बहू अलग ऊपर की मंजिल में शिफ्ट हो गए। और अपनी रसोई अलग कर ली।अब बड़े बेटे मोहन की पत्नी बीमार रहती किन्तु अपने पति और बड़े बेटे का काम करतीं।
मोहन को शुगर की बीमारी हो गई और एक दिन शुगर ज्यादा बढ़ जाने के कारण उन्हें पक्षाघात हो गया।दो साल से बिस्तर पर पडे हैं बोल तक नहीं पाते। इलाज के पैसे नहीं थे तो अपनी मोटर साइकिल, बड़े बेटे की स्कूटी , और भी सामान बेंच दिया किंतु वह बच नहीं सके।
अब बेटे की बहू अपनी सास के साथ वही सब दोहरा रही थी जो उन्होंने अपने सास-ससुर के साथ किया था।खून के
आंसू रुला रही थी। वे सोचतीं थीं कि वे तो ऐसी ही ताकतवर और जवान बनीं रहेंगी सो सास को जमकर परेशान किया था।
किन्तु इतिहास अपने को दोहराता है।अब वही स्थिति इनकी बहू की है।अभी गुमान में उसके पांव जमीन पर नहीं पड रहे और जितना परेशान कर सकती है उतना कर रही है।
छोटे भाई से तो कोई संबंध रखा ही नही था सो वह मरने पर भी आकर खड़ा नहीं हुआ। पिता एवं छोटे भाई से विश्वासघात किया वही कर्म आज लौट कर उन पर आए और अपने कर्मो की सजा भुगती।जिस घर मकान पर गुमान था कुछ काम नहीं आया और कर्मो के फलस्वरूप दुर्गति हुई।
सच है अपने कर्मों का फल यहीं भुगतना पड़ता है।
लेखिका : शिव कुमारी शुक्ला
जोधपुर राजस्थान
11-9-25
स्व रचित एवं अप्रकाशित
विषय****विश्वासघात